मंगलवार, 2 नवंबर 2010

सामाजिक रूढ़िवाद की देन है हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष

      इस्लामिक दर्शन और धर्म की परंपराओं के बारे में घृणा के माहौल को खत्म करने का सबसे आसान तरीका है मुसलमानों और इस्लाम धर्म के प्रति अलगाव को दूर किया जाए। मुसलमानों को दोस्त बनाया जाए। उनके साथ रोटी-बेटी के संबंध स्थापित किए जाएं। उन्हें अछूत न समझा जाए। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देश में धर्मनिरपेक्ष संस्कृति को निर्मित करने लिए जमीनी स्तर पर विभिन्न धर्मों और उनके मानने वालों के बीच में सांस्कृतिक -सामाजिक आदान-प्रदान पर जोर दिया जाए। अन्तर्धार्मिक समारोहों के आयोजन किए जाएं।  मुसलमानों और हिन्दुओं में व्याप्त सामाजिक अलगाव को दूर करने के लिए आपसी मेलजोल,प्रेम-मुहब्बत पर जोर दिया जाए। इससे समाज का सांस्कृतिक खोखलापन दूर होगा,रूढ़िवाद टूटेगा  और सामाजिक परायापन घटेगा।
      भारत में करोड़ों मुसलमान रहते हैं लेकिन गैर मुस्लिम समुदाय के अधिकांश लोगों को यह नहीं मालूम कि  मुसलमान कैसे रहते हैं,कैसे खाते हैं, उनकी क्या मान्यताएं, रीति-रिवाज हैं। अधिकांश लोगों को मुसलमानों के बारे में सिर्फ इतना मालूम है कि दूसरे वे धर्म के मानने वाले हैं । उन्हें जानने से हमें  क्या लाभ है। इस मानसिकता ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच के सामाजिक अंतराल को बढ़ाया है। इस अंतराल ने संशय,घृणा और बेगानेपन को पुख्ता किया है।
     मुसलमानों के बारे में एक मिथ है कि उनका खान-पान और हमारा खान-पान अलग है, उनका धर्म और हमारा धर्म अलग है। वे मांस खाते हैं, गौ मांस खाते हैं। इसलिए वे हमारे दोस्त नहीं हो सकते। मजेदार बात यह है कि ये सारी दिमागी गड़बड़ियां कारपोरेट संस्कृति उद्योग के प्रचार के गर्भ से पैदा हुई हैं।
    सच यह है कि मांस अनेक हिन्दू भी खाते हैं,गाय का मांस सारा यूरोप खाता है। मैकडोनाल्ड और ऐसी दूसरी विश्वव्यापी खाद्य कंपनियां हमारे शहरों में वे ही लोग लेकर आए हैं जो यहां पर बड़े पैमाने पर मुसलमानों से मेलजोल का विरोध करते हैं। मीडिया के प्रचार की खूबी है कि उसने मैकडोनाल्ड का मांस बेचना, उसकी दुकान में मांस खाना, यहां तक कि गौमांस खाना तो पवित्र बना दिया है, लेकिन मुसलमान यदि ऐसा करता है तो वह पापी है,शैतान है ,हिन्दू धर्म विरोधी है।
     आश्चर्य की बात है जिन्हें पराएपन के कारण मुसलमानों से परहेज है उन्हें पराए देश की बनी वस्तुओं, खाद्य पदार्थों , पश्चिमी रहन-सहन,वेशभूषा,जीवनशैली आदि से कोई परहेज नहीं है। यानी जो मुसलमानों के खिलाफ ज़हर फैलाते हैं वे पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के अंधभक्तों की तरह प्रचार करते रहते हैं। उस समय उन्हें अपना देश,अपनी संस्कृति,देशी दुकानदार,देशी माल,देशी खानपान आदि कुछ भी नजर नहीं आता। अनेक अवसरों पर यह भी देखा गया है कि मुसलमानों के प्रति घृणा फैलाने वाले पढ़े लिखे लोग ऐसी बेतुकी बातें करते हैं जिन्हें सुनकर आश्चर्य होता है। वे कहते हैं मुसलमान कट्टर होता है। रूढ़िवादी होता है। भारत की परंपरा और संस्कृति में मुसलमान कभी घुलमिल नहीं पाए,वे विदेशी हैं।
    मुसलमानों में कट्टरपंथी लोग यह प्रचार करते हैं कि मुसलमान तो भारत के विजेता रहे हैं।वे मुहम्मद बिन कासिम,मुहम्मद गोरी और महमूद गजनवी की संतान हैं। उनकी संस्कृति का स्रोत ईरान और अरब में है। उसका भारत की संस्कृति और सभ्यता के विकास से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन सच यह नहीं है।
   सच यह है कि 15वीं शताब्दी से लेकर आज तक भारत के सांस्कृतिक -राजनीतिक-आर्थिक निर्माण में मुसलमानों की सक्रिय भूमिका रही है। पन्द्रहवीं से लेकर 18वीं शताब्दी तक उत्तरभारत की प्रत्येक भाषा में मुसलमानों ने शानदार साहित्य रचा है। भारत में तुर्क,पठान अरब आदि जातीयताओं से आने शासकों को अपनी मातृभाषा की भारत में जरूरत ही नहीं पड़ी,वे भारत में जहां पर भी गए उन्होंने वहां की भाषा सीखी और स्थानीय संस्कृति को अपनाया। स्थानीय भाषा में साहित्य रचा। अपनी संस्कृति और सभ्यता को छोड़कर यहीं के होकर रह गए। लेकिन जो यहां के रहने वाले थे और जिन्होंने अपना धर्म बदल लिया था उनको अपनी भाषा बदलने की जरूरत महसूस नहीं हुई। जो बाहर से आए थे वे स्थानीय भाषा और संस्कृति का हिस्सा बनकर रह गए।
