इन दिनों कारपोरेट मीडिया आरएसएस के नेता इन्द्रेश कुमार के कवरेज पर लगा हुआ है। कुछ लोग सोच रहे होंगे कि इससे संघ परिवार समाज में नंगा हो जाएगा। वे सब गलतफहमी के शिकार हैं। सवाल उठता है क्या इससे आरएसएस को सामाजिक तौर पर अलग-थलग करने में मदद मिलेगी ? या इससे आरएसएस को राजनीतिक लाभ मिलेगा ? इस कवरेज से संघ परिवार को कोई राजनीतिक नुकसान नहीं होगा। घृणा का प्रचार उसे और मजबूत करेगा। गुजरात के संदर्भ में किया गया घृणा प्रचार अंततः संघ परिवार के लिए वरदान साबित हुआ है। बाबरी मसजिद का कवरेज जजों तक को प्रभावित करने में सफल रहा है। मूल बात यह कि घृणा को प्रचार से सामाजिक तौर पर अलग-थलग करना संभव नहीं है। प्रचार से घृणा बढ़ती है घटती नहीं है।
इससे भी बड़ा सवाल यह है कि कारपोरेट मीडिया निरंतर घृणा के सवालों पर कवरेज क्यों बनाए हुए है ? कारपोरेट मीडिया में घृणा सुंदर लगती है। इससे रेटिंग ,विज्ञापन ,घृणा की राजनीति करने वाले संगठनों की शक्ति और मीडिया की बिक्री में इजाफा होता है। भारत में विगत 60 सालों में घृणा से प्यार करने वालों की संख्या बढ़ी है। मीडिया में घृणा का कवरेज बढ़ा है।
पहले हमारे अंदर घृणा के खिलाफ सामूहिक तौर पर आवाज उठाने की परंपरा थी। तमाम किस्म की सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ समाज को जाग्रत करने का मीडिया और समाज सुधारकों ने प्रयास किया था। आजादी के आंदोलन में भी कमोबेश इस पहलू को लेकर सतर्कता थी,इसका परिणाम यह हुआ कि मीडिया में उन लोगों को कम कवरेज मिलता था जो घृणा फैलाते थे। सहिष्णुता के कवरेज पर जोर था। भारत में असहिष्णुता फैलाने वाले निशाने पर हुआ करते थे। मीडिया उन्हें निशाना बनाता था।
लेकिन आजादी के बाद से क्रमशः यह फिनोमिना घटता गया है। भारत विभाजन के समय प्रेस में घृणा के प्रचारकों को व्यापक कवरेज मिला इससे सहिष्णुता के पक्ष में मीडिया में जो संयुक्त मोर्चा बना था वह टूट गया। हिन्दू मीडिया और मुस्लिम मीडिया के रूप में प्रेस बंट गया।
प्रथम प्रेस कमीशन ने भारत विभाजन के समय मीडिया की साम्प्रदायिक भूमिका की विस्तृत आलोचना की है। जो लोग सोचते हैं कि मीडिया और खासतौर पर कारपोरेट मीडिया सामाजिक बंधुत्व का प्रचार करता है वे गलतफहमी के शिकार हैं। समय-समय पर कारपोरेट मीडिया घृणा फैलाने वाले विषयों को चुनता रहा है और घृणा और असहिष्णुता को कवरेज देता रहा है। इन दिनों कारपोरेट मीडिया कवरेज की धुरी सहिष्णुता नहीं है।
आज चारों ओर जिस तरह घृणा को व्यापक सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है उसकी जड़ों में कारपोरेट मीडिया की लंबी साधना का हाथ है। भारत में मीडिया ने घृणा को समय-समय पर उठाकर क्षेत्रीय स्तर पर संगठित किया है।
भारत विभाजन के कवरेज ने मुसलमानों के प्रति असहिष्णुता के बीज बोए थे जो आज घृणा का बड़ा वटवृक्ष बन गया है। उस समय हिन्दू मीडिया और मुस्लिम मीडिया की धारणा के आधार पर भारत और पाक,हिन्दू और मुसलमान की खबरों को एक खास किस्म की आख्यानशैली में पेश करने की परंपरा का आरंभ हुआ था।
मैनस्ट्रीम मीडिया बुरी तरह साम्प्रदायिक आधार पर बंटा हुआ था ,दूसरी ओर उर्दू मीडिया में हिन्दू विरोधी आधार पर मुसलमानों की लामबंदी शुरू हुई । इसका कालांतर में उर्दू के पठन-पाठन,मुसलमानों के सामाजिक विकास और उर्दू प्रेस के विकास पर बहुत बुरा असर हुआ। मुसलमानों की विगत 60 सालों में बदहाल अवस्था होती चली गयी,उर्दू शिक्षा का ह्रास हुआ,उर्दू प्रेस तबाह हो गया।
मैं इस घृणा के माहौल पर लिखे सआदत हसन मंटो के एक निबंध के दो अंश उद्धृत करना चाहूँगा-
‘ अजब थी बहार और अजब सैर थी।
जी ने कहा घर से निकल ,टहलता-टहलता ज़रा बाग़ चल।
बाग़ पहुँचने से पहले,जाहिर है, मैंने कुछ बाजार और कुछ गालियाँ तय की होंगी और मेरी आँखों ने कुछ देखा भी होगा -पाकिस्तान तो पहले ही का देखाभाला था,पर जब से जिंदाबाद’ हुआ,वह कल सबेरे देखा।
बिजली के खंबे पर देखा,परनाले पर देखा,शःनशीन (बैठने की चौकी) पर देखा,छज्जे पर देखा,चौबारे पर देखा-गरज़ेकि हर जगह देखा और जहाँ न देखा,वहाँ देखने की हसरत लिए घर लौटा।
पाकिस्तानः जिंदाबाद-यह लकड़ियों का टाल है।
पाकिस्तानःजिंदाबाद-फ़टाफ़ट मुहाजिर हेयर कटिंग सैलून।
पाकिस्तानःजिंदाबाद-यहाँ ताले मरम्मत किए जाते हैं।
पाकिस्तानःजिंदाबाद-गरमा गरम चाय।
पाकिस्तानःजिंदाबाद- बीमार कपड़ों का हस्पताल।
पाकिस्तानःजिंदाबाद- अलहमदुलिल्लाह कि यह दूकान सैयद अनवार हुसैन मुहाजिर जालंधरी के नाम अलाट हो गई है.
