लैटिन अमरीका के देशों ने हाल के वर्षों में आर्थिक रक्तस्राव के जो सबसे खराब रूप देखे हैं, उनमें पूंजी पलायन भी एक है। यह विदेशी निवेशकों द्वारा अर्जित लाभ के अंतरण के रूप में नहीं है और न ही यह पलायन उन विदेशी ऋणों के भुगतान के रूप में है जो तानाशाह और भ्रष्ट शासकों के लिए थे जिन्होंने देश की निधियों को उड़ाया और उनका गबन किया, निजी बैंकों से लिए गए निजी ऋण या उसका उपयोग को अदा करने के लिए किया। यह पूंजी पलायन असमान विनिमय के सुविख्यात तत्व के कारण हुए नुकसान का परिणाम भी नहीं है। यह देश के भीतर निर्मित निधियों, कम वेतन पाने वाले मजदूरों की कीमत पर अर्जित बेशी मूल्य या बुध्दिजीवी कार्यकर्ताओं और व्यावसायियों की ईमानादार बचतों या छोटे उद्योगों, कारोबारों और सेवाओं के लाभों के पलायन का मामला है।
लैटिन अमरीकी देशों से घातक पूंजी पलायन का कारण बगैर किसी रोक-टोक और जरूरत के राष्ट्रीय मुद्रा से दुर्लभ मुद्रा की खरीद है। पवित्र नव उदार सिध्दांत के रूप में यह फार्मूला अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संगठनों द्वारा लादा गया है। ऐसा अनुमान है कि वेनेजुएला जैसे देशों से पिछले 40 वर्षों की अवधि के दौरान लगभग 250 अरब डालर का पूंजी पलायन हुआ। अर्जेंटीना, ब्राजील, मैक्सिको तथा अन्य लैटिन अमरीकी देशों से निकली राष्ट्रीय निधियों को भी इसमें जोड़ें।
बहादुर वेनेजुएलाई अवाम और उनके साहसी नेता को शाबासी जिन्होंने विनिमय दर पर नियंत्रण कायम कर लिया है। इससे इस देश से उक्त त्रासदी का अंत हो गया है।
मुझे याद है कि 1959 में क्यूबाई क्रांति की जीत के समय लैटिन अमरीका का कुल ऋण केवल पांच अरब डालर था। उस समय इसकी आबादी 21 करोड़ 44 लाख थी जो अब बढ़कर 54 करोड़ 34 लाख हो गई है। इसमें से 22 करोड़ 40 लाख लोग गरीब हैं और 5 करोड़ से अधिक निरक्षर हैं। 2003 में उसका कुल ऋण कम से कम 800 अरब डालर हो गया था।
विश्व युध्द के बाद गोलार्ध के इस क्षेत्र ने उतना विकास क्यों नहीं किया है जितना कि कनाडा, न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने किया है। कभी ये भी यूरोप के उपनिवेश थे। ये तो हमारे मुकाबले भी कम समृध्द और विकसित थे। क्या यह अमरीका के पिछवाड़े रहने के संदिग्ध सौभाग्य का परिणाम है? या क्या यह इस वजह से है कि हम श्वेतों, अश्वेतों, इंडियनों और वर्ण संकरों के घृणित समूह हैं और मानव जीन का यह अध्ययन तथा वैज्ञानिक अनुसंधान गलत है कि मानव जाति में विभिन्न प्रजातियों की बौध्दिक क्षमता में कोई अंतर नहीं है? दोष कहां पर है?
