शनिवार, 27 नवंबर 2010

भूखा किसान,नीतीश की जीत और मीडियाखेल

     बिहार में नीतीश बाबू विधानसभा चुनाव जीत गए लेकिन किसान पर कोई कृपादृष्टि किए बगैर। लालू यादव ने इसे एनडीए की रहस्यमय जीत कहा है। एनडीए ने अपने प्रचार में मीडिया फ्लो को ध्यान में रखकर मध्यवर्गीय एजेण्डे को केन्द्र में रखा था। सवाल उठता है एनडीए और खासकर नीतीश कुमार जैसे पुराने समाजवादियों को बिहार में चुनाव लड़ते हुए किसानों की समस्याएं नजर क्यों नहीं आईं ? मीडिया के तथाकथित कवरेज से बिहार का किसान क्यों गायब था ? बिहार के विभिन्न जिलों से आने वाले किसी भी टॉक शो में किसान को प्रधान एजेण्डा क्यों नहीं बनाया गया ? इसके कारण क्या हैं ? क्या बिहार के विकास का कोई भी नक्शा किसान को दरकिनार करके बनाया जा सकता है ? जी नहीं। लेकिन मीडिया में एनडीए के चतुर खिलाडियों ने यही ज्ञान बांटा है बिहार तरक्की पर है और एनडीए उसके कारण ही जीता है। यह प्रचार है इसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है।
    जरा बड़ी तस्वीर पर नजर ड़ालें तो चीजें साफ दिखने लगेंगी। टेलीविजन विज्ञापनों में खाना खाता किसान नजर नहीं आता। आमतौर पर मध्यवर्ग के बच्चे,औरतें और पुरूष खाना खाते या पेय पदार्थ पीते नजर आते हैं। चॉकलेट खाते नजर आते हैं। मैगी खाते नजर आते हैं। मध्यवर्गीय सुंदर रसोई नजर आती है। होटल के कुक नजर आते हैं। मध्यवर्गीय औरतें खाना बनाने की विधियां बताती नजर आती हैं लेकिन किसान औरतों का चूल्हा और खाना बनाने की विधियां नजर नहीं आती।  
   टेलीविजन या मीडिया में किसान की कभी-कभार आत्महत्या की खबर आती है। स्वाभाविक खबरें नहीं आतीं। किसान को हमने भूख के साथ जीना सिखा दिया है और मीडिया भी इस काम में सक्रिय भूमिका अदा कर रहा है। महान किसान नेता सहजानंद सरस्वती ने लिखा है ‘‘अमीर और जमींदार लोग, कानून की पाबन्दी और उस पर अमल कराने वाले लोग और जो लोग कानून बनाते हैं उनसे,  सभी से यदि कहा जाए कि भूखे रहकर यह काम कीजिए तो धीरे से सलाम करके चट हट जाएँगे। साफ कहेंगे कि बाबा,   यह काम हमसे न होगा। लीजिए हमारा इस्तीफा। नहीं-नहीं, भूखे रहना तो दूर रहे। जरा चाय न मिले, एक समय नाश्ता और जलपान न मिले तो भी उनके माथे में चक्कर आता है और बीमार पड़ जाते हैं। फलत: उनकी सारी ऐंठ और सारा कारोबार ही रुक जाता है।’’
      किसान की स्थिति इससे थोड़ा भिन्न है। उसकी भूख,उसकी सामाजिक-आर्थिक जरूरतें, उसकी राजनीतिक इच्छाएं आदि को मीडिया कभी व्यक्त नहीं करता। मीडिया कवरेज से लेकर राजनीतिक हंगामे तक कहीं पर भी बिहार का किसान और उसकी समस्याएं चर्चा के केन्द्र में नहीं थीं। विकास का तथाकथित एजेण्डा बुर्जुआ एजेण्डा है। किसान एजेण्डा नहीं है। प्रकारान्तर से बिजली,पानी,सड़क और कानून व्यवस्था के सवाल चर्चा के केन्द्र में थे। ये विश्व बैंक और विश्व की