सुबह का वक़्त था ।अजब बहार थी और अजब सैर थी।
करीब-करीब सारी दूकानें बंद थीं।
एक हलवाई की दूकान खुली थी -मैंने कहा,चलो लस्सी पीते हैं।
दूकान की तरफ़ बढ़ा तो देखता हूँ,बिजली का पंखा चल तो रहा है,लेकिन उसका मुँह दूसरी ओर है।
मैंने हलवाई से कहाः‘‘ यह उलटे रूख़ पंखा चलाने का क्या मतलब है ?’’
उसने घूरकर मुझे देखा और कहाः ‘‘देखते नहीं हो...’’
मैंने ग़ौर से देखा- पंखे का रूख़ कायदे-आजम अली जिनाह की रंगीन तसवीर की तरफ था,जो दीवार के साथ आवेज़ा ( लटका हुआ) थी-मैंने ज़ोर का नारा लगायाः ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ और लस्सी पिए बगैर वापस चल दिया।’’
मंटो के जरिए यह खाली एक बानगी है उस उन्माद की जो साम्प्रदायिकता पैदा करती है। हमारे यहां भी कई मसलों पर इसी तरह का उन्माद देखा गया है।
साम्प्रदायिकता कैसे भाषा बदलती है इसका एक नमूना मंटो के शब्दों में देखें-
‘ ज़रा आगे एक देहलवी मुजाहिर अपने साहबज़ादे के साथ सैर फरमा रहे थे।
साहबज़ादे ने उनसे कहाः‘‘ अब्बाजान,आज हम छोले खाएँगे।’’
अब्बाजान के कान सुर्ख हो गएः‘‘क्या कहा ?’’
बरख़ुर्रदार ने जबाब दियाः‘‘ हम आज छोले खाएँगे।’’
अब्बाजान के कान और सुर्ख हो गएः ‘‘छोले क्या हुआ,चने कहो।’’
बरख़ुरदार ने बड़ी मासूमियत से कहाः‘‘ नहीं अब्बाजान,चने दिल्ली में होते हैं...
यहाँ सब छोले ही खाते हैं।’’
अब्बाजान के कान असली हालत पर आ गए।’
कहने का अर्थ यह है कि घृणा का प्रचार हमारी भाषा को भी प्रभावित करता है। घृणा के प्रचार की खूबी है कि वह व्यक्ति को उत्प्रेरित करता है। मीडिया हमेशा घृणा को महिमामंडित करता है और उसे आकर्षक बनाता है। खासकर असहिष्णुता की बातें,मुहावरे और भाषा को सक्रिय कर देता है,उसका अभ्यस्त बना देता है। इसी अर्थ में घृणा की खबर बुरी खबर होती है।
आज घृणा की खबरों के रूप में सामाजिक घृणा ,धार्मिकघृणा ,जातिघृणा ,लिंगविद्वेष आदि को रूपायित करने वाली खबरें धडल्ले से आ रही हैं। घृणा के आधार पर नौकरियों में भर्ती,घृणा के आधार पर दुकानदार का चयन,किराएदार का चयन,घृणा के आधार पर कारपोरेट मीडिया में प्रचार,घृणा के आधार पर सामाजिक शिरकत,यहां तक कि टीवी कार्यक्रमों में कलाकारों की हिस्सेदारी को भी चुनौती दी जा रही है ,इसे कारपोरेट मीडिया खूब उछाल रहा है। हिन्दुत्व, माओवाद,आतंकी ,हिजबुल मुजाहिदीन,पृथकतावादी संगठनों,सर्वखाप पंचायत आदि का कारपोरेट मीडिया द्वारा दिया गया कवरेज घृणा की कोटि में आता है।
कारपोरेट मीडिया द्वारा किए जा रहे घृणा के कवरेज ने सहिष्णुता के एजेण्डे की मीडिया से विदाई कर दी है। इससे हमारी भाषा ,मूल्य और सामाजिक एक्शन प्रभावित हो रहे हैं। हम घृणा के प्रति सहज हो गए हैं,अनेक लोगों ने घृणा के साथ सामंजस्य भी बिठा लिया है। उसमें आनंद लेने लगे हैं। उसकी हिमायत करने लगे हैं। यह हमारे सांस्कृतिक क्षय की निशानी है।
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