बुधवार, 3 नवंबर 2010

अशोक बाजपेयी-नामवर सिंह और मैनेजर पांडेय से कबीर की मुठभेड़

इन दिनों साहित्य में संगम स्नान चल रहा है। केदार और अज्ञेय पर एक ही साथ सेमीनार हो रहे हैं, अशोक बाजपेयी ,नामवर सिंह और मैनेजर पांडेय एक ही मंच पर बोल रहे हैं।  ऐसी ही एक गोष्ठी का आनंद सआदत हसन मंटो के माध्यम से उठाएं।
      एक जगह बहस हो रही थी।
    ‘‘ अदब ‘बराए -अदब ’ है।’’
    ‘‘ बकवास करते हो... अदब ‘बराए -जिंदगी’ है।’’
    ‘‘ वह जमाना लद गया...अदब तो प्रोपेगेंडे का दूसरा नाम है ।’’
    ‘‘ तुम्हारी ऐसी की तैसी...’’
    ‘‘ तुम्हारे स्टालिन की ऐसी- की -तैसी...’’
    ‘‘ तुम्हारे रजअतपसंद (प्रतिक्रियावादी) और फलाँ-फलाँ बीमारियों के मारे हुए   
        फ़्लाबेयर और बादेलेयर की ऐसी -की- तैसी ...’’
      कबीर रोने लगा।बहस करने वाले बहस छोड़कर उसकी तरफ मुतवज्जेह हुए।
     एक ने कबीर से पूछाः ‘‘ तुम्हारे तहतुश्शऊर (अवचेतन) में ज़रूर कोई चीज़  
            है,जिसे ठेस पहुँची है।’’
          दूसरे ने कहाः ‘‘ तुम्हारे आँसू बुर्ज़ुवाई सदमे का नतीजा हैं। ’’
               कबीर और ज्यादा रोने लगा।
   बहस करनेवालों ने तंग आकर बयक ज़बान सवाल कियाः ‘‘ मियाँ ,यह तो बताओ कि तुम रोते क्यों हो ?’’
  कबीर ने कहाः ‘‘ मैं इसलिए रोया था कि आपकी समझ में आ जाए, अदब ‘बराए-अदब’ है, या अदब बराए ज़िन्दगी’ है।’’
  बहस करने वाले हँसने लगे।
एक ने कहा ‘‘ यह परोलतारी (मजदूरपरस्त) मसख़रा है।
दूसरे ने कहाः ‘‘ नहीं यह बुर्ज़ुआई वहरूपिया है।’’
कबीर की आंखों में फिर से आँसू आ गए।’’
 








कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...