गुरुवार, 18 नवंबर 2010

18 नवम्बर 2010 दर्शन दिवस पर विशेष- इतिहास का अंत

                          
       (यूनेस्को के द्वारा प्रतिवर्ष नवम्बर के पहले तीसरे गुरूवार को दर्शन दिवस मनाया जाता है। इस दिन यह मौका 18 नवम्बर को पड़ रहा है। इस मौके पर दर्शन के गंभीर और महत्वपूर्ण सवालों पर सारी दुनिया में और खासकर यूनेस्को के पेरिस स्थित मुख्यालय में विचार विमर्श होने जा रहा है। इस अवसर पर हम उत्तर आधुनिकतावाद से जुड़े कुछ प्रमुख सवालों पर पुनर्विचार करेंगे ,यहां 'इतिहास का अंत'  सवाल पर रोशनी ड़ाली गयी है)  
     उत्तर आधुनिकतावाद के अवसान की बेला में उसकी ओर एकबार देख लेना,उसका पुनर्पाठ कर लेना समीचीन होगा। वे कौन से मुद्दे थे जो विवाद के केन्द्र में रहे और अंत में हम उन पर विवाद करते हुए कहां पहुँचे ? उत्तर आधुनिकतावाद में कुछ बातें साझा हैं जिन पर सहमति है,वे हैं- उत्तर आधुनिकतावाद का संचार क्रांति से गहरा संबंध है। कम्प्यूटर केन्द्रित संचार क्रांति सामाजिक-आर्थिक और डिजिटल असमानता पैदा करती है। उत्तर आधुनिकतावाद ने संशय,अविश्वास और बेगानेपन को बुलंदियों पर पहुँचाया है। राजनीति से लेकर संस्कृति और मासकल्चर से लेकर लोकसंस्कृति को ग्लोबल-लोकल (ग्लोकल) बनाया है।
     उत्तर आधुनिकतावाद एक्शन में लोकल है नीति में ग्लोबल है।  साहित्य की भाषा, शैली आदि के मामले में लोकल है अंतर्वस्तु और विवाद के विषयों में ग्लोबल है। फिसलन, विपर्यय और मूल्यगत प्रतिगामिता इसके प्रमुख फिनोमिना हैं।  
   उत्तर आधुनिकतावाद किसी भी देश में स्वाभाविक रूप में विकसित नहीं हुआ। यह निर्मिति है। इसकी भाषा,विषयवस्तु,मुहावरे,नारे,विचार,विमर्श आदि सब कुछ संस्कृति और संचार उद्योग की निर्मिति हैं। इसका अमेरिकी विदेशनीति से गहरा संबंध है। उत्तर आधुनिकतावाद को अमेरिकी विदेश नीति से काटकर नहीं पढ़ा जा सकता। यही वजह है कि उत्तर आधुनिकतावाद राजनीतिक है।  
इतिहास का अंत-
         उत्तर आधुनिकों ने बार-बार ‘इतिहास के अंत’ का नारा दिया है। इसके पक्ष-विपक्ष में बहुत कुछ लिखा गया है। पहली बात यह कि इतिहास का किसी भी रूप में अंत संभव नहीं है। हम इतिहास को न मानें इससे इतिहास का अंत नहीं होता। इतिहास के नियम व्यक्तियों और संस्थानों की शक्ति के बाहर सक्रिय रहते हैं।
     इतिहास हमारे बीच में प्रतीक रूप में बना रहता है। वह कभी दिखता है कभी नहीं दिखता। लेकिन प्रतीक के रूप में इतिहास रहता है। प्रतीक जिस तरह अपना अर्थ नहीं खोते इतिहास भी अपना अर्थ नहीं खोता। इतिहास के अंत की जो घोषणा कर रहे हैं वे असल में ‘इतिहास’ की एक विषय के  रूप में अंत की बात नहीं कह रहे हैं ,बल्कि प्रतीक रूप में इतिहास के अंत की बात कह रहे हैं।
    इतिहास का एक संदर्भ मूल्य है और वह किन्हीं खास ऐतिहासिक परिस्थितियों में ही अवस्थित होता है। बौद्रिलार्द के अनुसार परिस्थितियां ऐसी बन गयी हैं जिनमें ऐतिहासिक परिस्थितियों खत्म हो गयी हैं। ऐतिहासिक परिस्थितियों के अभाव में इतिहास अनुपस्थित रहेगा। प्रतीक नहीं होगा। सिर्फ प्रतिकृति या नकल होगा।