मैंने यह कहकर अपनी बात शुरू की थी कि जो कुछ मौजूद था या आज कुछ मौजूद है वह सब मानवता पर लादा गया है। मैं कार्ल मार्क्स के इस कथन से पूरी तरह सहमत हूं कि जब उत्पादन और वितरण की पूंजीवादी प्रणाली अस्तित्व में नहीं रहेगी और इसके साथ मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण खत्म हो जाएगा तो यह मानव जाति के प्राक्-इतिहास के अंत का सूचक होगा। उनका यह तर्क हमारी जाति के इतिहास के द्वंद्वात्मक विकास पर आधारित है।
बहुत से लोगों को यह विचार अति सरलीकरण और पुराना लग सकता है। मार्क्स ने पूंजीवाद के प्रथम चरण का अध्ययन किया था। यह वह युग था जिसमें एक नए वर्ग का जन्म हुआ, जिसे समाज का कायाकल्प करना था और जो बाद में अनिवार्यत: शोषक और बेरहम बन गया। इससे नई तथा अधिक न्यायपूर्ण दुनिया का मार्ग खुला। जब उन्होंने अपने विचार रखे उस समय बिजली, टेलीफोन, आंतरिक दहन इंजिन, आधुनिक जहाज जो बहुत तेज गति से चलते हैं और भारी सामान ले जाते हैं, आधुनिक रसायन विज्ञान, सिंथेटिक उत्पाद, विमान जो सैकड़ों यात्रियों को लेकर कुछ ही घंटों में अटलांटिक को पार कर जाते हैं, रेडियो, टेलीविजन और कंप्यूटर नहीं थे। उन्होंने यह भयंकर नजारा नहीं देखा था कि मनुष्य द्वारा गैर जिम्मेदाराना रूप में किस तरह से आधुनिक टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल वनों के विनाश, मिट्टी के कटाव, लाखों हेक्टेयर उपजाऊ भूमि के मरुस्थल में बदलने, समुद्रों के अतिशोषण और प्रदूषण, पौधों और पशुओं की पूरी जाति को नष्ट करने तथा पेयजल, हवा में जहर फैलाने के लिए किया जा रहा है।
मार्क्स ने अपने सिध्दांत का विकास उस समय के सर्वाधिक विकसित देश इंगलैंड में किया। उन्होंने मजदूर-किसान साहचर्य की जरूरत नहीं बताई। न ही उन्होंने उस समय की उपनिवेशी दुनिया से पैदा होने वाली विकट समस्या के बारे में सोचा। यह कार्य उनके मेधावी शिष्य लेनिन ने रूस की विशेष परिस्थितियों में उनके विचार का अनुसरण करके बाद में किया।
मार्क्स ने इंगलैंड की औद्योगिक क्रांति का त्वरित विकास तथा जर्मनी और फ्रांस के शुरुआती विकास को देखा। उस समय कोई भी यह नहीं कह सकता था कि उनकी मृत्यु के मुश्किल से 60 वर्ष बाद अमरीका इस तरह की भूमिका अदा करेगा।
माल्थस ने निराशा के बीज बोए, मार्क्स ने आशा जगाई। उन दिनों धरती के भूगोल और जीवमंडलभूमि, वन, समुद्र और हवा को शासित करने वाले नियमों के बारे में बहुत कम जानकारी थी। बाह्य अंतरिक्ष के बारे में भी बहुत कम ज्ञान था। सापेक्षता का सिध्दांत नहीं आया था तथा बिग बैंग के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा गया था।
मानव इतिहास में पहली बार हमारी जाति के सामने संपूर्ण विनाश का खतरा पैदा हो गया है। केवल प्राकृतिक वास को ही खतरा नहीं है बल्कि गहरी राजनीतिक धमकियों और परिष्कृत हथियारों से भी खतरा है। मार्क्स ने यह सोचा भी नहीं होगा कि सैलफोनों के जरिए लोग धरती के एक कोने से दूसरे कोने तक प्रकाश की गति के साथ बात कर सकेंगे और शेयरों, मुद्राओं तथा हैज प्रचालनों तथा अपनी जगह से तिल भर नहीं हिलाई गई वस्तुओं तथा दूसरी प्रतिभूतियों का खरबों डालर का लेनदेन होगा तथा सट्टेबाजी से होने वाला लाभ बेशी मूल्य से अधिक हो जाएगा।
