शनिवार, 13 नवंबर 2010

लुप्त होता किसान - प्रसिद्ध अर्थशास्त्री गिरीश मिश्रा



यदि वर्तमान भारत, विशेषकर हिंदी पत्रकारिता और साहित्य, को देखें तो किसान को लेकर स्पष्टता का सर्वथा अभाव मिलेगा। अनेक तथाकथित वरिष्ठ पत्रकार और प्रख्यात साहित्यकार भी इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं कि भारत में किसान नामक प्राणी का अस्त्वि समाप्त हो रहा है। जिसे हम आज किसान कहते हैं वह वस्तुत: खेतिहर है। दोनों के संपृक्तार्र्थ अलग-अलग हैं। उदाहरण के लिए, स्थानाभाव के कारण, हम एक सुप्रतिष्ठित साहित्यकार द्वारा 21 अगस्त को एक हिन्दी दैनिक में लिखे लेख  ''साहित्य में खत्म होते गांव'' से कुछ वाक्य ही प्रस्तुत करेंगे। वे लिखते हैं-
1. ''गांव की तरफ बिलकुल ध्यान न देने का मतलब है किसानों पर ध्यान न देना। हर जगह किसानों से खेती की जमीन छीनी जा रही है... जमीन जाने के बाद वे आत्महत्या कर रहे हैं।''
2. ''यह बहुत चिंता की बात है कि आज हमारे कथा साहित्य, कविता और खास तौर पर नाटकों से किसानी जनजीवन पूरी तरह से खत्म होता जा रहा है। इस देश का सिर्फ आर्थिक ही नहीं, सांस्कृतिक विकास भी होना चाहिए। वह तभी संभव है जब यहां की किसानी संस्कृति का विकास हो। यह समझ हमारे वर्तमान और भविष्य के भारत के लिए जितना पथनिर्देशक बनी रहे, उतना अच्छा है।''
अगर थोड़ा ध्यान से देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि उपर्युक्त उध्दरणों से साहित्यकार की आर्थिक-सामाजिक विज्ञान की मामूली जानकारी भी नहीं है। दूसरे, उनको पता नहीं है कि भारत में पूंजीवादी बाजार ने किसान को लील लिया है और उसकी जगह पर खेतिहर को स्थापित किया है जो उसका पूरी तरह ताबेदार है। प्रेमचंद को दुनिया से गए हुए सात दशक से भी अधिक हो चुके हैं और अब उनका किसान भी दिवंगत हो चुका है। इसीलिए ''किसानी संस्कृति का विकास'' की बात करना अज्ञानता को प्रदर्शित करना है।
अर्थशास्त्र में किसान (पेजेंट) और खेतिहर (फार्मर) दो एक दूसरे से भिन्न संपृक्तार्थ वाले शब्द हैं  यद्यपि आम बोलचाल में इन्हें उसी तरह पर्यायवाची मान लिया जाता है जैसे 'मूल्य' और 'कीमत' या 'माल' और 'वस्तु' को।  मगर किसी भी गंभीर विमर्श में इनमें अंतर करना बेहद जरूरी है। किसान मानव सभ्यता के साथ तबसे जुड़ा है जब कृषि कार्य प्रारंभ हुआ जबकि खेतिहर का उदय पूंजीवादी यानी बाजार में बेचकर मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति के हावी होने के साथ हुआ। इसे स्पष्ट करने के लिए इतिहास में जाना होगा।
भारत में 'कृषक' शब्द अतीत से प्रचलित है। 'अमरकोश' के द्वितीय कांड के नौवें सर्ग में उससे जुड़े कार्य व्यापार का उल्लेख है। 'किसान' शब्द फारसी और संस्कृत के मिलन का परिणाम है।  किसान उसे कहा जाता है जिसका अपनी जमीन पर खेती करने का अधिकार होता है और वह अपने तथा अपने परिवार के सदस्यों के श्रम से सारे कार्य सम्पन्न करता है। उसके उत्पादन का मुख्य उद्देश्य अपने परिवार के उपभोग को पूरा करने के साथ ही पशुओं के लिए चारा जुटाना और अगली बुआई के लिए बीज का प्रबंध करना होता है।
चूंकि वह अपनी जरूरत की सब वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन नहीं कर सकता इसलिए पैदावार का एकमात्र बेचकर पैसे जुटाता और इच्छित वस्तुओं एवं सेवाओं को प्राप्त कर अपने उपभोग में विविधता लाता है। इसे 'सरल माल उत्पादन' कहते हैं और इसका सूत्र है माल-मुद्रा-माल। यहां किसान आमतौर से ऐसा कुछ उत्पन्न नहीं करता जिसका उपभोग वह न करे और सिर्फ बाजार में बेचे। धोबी, नाई, बढ़ई, लुहार, पंडित-पुरोहित की सेवाओं को प्राप्त करने का आधार यजमानी व्यवस्था या पारस्परिकता होती है।