    ऐतिहासिक परिस्थितियों के अवसान को देखने वाले उत्तर आधुनिकतावादी यह भूल गए कि ऐतिहासिक परिस्थितियों के गायब हो जाने की धारणा के प्रचार से वे गायब नहीं हो जातीं,सिर्फ उत्तर आधुनिक विचारकों ने ऐतिहासिक परिस्थितियों को देखना बंद कर दिया था।
      कोई भी चीज रूपान्तरणकारी तब ही होती है जब वह ऐतिहासिक परिस्थितियों से गुजरती है। ऐतिहासिकता के बिना प्रत्येक चीज,वस्तु,घटना,फिनोमिना आदि खोखले होते हैं। इतिहास को प्रतीकों में एक प्रतीक के रूप में नहीं देखना चाहिए।  वह सिर्फ प्रतीक मात्र नहीं है उसके पास अंतर्वस्तु भी होती है। जो किसी भी प्रतीक को संदर्भ और निश्चित सांस्कृतिक अर्थ प्रदान करती है। ऐतिहासिक परिस्थितियां सांस्कृतिक मूल्य और संस्थान को अर्थ प्रदान करती है।
     जैसे प्रेम और शादी, ये सिर्फ औपचारिकता मात्र नहीं हैं। बल्कि इसके विभिन्न समाजों में भिन्न अर्थ हैं। प्रेम और शादी का एक सांस्कृतिक अर्थ है यह विभिन्न समाजों में अलग किस्म के संस्कारों ,सांस्कृतिक अभ्यास और आचार-व्यवहार पर आधारित है। इसके आधार ही ये दोनों चीजें सांस्कृतिक अर्थ प्राप्त करती हैं।
     यदि ‘इतिहास का अंत’ हो गया है तो कबीर की कविता महज कविता की संरचना मात्र रह जाएगी। उसमें निहित मूल्य और भावबोध का लोप हो जाएगा ,लेकिन ऐसा संभव नहीं है। प्रत्येक रचना का मूल्य उसमें निहित रहता है। रचना उस मूल्य से ऐतिहासिक तौर पर अलग नहीं कर सकती। कबीर की कविता से उसका मूल्य निकाल देंगे तो कविता खत्म हो जाएगी।  
   मनुष्य है तो उसका इतिहास और मूल्य भी उससे जुड़े हैं। रचना का रूप उसके अस्तित्व के कारकों से अभिन्न रूप से जुड़ा है। आप कबीर की नयी व्याख्या कर सकते हैं ,उसकी कविता पर फिल्म बना सकते हैं,नृत्य तैयार कर सकते हैं,संगीत तैयार कर सकते हैं,वर्चुअल फिल्म बना सकते हैं। लेकिन कबीर को मूल्यहीन नहीं बना सकते। कबीर का लोप नहीं कर सकते। उसे नयी चीजों के उदय के साथ जोड़कर सजा सकते हैं लेकिन यह नहीं कह सकते कि कबीर मूल्यहीन हो गए हैं। कबीर के नए किस्म के पाठ को बना सकते हैं ,उसकी नए किस्म की रीडिंग के तरीके इजाद कर सकते हैं। इससे कबीर का सौंदर्यबोध बढ़ेगा।
      प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक टेरी इगिलटन के अनुसार ‘‘उत्तरआधुनिकतावाद के कई स्रोत हैं वास्तविक आधुनिकतावाद, तथाकथित उत्तर-उद्योगीकरण, नई शक्तिशाली राजनीतिक शक्तियां, सांस्कृतिक अवांगार्द का पुन: प्रभाव बढ़ना, वस्तु रूप द्वारा सांस्कृतिक जीवन में पैठ, कला के लिए घटता हुआ 'स्वायत्त' स्थान, कतिपय पुराशास्त्रीय बुर्जुआ सिद्धांतों की समाप्ति आदि। लेकिन यह और जो कुछ भी हो, निश्चित ही राजनीतिक पराजय की उत्पत्ति है।’’