   हिन्दी आलोचक रामविलास शर्मा ने लिखा है मुसलमानों के रचे साहित्य की एक विशेषता धार्मिक कट्टरता की आलोचना, हिन्दू धर्म के प्रति सहिष्णुता,हिन्दू देवताओं की महिमा का वर्णन है। दूसरी विशेषता यहाँ की लोक संस्कृति,उत्सवों-त्यौहारों आदि का वर्णन है। तीसरी विशेषता सूफी-मत का प्रभाव और वेदान्त से उनकी विचारधारा का सामीप्य है।
   उल्लेखनीय है दिल्ली सल्तनत की भाषा फारसी थी लेकिन मुसलमान कवियों की भाषाएँ भारत की प्रादेशिक भाषाएँ थीं। अकबर से लेकर औरंगजेब तक कट्टरपंथी मुल्लाओं ने सूफियों का जमकर विरोध किया। औरंगजेब के जमाने में उनका यह प्रयास सफल रहा और साहित्य और जीवन से सूफी गायब होने लगे। फारसीयत का जोर बढ़ा।        
 भारत में ऐसी ताकतें हैं जो मुसलमानों को गुलाम बनाकर रखने ,उन्हें दोयमदर्जे का नागरिक बनाकर रखने में हिन्दू धर्म का गौरव समझती हैं। ऐसे संगठन भी  हैं जो मुसलमानों के प्रति अहर्निश घृणा फैलाते रहते हैं। इन संगठनों के सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव का ही दुष्परिणाम है कि आज मुसलमान भारत में अपने को उपेक्षित,पराया और असुरक्षित महसूस करते हैं।
    जिस तरह हिन्दुओं में मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा करने वाले संगठन सक्रिय हैं वैसे ही मुसलमानों में हिन्दुओं के प्रति घृणा पैदा करने वाले संगठन भी सक्रिय हैं। ये एक ही किस्म की विचारधारा यानी साम्प्रदायिकता के दो रंग हैं।
 हिन्दी के महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने हिन्दू-मुस्लिम भेद को नष्ट करने के लिए जो रास्ता सुझाया है वह काबिलोगौर है। उन्होंने लिखा-‘‘ भारतवर्ष में जो सबसे बड़ी दुर्बलता है ,वह शिक्षा की है। हिन्दुओं और मुसलमानों में विरोध के भाव दूर करने के लिए चाहिए कि दोनों को दोनों के उत्कर्ष का पूर्ण रीति से ज्ञान कराया जाय। परस्पर के सामाजिक व्यवहारों में दोनों शरीक हों,दोनों एक-दूसरे की सभ्यता को पढ़ें और सीखें। फिर जिस तरह भाषा में मुसलमानों के चिह्न रह गए हैं और उन्हें अपना कहते हुए अब किसी हिन्दू को संकोच नहीं होता, उसी तरह मुसलमानों को भी आगे चलकर एक ही ज्ञान से प्रसूत समझकर अपने ही शरीर का एक अंग कहते हुए हिन्दुओं को संकोच न होगा। इसके बिना,दृढ़ बंधुत्व के बिना ,दोनों की गुलामी के पाश नहीं कट सकते,खासकर ऐसे समय ,जबकि फूट डालना शासन का प्रधान सूत्र है।’’ 
   भारत में मुसलमान विरोध का सामाजिक और वैचारिक आधार है जातिप्रथा,वर्णाश्रम व्यवस्था। इसी के गर्भ से खोखली भारतीयता का जन्म हुआ है जिसे अनेक हिन्दुत्ववादी संगठन प्रचारित करते रहते हैं। जातिप्रथा के बने रहने के कारण धार्मिक रूढ़ियां और धार्मिक विद्वेष भी बना हुआ है।
     भारत में धार्मिक विद्वेष का आधार है सामाजिक रूढ़ियाँ। इसके कारण हिन्दू और मुसलमानों दोनों में ही सामाजिक रूढ़ियों को किसी न किसी शक्ल में बनाए रखने पर कट्टरपंथी लोग जोर दे रहे हैं। इसके कारण हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष बढ़ा है। सामाजिक एकता और भाईचारा टूटा है। हिन्दू-मुसलमान एक हों इसके लिए जरूरी है धार्मिक -सामाजिक रूढ़ियों का दोनों ही समुदाय अपने स्तर पर यहां विरोध करें।
   हिन्दू-मुस्लिम समस्या हमारी पराधीनता की समस्या है। अंग्रेजी शासन इसे हमें विरासत में दे गया है। इस प्रसंग में निराला ने बड़ी मार्के की बात कही है। निराला का मानना है  हिन्दू मुसलमानों के हाथ का छुआ पानी पिएं,पहले यह प्राथमिक साधारण व्यवहार जारी करना चाहिए। इसके बाद एकीकरण के दूसरे प्रश्न हल होंगे।
      निराला के शब्दों में हिन्दू-मुसलमानों में एकता पैदा करने के लिए इन समुदायों को ‘‘वर्तमान वैज्ञानिकों की तरह विचारों की ऊँची भूमि’’ पर ले जाने की जरूरत है। इससे ही वे सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों से मुक्त होंगे।   