नामी वित्तीय संस्थाओं का सुझाया एजेण्डा है। इसमें भी दो कामों की ओर बिहार की नीतीश सरकार ने ध्यान दिया था। वह है सड़क निर्माण और कानून व्यवस्था । कानून व्यवस्था में आए सुधार का बहुत गहरा संबंध माफिया गिरोहों को सड़क निर्माण के धंधे में खपा देने के साथ है। माफिया गिरोहों में सत्ता की लूट का विभाजन बड़े ही कौशल के साथ किया गया है और तथाकथित सड़क निर्माण और ऐसे ही कार्यों में बाहुबलियों को स्थानांतरित कर दिया गया है। सरकारी खजाने की विभिन्न मदों में हुई लूट में हिस्सेदारी दे दी गयी है। इसका परिणाम यह निकला कि आम जनजीवन में कानूनभंजन की घटनाओं का ग्राफ तेजी से गिर गया। बाकी वोटों के प्रबंधन में सामाजिक समीकरण के गणित को लगा दिया गया।
    किसान को भूखा रखकर आई यह जीत कितनी बिहार के लिए भविष्य में कितनी सार्थक होगी यह तो भविष्य ही बताएगा। लेकिन एक बात तय है कि किसान की भूख को अभी बिहार में प्रमुख एजेण्डा बनना है। सहजानंद सरस्वती के शब्दों में कहें ‘‘लेकिन वही लोग उम्मीद करते हैं कि भूखों रहकर और दिन-रात खप-मर के किसान लगान और टैक्स चुकता करे सलामी और नजराना दे और सुन्दर-सुन्दर पदार्थ उन्हें भोग लगाने को मुहय्या करे ? किसान उनसे पूछता क्यों नहीं कि 'खुदरा फजीहत, दीगरे रा नसीहत?' आप लोग स्वयं तो जरा सी नाश्ते में देर बर्दाश्त नहीं कर सकते और घी-दूध के बिना काम ही नहीं कर सकते। तो फिर हमीं से वैसी आशा क्यों करते हैं ? हम भूखों रहके सब-कुछ गैरों के लिए उपजावें ऐसा क्यों सोचते हैं ? क्या आपका शरीर एवं दिल दिमाग खून मांस वगैरह से बना है और हमारा पत्थर और मिट्टी से कि हमारा काम यों ही चल जाएगा ? हमारे साथ आप भी भूखों रह के काम कीजिए। तब तो पता चलेगा कि लेक्चर और हुक्म देना कितना आसान है और भूख कितनी बुरी है। ऊँट को तभी पता चलेगा कि जितना आसान बलबलाना है, उतना पहाड़ पर चढ़ना नहीं है।’’
       सहजानंद सरस्वती ने लिखा है किसान का काम है कि वह कानूनी ढिंढोरा पीटने वालों से और उसका खून चूसने वालों से सीधा कह दे कि बिना कोयला-पानी के निर्जीव और लोहे का बना इंजिन भी काम नहीं करता और आगे नहीं बढ़ता, चाहे ड्राइवर मर जाए। यदि घोड़े को दाना और घास न दें और पानी न पिलाएँ। मगर पीठ पर सवार होकर कोड़े मारकर ही उसे चलाना और दौड़ाना चाहें तो यह असम्भव है। वह तो सिर्फ आगे बढ़ने से इन्कार ही नहीं करता, किन्तु अगले पाँवों को उठाकर खड़ा हो जाता और अपना शरीर बुरी तरह झकझोर के सवार को नीचे गिरा देता है। तब सवार को अक्ल आती है। फलस्वरूप चाहे घोड़े को और कोड़े भले ही लगें। मगर सवार की हड्डियाँ तो चूर हो ही जाती हैं। हम भी अब यही करेंगे यदि हमें दिक किया गया। हम तो पहले खाएँ-पिएँगे। पीछे और कुछ करेंगे।