   इगिलटन के अनुसार ‘‘उत्तरआधुनिकतावादी संस्कृति ने कलाओं के संपूर्ण क्षेत्र में एक समृद्ध, साहसी और उल्लसित कलाकृति का निर्माण किया है तथा उत्सर्जन-योग्य भावुकता और परिहासपूर्ण कला या साहित्य की एक अच्छी खासी मात्रा का भी सृजन किया है। इसने कई आत्मसंतुष्ट निश्चितताओं के नीचे से आधार हटा दिए हैं, कुछ विक्षिप्त समग्रताओं को कौतूहलपूर्ण ढंग से खोल दिया है, जोशपूर्ण ढंग से बचाकर सुरक्षित रखी कुछ शुद्धताओं को दागदार कर दिया है; कुछ दमनकारी प्रतिमानों को मोड़ा है, और कुछ अपेक्षाकृत मजबूत दिखने वाली बुनियादों को हिला दिया है। इसमें राजनीतिक रूप से अशक्तकारी संदेहवाद, एक भड़कीला जनवाद, ओजपूर्ण नैतिक सापेक्षवाद तथा एक किस्म के वितंडावाद के आगे समर्पण की भी प्रवृत्ति है। इसके लिए हम भी स्वतंत्र दुनिया के उन मूल्यों की पुष्टि कर सकते हैं चूंकि सभी परंपराएं स्वैच्छिक हैं। अपने राजनीतिक विरोधियों की निश्चितताओं के नीचे से आधार हटाने के क्रम में इस उत्तरआधुनिक संस्कृति ने प्राय: अपने ही आधार को हटा दिया है और इसके पास कोई तर्क नहीं रहा है कि हमें फासीवाद का विरोध क्यों करना चाहिए, सिवाय इस कमजोर व्यावहारिक तर्क के कि फासीवाद वह तरीका नहीं जिसके जरिए हम ससेक्स या सैक्रेमेंटो में काम करते हैं। अपने विनोदपूर्ण, पैरोडी भाव से इसने उच्च संस्कृति के भयावह आत्मसंयम को निम्न बना दिया है और इस प्रकार वस्तु रूप के अनुकरण में बाजार स्थल के व्यर्थकारी संयमों को पुन: बहाल करने में सफल रहा है।’’
  टेरी इगिलटन ने आगे लिखा है ‘‘इसने स्थानीय, प्रादेशिक, क्षेत्रीय शक्ति को निर्मुक्त किया है साथ ही साथ विश्व को और अधिक शुष्क समान स्थल बनाने में योगदान दिया है। 'सत्यता' जैसी अवधारणाओं के सम्मुख इसकी घबराहट ने बिशपों (धर्मगुरुओं) को चौकन्ना कर दिया है और व्यावसायिक कार्यकारियों को मोह लिया है। विश्व की यथातथ्य व्याख्या की संभावना से यह लगातार इनकार करता है और उतनी ही निरंतरता से यह अपने आपको ऐसा करते पाता है। यह सार्वभौम नैतिक निर्देशों से परिपूर्ण है, जैसे बहुलता से व्यक्तिपरकता श्रेष्ठ है, समानता से विविधता, एकरूपता से विषमता श्रेयस्कर है और यह इस प्रकार के सभी सार्वभौमवाद को दमनकारी मानकर निंदा करता है। यह एक ऐसे मनुष्य का स्वप्न देखता है जो कानून और बंधन से मुक्त हो, जो एक 'विषय-स्थिति' से दूसरी स्थिति में अस्पष्ट रूप से सरल रहा हो और उस मनुष्य को सांस्कृतिक शक्तियों के एक निश्चित परिणाम से अधिक नहीं मानता है। यह शैली और आनंद में विश्वास करता है और आम तौर पर वैसे पाठ का सृजन करता है जिसका संयोजन कंप्यूटर द्वारा तथा इस पर किया गया हो।’’
    उत्तर आधुनिकों ने मार्क्सवाद पर जमकर हमले किए हैं,समाजवादी व्यवस्था के पराभव को उत्तर आधुनिकता की विचारधारात्मक विजय कहा है। मार्क्सवाद की अप्रासंगिकता को इतनी बार प्रचारित किया है कि इस क्रम में वे स्वयं अपनी प्रासंगिकता से हाथ धो बैठे हैं।
