गुरुवार, 8 जनवरी 2015

पिकासो ,पेरिस और यूरोपीय गुण्डागर्दी


          पेरिस में व्यंग्य पत्रिका पर क़ातिलाना हमला और हमले में 12 लोगों की मौत की घटना हमें पेरिस के अंदर झाँकने के लिए मजबूर कर रही है,कुछ  अर्सा पहले पेरिस और आसपास के इलाक़ों में भयानक दंगे हुए थे,  पेरिस तक़रीबन एक महिने तक नस्ली हिंसा में झुलसता रहा। जो पेरिस की कलाएँ देख रहे हैं वे पेरिस के नीचे पूँजीवादी समाज की बर्बरता नहीं देख पा रहे। पेरिस में यह पहली घटना नहीं है जिसने यूरोपीय भद्रसमाज के असभ्य नासूर को उजागर किया है। इसके पहले भी कई घटनाएँ हो चुकी हैं जिनमें पेरिस का तथाकथित भद्र समाज बेनक़ाब हो चुका है। एक घटना याद आ रही है जब महान पेंटर पिकासो ने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता लेने की घोषणा की तो किस तरह वहाँ लंपटता दिखाई दी थी। 
     5अक्टूबर 1944 को कम्युनिस्ट पत्रिका " ह्यूमनिटी" ने जब पिकासो के पार्टी सदस्यता लेने की ख़बर छापी तो काफ़ी हंगामा हुआ था , पिकासो ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पेरिस में युद्ध की विभीषिका के दौरान शहर नहीं छोड़ा और चित्रों में युद्ध की विभीषिका को अभिव्यक्ति दी। उल्लेखनीय पिकासो के चित्रों को लेकर हिटलर परेशान था साथ ही सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी भी पिकासो की आलोचक थी, दूसरी ओर फ़्रांसीसी अभिजातवर्ग भी पिकासो को पसंद नहीं करता था। 
     पिकासो ने 7अक्टूबर 1944 को फ़्रेंच कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ली, दिलचस्प बात यह थी कि हिटलर की काली सूची में पेरिस में पहला नाम पिकासो का था, सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी उसे नापसंद करती थी , क्योंकि पिकासो ने 'समाजवादी यथार्थवाद' की धारणा का तीखा विरोध किया था । लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध ख़त्म होते ही पेरिस में जिस कलाकार का नाम सम्मान से सबसे ऊपर था वह था पिकासो। फ़्रेंच सरकार की कला प्रदर्शनी में पिकासो की युद्ध विरोधी चित्रों की प्रदर्शनी का आयोजन किया गया । नए प्रशासन ने सम्मानित किए जाने वाले कलाकारों में पिकासो का नाम सबसे ऊपर रखा । क्योंकि यही अकेला महान कलाकार था जो भयानक युद्ध की अवस्था में भी युद्धविरोधी चित्र बनाता रहा, जबकि बमबारी से उसके स्टूडियो का भी नुक़सान हुआ था । 7अक्टूबर को पिकासो ने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और दो दिन बाद उसकी कला प्रदर्शनी थी । इस प्रदर्शनी की घोषणा के साथ ही पेरिस में हंगामा शुरु हो गया, ख़ासकर प्रदर्शनी स्थल पर हज़ारों लोग इकट्ठा हुए , इनमें बड़ा तबक़ा विरोधियों का था ये लोग वैसे ही थे जैसे हमारे देश में संघी कलाविरोधी होते हैं। ये विचारों में प्रतिगामी थे। ये लोग पिकासो के विरोध में हिटलरपंथियों के विचारों से साम्य रखते थे। दूसरे विरोधी वर्ग में वे थे जो विदेशी होने के कारण पिकासो का कला का विरोध कर रहे थे। प्रदर्शनी स्थल पर इन दोनों क़िस्म के प्रदर्शनकारियों की गुण्डागर्दी  देखने लायक थी। उन्होंने प्रदर्शनी पर हिंसक हमले किए। जबकि पिकासो की पेंटिंग की हिमायत में कम्युनिस्ट , युवा पेंटर और छात्र खड़े थे। प्रदर्शनकारियों ने पिकासो के चित्रों को गिरा दिया और पूरी प्रदर्शनी को क्षतिग्रस्त किया। यह बाक़या बताने का मक़सद यह है कि पेरिस में असभ्यों की परंपरा रही है। 
   पिकासो का विरोध करने वाले इस बात से आहत थे कि ऐसे कलाकार को सम्मानित क्यों किया जा रहा है जो युद्धविरोधी है, जिसकी कला को हिटलर के शासन के दौरान चार साल तक विध्वंसक, हिंसक, मानवद्रोही ,अधोपतित क़रार दिया था , उसे सम्मानित क्यों किया जा रहा है। 
         पिकासो ने फ़्रेंच कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता लेने के बाद न्यूयार्क से प्रकाशित 'न्यू मैसेज' पत्रिका को 24अक्टूबर 1944 को एक साक्षात्कार दिया जिसमें उसने बयां किया कि " मैं कम्युनिस्ट क्यों बना?" -
   " मेरा कम्युनिस्ट होना , मेरे जीवन और रचना का तर्कशुद्ध परिपाक है, स्वाभाविक है कि मैंने चित्रकला को केवल मन को आनंदित करने वाला , विनोद का साधन कभी नहीं माना, मेरे शस्त्र हैं , रेखा और रंग.इनके आधार पर दुनिया और मनुष्य को अधिकाधिक जानने का प्रयत्न मैं करता रहा हूँ , क्योंकि यह ज्ञान स्वयं को प्रत्येक दिन ज्यादा -से -ज्यादा मुक्ति की ओर ले जाता है, अपनी पद्धति से मैं सत्य, औचित्य और जो उत्तम है , वह सब मंडित करने का प्रयत्न करता आया हूँ , और वही सबसे अधिक सुंदर होता है,महान कलाकार इससे भली-भाँति अवगत हैं।" 
      " मैं कम्युनिस्ट पार्टी में जाते वक़्त एक क्षण भी हिचकिचाया नहीं, क्योंकि मौलिक रुप से मैं हमेशा उनके साथ था .अब तक मैं पार्टी का सदस्य नहीं बना था ,यह एक तरह से मेरी सिधाई थी, मुझे लगता है कि मेरे काम और पार्टी के विचारों ने पार्टी को पूरी तरह अंगीकार कर लिया है . इस मायने में तो मैं पार्टी में ही था... आज तक मैं शरणार्थीकी ज़िन्दगी जीता रहा हूँ मगर इसके आगे नहीं... स्पेन द्वारा बुलाए जाने की मैं बाट जोह रहा हूँ . तब तक फ़्रेंच कम्युनिस्ट पार्टी का दरवाज़ा मेरे लिए खुला हुआ है. जिन्हें मैं अपने क़रीबी मानता हूँ वे सब मुझे यहाँ मिले हैं,बड़े कलाकार , महान कवि, विचारक और अगस्त में मेरे देखे हुए तनी गर्दन वाले विद्रोही पेरिसवासी चेहरे , मैं फिर से अपने बंधुओं में शामिल हो गया हूँ ।" 
        

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