मार्क्स का उत्पादक ताकतों के विकास तथा विज्ञान और मानव प्रतिभा की अनंत संभावनाओं में विश्वास था। उनका मानना था कि समाज की मौलिक तथा मानसिक जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी वस्तुओं के उत्पादन में सक्षम सामाजिक व्यवस्था दुनिया के पूरी तरह से विकास द्वारा ही कायम की जा सकती है। उन्होंने एक देश में क्रांति की बात नहीं सोची। उन्होंने भविष्य में इतना जरूर झांका कि वह भूमंडलीकृत दुनिया का विचार दे सके, एक ऐसी दुनिया जो शांति के साथ एक होकर रह सके और सब उसमें उपलब्ध धन का पूरा आनंद ले सकें। उन्होंने अमीर और गरीब के बीच बंटी दुनिया के बारे में सोचा भी नहीं होगा। 'दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ!' उन्होंने घोषणा की। आज की वास्तविक दुनिया में इसे आम विनाश और प्राणघातक तथा विनाशकारी ताकत से जुड़े अतिवादी सिध्दांतों के खिलाफ शारीरिक और बौध्दिक मजदूरों, किसानों और गरीबों के एक होने के आह्वान के रूप में लिया जा सकता है।
दुनिया के लिए ये आशा और शांति के दिन नहीं हैं। युध्द होने ही वाला है। यह समान ताकतों के बीच मुकाबला नहीं होगा। एक ओर आधिपत्यवादी महाशक्ति होगी जिसके पास बेइंतहा सैनिक ताकत और तकनीक है तथा जिसे अपने मुख्य साथी का समर्थन प्राप्त है जिसके पास परमाणु क्षमता है और जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का सदस्य है। दूसरी ओर एक ऐसा देश है जिसके लोग अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा मान्यताप्राप्त स्वतंत्र देश कुवैत पर कब्जे से उत्तेजित गैर बराबर युध्द के बाद दस वर्षों से रोजाना बमबारी से जूझ रहे हैं और जहां लाखों लोग विशेषकर बच्चे भूख और बीमारी से मर रहे हैं।
व्यापक विश्व जनमत नए युध्द के खिलाफ है। वे अंतर्राष्ट्रीय नियमों तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की शक्ति और प्राधिकार की परवाह न करने वाली अमरीकी सरकार के एकतरफा निर्णय के खिलाफ है। यह अनावश्यक युध्द है जिसके लिए बनाया गया बहाना न तो विश्वसनीय है और न सही सिध्द हुआ है।
1991 में अमरीका के खिलाफ युध्द के बाद इराक पूरी तरह से कमजोर हो गया था।
उल्लेखनीय है कि ईरान के खिलाफ उसके युध्द के दौरान पश्चिम ने उसका समर्थन किया था तथा भारी मात्रा में हथियार दिए थे। अब उसमें बिलकुल भी क्षमता नहीं बची है जिससे वह अमरीका के आक्रमणात्मक और सुरक्षात्मक हथियारों का मुकाबला कर सके। इसके विपरीत यदि इराक के पास वास्तव में परमाणु, रासायनिक या जैव हथियार हैं तो उनके खतरों को खत्म करने के लिए अमरीका के पास पूरी क्षमता है। इराक के पास ऐसे हथियार होने की कतई संभावना नहीं है और यदि उसके पास हैं भी तो उनके प्रयोग का प्रयास राजनीतिक दृष्टि से असंगत तथा सैनिक दृष्टि से आत्मघाती होगा।
असली खतरा यह है कि इस तरह का सशस्त्र हमला इराकी लोगों के लिए देशभक्ति पूर्ण युध्द बन जाएगा। उनके प्रत्युत्तर और विरोध का अग्रिम तौर पर कोई अंदाजा नहीं लगा सकता है। इसका कोई अनुमान नहीं कि युध्द कब तक चलेगा, इससे कितनी मौतें और कितना विनाश होगा तथा प्रत्येक प्रतिद्वंद्वी के लिए इसके कितने मानवीय, आर्थिक और राजनीतिक परिणाम होंगे।
दुनिया के सामने पहले से ही मौजूद आर्थिक संकट के मद्देनजर इस युध्द के निश्चित रूप से जबर्दस्त आर्थिक जोखिम होंगे। ऐसे हालात में तेल की कीमतों का क्या होगा कोई नहीं जानता।
श्रेष्ट एवं ज्ञानवर्धक लेख
जवाब देंहटाएंdabirnews.blogspot.com
फिदेल का गुणगान करो खूब करो .
जवाब देंहटाएंलोकतंत्र में तुम लोगो का विश्वास है ही नही .
ऐसी बुद्धि को लानत है जो बंदूक की भाषा का समर्थन करती हो .
चतुर्वेदी जी अपने को देखिये . आप लोकतंत्र की बात मत किया करे
सच्चे साम्यवादी हो तो अपने नाम के आगे से चतुर्वेदी लगाना छोड़ दो जो तुम्हे अन्य वर्णों के श्रेष्ठ बताती है कुछ समझ में आया पंडित जी
जवाब देंहटाएंमैं अपमे नाम के आगे सामान्य परिचय में मिश्रा नही लगता .
जवाब देंहटाएंहमारे यहाँ जात पात की सख्त मनाही है . सब के नाम के आगे ''जी '' लगाते है