किसान आदिकाल से सामंत या सरकार के प्रतिनिधि को लगान के रूप में उपज का एक निश्चित हिस्सा देता रहा है। भारत में उन्नीसवीं सदी के पहले नकदी लगान का चलन नहीं था। लगान उपज के रूप में दिया जाता था। जिसे 'मावली लगान' कहते थे। मावली लगान के जरिए राज्य भी खेती से जुड़े जोखिमों जैसे अनावृष्टि, अतिवृष्टि, बाढ़, भूकंप, टिड्डी दल का हमला आदि में साझा करता था।
चूंकि किसान की गतिविधियां गांव या बहुत हुआ तो एक छोटे से इलाके तक सीमित रहती थी इसलिए उसे बाहरी दुनिया के बारे में बहुत कम जानकारी होती थी। स्थानीय मेलों और बाजारों के सिवाय वह यदा-कदा तीर्थाटन पर निकलता था जिससे बाहरी दुनिया के विषय में कुछ जानकारी हो जाती थी। एक छोटे से दायरे में रहने से उसकी जीवन दृष्टि संकुचित होती थी। कृषि कार्य मूलत: प्रकृति के अधीन थे। वर्षा होगी या नहीं, होगी तो भरपूर या कम या फिर बुआई के साथ फसल पकने के समय भी प्रकृति से जुड़ी इन अनिश्चितताओं के कारण वह अंधविश्वासों और ज्योतिष, पूजापाठ आदि में आस्था रखने लगा था। कहना न होगा कि उस समय न मौसम वैज्ञानिक थे और न कृषि वैज्ञानिक। कब कौन-सा कृषि कार्य हो इसके लिए पंचांग रखने वाले पंडितों और घाघ-भड्डरी की उक्तियों से मार्गदर्शन लिया जाता था। पर्व-त्यौहार ही नहीं, बल्कि देवी-देवता भी कृषि से जुड़े थे। वर्षा के लिए इंद्र की पूजा-अर्चना और ब्रह्मभोज का सहारा लिया जाता था। चूंकि औसत आयु कम की और जनसंख्या बड़ी धीमी गति से बढ़ती की इसलिए प्रजनन से जुड़े देवताओं की आराधना की जाती थी। यह अनायास नहीं था कि शिवलिंग की पूजा भारत में काफी व्यापक थी। हर किसान प्रकृति से अपनी लड़ाई स्वयं लड़ता था इसलिए उसके सोचने का ढंग वैसा न था जैसा संगठित किसान-आंदोलनों में दिखा। पूंजीवाद के आने से पूर्व राजस्व मुख्यतया किसानों से मिलता था और उसी के आधार पर ताजमहल जैसे अजूबे बने और शासकों की शान-शौकत कायम रही। सैनिक अभियान चलाए गए और विश्व विजय का सपना देखा गया। एक हद के बाद लगान बढ़ाने से किसान विद्रोह करते या पलायन कर देते थे।
याद रहे कि अंग्रेजी राज कायम होने के बाद भी वर्षा तक कृषिभूमि खरीद-फरोख्त का वस्तु विनिमय करता। मगर स्थिति बदली, भावली की जगह नकदी लगान ने ले ली और जमीन की खरीद-फरोख्त होने लगी। नकदी की मांग बढ़ी और उसे पाने के लिए ऐसी फसलें उगाई जाने लगीं जिनका उपभोग किसान नहीं कर सकता था। नकदी लगान ने कृषि से जुड़े जोखिमों में लगान भोगी समुदाय की भागीदारी खत्म कर दी।
धीरे-धीरे किसान को खेतिहर में परिवर्तित कर दिया गया। वह अब बाजार के लिए उत्पादन करने को मजबूर हो गया। बंगाल और बिहार में दमामी बंदोबस्त का प्रावधान के तहत यूरोपीय निलहों ने जमींदारी के अधिकारी प्राप्त कर रैयतो को नील की खेती करने को मजबूर कर दिया। फलस्वरूप 1859-62 के दौरान बंगाल में नील-विद्रोह हुआ जो दीनबंधु मित्र के नाटक 'नीलदर्पण' का विषय वस्तु बना। उत्तर बिहार के चंपारण में 1860-1920 के दौरान किसान निलहो के खिलाफ संघर्ष रहे। वहां गांधीजी ने 1917 में किसान आन्दोलन का नेतृत्व किया। निलहों ने किसानों को जबर्दस्ती अंतर्राष्ट्रीय बाजार के मानकों के अनुसार उत्पादन करने को बाध्य किया था। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में दक्कन के दंगे हुए। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अमेरिकी गृहयुध्द और उसके पहले वहां फसल खराब होने के कारण कपास की आपूर्ति काफी कम होने से उसकी कीमतों में उछाल आया और किसानों ने खेतिहर बन कपास के उत्पादन में अधिकाधिक जमीन लगाई। बीज, खाद आदि के लिए महाजनों से कर्ज लिए। इस उम्मीद के भरोसे कि भविष्य में भी उछाल जारी रहेगा, उन्होंने ऋण लेकर अच्छे मकान बनवाए और जीवन-स्तर बढ़ाया। मगर अमेरिकी गृहयुध्द समाप्त होते ही भारतीय कपास की मांग और कीमत धराशायी हो गईं। कर्ज न अदा करने पर महाजनों ने कुर्की-जब्ती की कार्रवाई शुरू की और दंगे भड़के। इसके बाद 1929 में आई महामंदी के फलस्वरूप भारत में भी कृषि उत्पादों की कीमतें और मांग कम होने से नकदी का अभाव हो गया और लगान न दे पाने से रैयतों की जमीन की नीलामी शुरू हो गई और इसके विरुध्द अवध में बाबा रामचंद्र और बिहार में स्वामी सहजानंद के नेतृत्व में जोरदार किसान आन्दोलन शुरू हुए। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में एक नई प्रकृति ने जोर पकड़ा। सेठों-साहूकारों, वकीलों, डॉक्टरों, अफसरों और अन्य नौकरीपेशा लोगों ने कृषि भूमि खरीद भाड़े के मजदूरों के जरिए बाजार के लिए उत्पादन करना शुरू किया। जमीन में निवेश सुरक्षित होने के साथ प्रतिष्ठा और आय को बढ़ाता था। चीनी मिलों, जूट मिलों और सूती कपड़े के कारखानों की स्थापना से गन्ना, कच्चे जूट और कपास की मांग बढ़ी और नकद आय भी। आजादी के बाद भूमि सुधार कानूनों में छोड़े गए चोर दरवाजों का इस्तेमाल कर अनेक भूतपूर्व जमींदारों, ताल्लुकदारों और जागीरदारों ने अपने को बड़े खेतिहरों में परिवर्तित कर दिया। छोटे, विशेषकर सीमांत किसानों ने खेती से गुजारा न होने की स्थिति में शहर का रुख किया और उनकी जमीन ले दूसरे खेतिहर बन गए और बाजार के लिए उत्पादन करने लगे।  इन सब परिवर्तनों के फलस्वरूप किसान तेजी से लुप्त होने लगे और उनकी जगह खेतिहर आने लगे। खेती अब न प्रतिष्ठा का विषय रही, न आत्मनिर्भरता का आधार और न ही रोजगार और आय का पक्का स्रोत। आज सकल राष्ट्रीय उत्पाद में कृषि का हिस्सा आजादी के समय की तुलना में आधे से भी कम है।
हरित क्रांति ने हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में किसानों की जगह खेतिहरों को बिठा दिया। पिछले कुछ वर्षों से 'कान्ट्रेक्ट फार्मिंग' या ठेके पर खेती की व्यवस्था शुरू हुई है जिसके तहत बडी क़ंपनियां कृषि क्षेत्र में आ गई हैं। ऐसी स्थिति में प्रेमचंद और नागार्जुन के किसान विदा हो चुके हैं और उनसे जुडी समस्याएं प्रासंगिक नहीं रह गई हैं। उत्तरप्रदेश और बिहार के गन्ना उत्पादक और विदर्भ के कपास उगाने वाले किसान नहीं खेतिहर हैं। इसी प्रकार साग-सब्जी, फल, तंबाकू आदि उत्पन्न कर निर्यात करने वाले खेतिहर हैं किसान नहीं हैं। अत: उनका दृष्टिकोण प्रेमचंद के किसान से भिन्न है। इतिहासकार एरिक हॉब्सबॉम ने अपनी पुस्तक 'ग्लोबलाइजेशन, डेमोक्रेसी एंड टेररिज्म' में किसान के लुप्त होने और उसकी जगह खेतिहर के आने की परिघटना का विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक में नई दिल्ली में पत्रकार निखिल चक्रवर्ती की स्मृति में दिया गया उनका भाषण भी शामिल है। जिसमें उन्होंने बतलाया है कि इंडोनेशिया में किसानों का अनुपात 67 प्रतिशत से 44, पाकिस्तान में 50 प्रतिशत से कम, तुर्की में 75 प्रतिशत से घटकर 33, फिलीपींस में 53 प्रतिशत से घटकर 37, थाईलैंड में 82 प्रतिशत से 46 और मलेशिया में 51 प्रतिशत से 18 प्रतिशत रह गया है। चीन की कुल आबादी में किसान 1950 में 86 प्रतिशत को जो 2006 में 50 प्रतिशत हो गए। अभी बांग्लादेश, म्यांमा आदि में 60 प्रतिशत जनसंख्या किसान हैं। भारत में यह संख्या काफी घट गई है। यह कभी 80 प्रतिशत से अधिक थी। लेकिन औद्योगीकरण की त्वरित गति को देखते हुए यह स्थिति भी कब तक रहेगी?
ग्रामीण भारत में हो रहे द्रुत परिवर्तनों को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि अब किसान नहीं बल्कि खेतिहर वहां बहुमत में हैं। पिछले पांच-सात वर्षों में स्थिति काफी बदली है। इसको देखते हुए विलाप करने के बदले नई स्थिति का अध्ययन गंभीरता से करने की आवश्यता है। इसके लिए आवश्यक है कि हिंदी के साहित्यकार-पत्रकार अपने इर्द-गिर्द देखें तथा समाज विज्ञान से जुड़े लोगों से बातचीत करें।

  

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