      मार्क्सवादी विचारकों की विशेषता है कि वे उदार पूंजीवाद के बिना मार्क्सवाद की कल्पना तक नहीं कर सकते। इसी प्रसंग में टेरी इगिलटन ने लिखा है कि मार्क्सवादी मानते हैं कि  ‘‘प्रबुद्ध बुर्जुआ उदारवाद की समृद्ध विरासत के बिना कोई प्रामाणिक समाजवाद नहीं हो सकता। उत्तरआधुनिकतावादी बहुलतावाद, परिवर्तन, निष्प्रयोजनता के आत्मघोषित समर्थक हैं फिर भी हमेशा मानववाद, उदारवाद, प्रबोधन केंद्रित विषय तथा शेष की निंदा करते हुए देखे जाते हैं। लेकिन बुर्जुआ प्रबोधन सामाजिक वर्ग के समान है : इससे मुक्ति के लिए पहले आपको इससे होकर मार्ग निकालना होगा। शायद इसी बिंदु पर मार्क्सवाद और उत्तरआधुनिकतावाद के बीच सबसे अधिक अनबन है।’’
       उत्तर आधुनिकों ने बिडंबना पर ज्यादा जोर दिया है लेकिन इस चक्कर में बिडंबना को ही भूल गए। इगिलटन ने उत्तर आधुनिकों की इसी वैचारिक फिसलन पर लिखा है  ‘‘उत्तरआधुनिकतावाद की आंखें विडंबना के प्रति बहुत सजग हैं लेकिन लगता है विडंबना ऐसी है जो इसकी आंखों से भी बच निकली है। ठीक उसी समय जब यह क्रांति के प्रत्यय को 'पराभौतिक' मानकर इसकी निंदा कर रहा था, 'सामूहिक विषय' की धारणा का तिरस्कार कर रहा था और समग्रता के खतरों पर जोर दे रहा था, उन जगहों पर क्रांति आरंभ हो गई जहां इसकी सबसे कम संभावना थी। किसी प्रकार के 'सामूहिक विषय' ने उत्तरपूंजीवादी नौकरशाहों के 'संपूर्ण तंत्र' पर आघात किया था। जाहिर है उस परिवर्तन के वर्तमान परिणाम वे नहीं हैं जिन पर समाजवादी धैर्यपूर्वक विचार कर सकें; लेकिन पूर्वी यूरोप के नाटकीय उथल-पुथल उत्तरआधुनिक पश्चिम की कई नई चलन की पूर्वकल्पनाओं को झुठलाते हैं। जबर्दस्त रूप से अजनबियाने के अंदाज में वे उत्तरआधुनिकतावाद का उदार-पूंजीवादी बुध्दिजीवी वर्ग के विचित्र रूप से थके हुए पराजयवादी समूह की विचारधारा के रूप में पर्दाफाश करते हैं, जिसने गलती से अपनी स्थानीय कठिनाइयों को ठीक सार्वभौमवादी विचारधाराओं, जिनकी यह निंदा करता है, के समान ही सार्वभौम मानवीय स्थिति समझ लिया है। लेकिन यद्यपि इसके पूरब में जो भी हुआ है उससे उत्तरआधुनिकवाद को उपयोगी रूप से 'विमुख' किया गया हो, लेकिन यह निश्चित ही उस पतन से उत्पन्न नहीं हुआ है। उत्तरआधुनिकतावाद साम्यवाद के पराजय (जो कि हर हाल में इससे पहले हुआ) की प्रतिक्रिया कम है। बनिस्बत इसके यह, कम से कम अपने प्रतिक्रियावादी संस्करणों में, पूंजीवाद की 'सफलता' का प्रत्युत्तर है। इसलिए यहां एक और विडंबना है। संकटग्रस्त 1990 के दशक में पूंजीवादी सफलता को प्रकृति का सामान्य और अपरिवर्तनीय नियम मानना कुछ ज्यादा ही अजीब लगता है। यदि यह ठीक उसी प्रकार की गैर ऐतिहासिक निरपेक्षतावाद नहीं, जिसे उत्तरआधुनिकतावादी उग्रता से अस्वीकार करते हैं, तो यह समझना कठिन है कि यह आखिर क्या है।’’
      




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