3 टिप्‍पणियां:

  1. प्रश्न यह है कि यह फिनोमिना ग्लोबल क्यों है? दूसरा मुसलमान जिस जगह भी बहुसंख्यक हैं, वहां अन्य धर्मों के लोग धीरे-धीरे क्यों समाप्त हो जाते हैं. दूर मत जाइये, कश्मीर-असम सामने है. तीसरा यह कि मुस्लिम साम्प्रदायिकता बुद्धिजीवियों (?) को क्यों परेशान नहीं करती. केरल के प्रोफेसर के हाथ काटने की घटना को इसी जोर-शोर के साथ हमारे बुद्धिजीवी क्यों नहीं उठा सके.

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  2. ज्यदा दूर मत जाईये, अभी कुछ दिनों पहले इन कमीनो ने एक प्रोफ़ेसर का हाथ ही काट दिया था. तो आप ये भाई चारे की बात क्यों कर रहे है ये मैं समझ सकता हू .

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  3. Sri Aurobindo

    I am sorry they are making a fetish of this Hindu-Muslim unity. It is no use ignoring facts; some day the Hindus may have to fight the Muslim and they must prepare for it. Hindu–Muslim unity should not mean the subjection of the Hindus. Every time the mildness of the Hindu has given way. The best solution would be to allow the Hindus to organize themselves and the Hindu-Muslim unity would take care of itself, it would automatically solve the problem.

    Sri Aurobindo

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