मंगलवार, 6 जनवरी 2015

भगवा कु-शास्त्र और तर्कवादी भारतीय चिकित्साशास्त्र

                
     भगवाशास्त्रियों के विचारों की बाढ़ आई हुई है। हर स्तर पर जिस तरह वे धारावाहिक विचार वर्षा कर रहे हैं उसका उनकी ही गति से जबाव देने की जरुरत है। नयी कोशिशें विज्ञान के नाम पर वैचारिक प्रदूषण से जुड़ी हैं। यह कोई नहीं कहता कि भारत में कभी विज्ञान नहीं था, यह भी कोई नहीं कहता कि भारत पूरी तरह अंधविश्वासी –अतार्किक था। भगवाशास्त्री परंपराओं का अनालोचनात्मक महिमामंडन करने के बहाने परंपराओं को लेकर विभ्रम खड़ा कर रहे हैं। परंपरा की तर्कहीन और तर्कपूर्ण विरासत में भेद खत्म कर रहे हैं। मसलन् ,संघ के लोग अंधविश्वासों को बनाए रखकर परंपराओं के नाम पर विभ्रम खड़ा कर रहे हैं।खुलेआम अंधविश्वास फैलाने वालों के पक्ष में खड़े हैं और अंधविश्वासों का प्रचार कर रहे हैं। आज वे कह रहे हैं कि आयुर्वेद तो पुराना विज्ञान है। वे अंधविश्वासों से लड़े बिना इस शास्त्र को अपने कुतर्कों और कुसंस्कारों के साथ गड्डमड्ड कर रहे हैं। लेकिन वे भूल जाते हैं कि आयुर्विज्ञान का संबंध अंधविश्वासीसंघी परंपरा से नहीं है। वे यह छिपा रहे हैं पुराने आयुर्विज्ञान ने मंत्रवादियों से जंग लड़कर इस शास्त्र को बनाया था।



प्राचीनकाल में एक तरफ वे लोग थे जो मंत्र-तंत्र-झाड़-फूँक के जरिए आम जनता की चिकित्सा किया करते थे, इसके विपरीत दूसरी धारा उन लोगों की थी जो तर्काधारित चिकित्सा पद्धति के जरिए इलाज करते थे। मंत्रवादी चिकित्सा को 'दैव-व्यपाश्रय भेषज' और तर्कवादी चिकित्सा को 'युक्ति व्यपाश्रय भेषज' कहा जाता था। इन दोनों में चली व्यवहारिक वैचारिक जंग से प्राचीनकाल में तर्कवादियों की परंपरा को निर्मित करने में बड़ी मदद मिली। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने लिखा है ' दैव-व्यपाश्रय भेषज के स्थान पर युक्ति-व्यपाश्रय भेषज अपनाते समय चिकित्सकों को अभिचार-तंत्रमंत्र, धार्मिक अनुष्ठान,धर्म आदि के प्रभाव को त्यागना पड़ा,जबकि ये सभी दैविक चिकित्सा पद्धतियां शक्तिशाली पुरोहितवर्गों द्वारा पूर्णतःसमर्थित थीं। ' यही वह बुनियादी अंतर है जिसके कारण प्राचीन साहित्य में बड़े पैमाने पर 'युक्ति व्यपाश्रय भेषज' चिकित्सकों और शल्यक्रिया करने वालों की निंदा मिलती है। खासकर शल्यचिकित्सकों के प्रति अत्यंत घृणा मिलती है। आयुर्विज्ञान यदि हिन्दू परंपरा में ही आता है तो मंत्रवादी हिन्दुओं ने निंदा क्यों की ? 'युक्ति व्यपाश्रय भेषज' चिकित्सक पूरी तरह मंत्रवादी व्यवस्थाओं से अलग खड़े थे। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय के अनुसार ' ज्यों-ज्यों वर्णाश्रम व्यवस्था सुदृढ़ होती गई,त्यों-त्यों आयुर्विज्ञान-चिकित्साशास्त्र के प्रति अवमानना घनीभूत होती गई। अंततोगत्वा यह विद्या सर्वथा विनष्ट होकर ही रही।' आयुर्विज्ञान के विकास के लिए संघ की आस्था रुपी इरेशनल धारणा की नहीं ,अपितु रेशनल तर्कवादी धारणा की जरुरत है , इस धारणा को संघ एकसिरे से खारिज करता है। यही वह बिंदु है जहाँ पर संघ बेनकाब भी हो जाता है। संघ को आयुर्विज्ञान को मानने के साथ ही आस्था की धारणा को नष्ट करना होगा। आयुर्विज्ञान की परंपरा आस्था-मंत्र की परंपरा का विलोम है।

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