बिहार में चूंकि नव्य उदार आर्थिक नीतियों को लागू किया जा रहा है तो जमीन-मकान-जायदाद के धंधे में उछाल आएगा। इससे स्थानीय  बाहुबलियों का वर्चस्व मजबूत होगा। नई सरकार तेजी से सेज प्रकल्पों की ओर भी बढ़ेगी इस सबसे प्राकृतिक असंतुलन और बढ़ेगा। अवरूद्ध विकास के कारण पहले से ही बिहार प्राकृतिक असंतुलन को झेल रहा है। प्राकृतिक तबाही झेल रहा है। आश्चर्य की बात है बिहार के सैंकड़ों लड़के पूरे देश में एनजीओ कर रहे हैं लेकिन बिहार के प्राकृतिक विनाश पर उनका ध्यान ही नहीं जाता।
      सहजानंद सरस्वती के शब्दों में बिहार के सामने तीन बड़ी समस्याएं हैं वे हैं हवा,   पानी और खाना। हवा बिना एक क्षण भी जिन्दा रहना गैर-मुमकिन है। इसलिए प्रकृति ने उसे सब जगह इफरात से बनाया है। बिना विशेष यत्न के ही वह सर्वत्र सुलभ है। सो भी जितनी चाहें उतनी। इस कदर सुलभ और ज्यादा है कि हम उसे यों ही गन्दा और खराब बनाते रहते हैं, बिना कारण के ही और प्रकृति को उसे शुद्ध बनाने के लिए न जाने कितने उपाय करने पड़ते हैं। मगर इतने से रंज हो के उसने हमारी जरूरत-भर हवा नहीं दी है और न जरूरत में कमी ही की है। जो जितना ही जरूरी है वह यदि उतना ही सुलभ और पर्याप्त हो, तभी काम चल सकता है। यही नियम इस बात से सिद्ध होता है।

   हवा के बाद स्थान है पानी का। यह हवा जितना जरूरी है नहीं। मगर भोजन से तो कहीं ज्यादा जरूरी है। पानी पीके कुछ दिन जिन्दा रह सकते हैं बिना खाये भी। इसीलिए पुराने लोगों ने पानी का नाम जीवन भी रखा है। यह पानी भी हवा जैसा सुलभ, सर्वत्र प्राप्य न होने पर भी जरूरत के लिए मिल ही जाता हैं। जहाँ ऊपर नहीं है वहाँ थोड़ी सी जमीन खोदने पर जितना चाहे पा सकते हैं। यों तो नदियाँ,   तालाब, झरने और मेघ उसे पहुँचाते ही रहते हैं। सहारा के रेगिस्तान और बीकानेर के तालुकामय मरुस्थली में भी ऊँटों और जंगली लोगों के लिए प्रकृति ने ऐसा सुन्दर प्रबन्ध कर दिया है कि आश्चर्यचकित होना पड़ता है। जहाँ पानी का पता नहीं। मेघ भी शायद ही कभी भूल-चूक से थोड़ा कभी बरस जाए। दिन-रात लू चलती रहती है। वहीं पर जमीन के थोड़ा ही नीचे मनों वजन के तरबूजे (मतीरे) होते हैं जो बारह महीने पाए जाते हैं। उनमें खाना और पानी दोनों हैं। वह इतने मीठे होते हैं कि कहिए मत। उनकी खेती कोई नहीं करता जमीन के भीतर ही उनकी लताएँ फैलती और फलती हैं। वहाँ के निवासियों के लिए यह प्रकृति का खास (special-arrengement) है।

    तीसरा नम्बर भोजन का आता है। रोशनी, मकान, कपड़े आदि के बिना भी हम जिन्दा रह सकते हैं। मगर भोजन के बिना कितने दिन टिक सकते हैं। जैसे-तैसे मर-जी के कुछ ही दिन के बाद जीना असम्भव है यदि खाना न मिले। इसीलिए सहारा और राजपूताने में जहाँ पेड़ नहीं हैं, प्रकृति का खास इन्तजाम खाने-पीने के बारे में बताया है। यह भी तो देखिए कि जब किसान या दूसरा आदमी नन्हा-सा बच्चा था और माता के पेट से अभी-अभी बाहर आया था, तो उसके खाने-पीने का प्रबन्‍ध पहले से ही था। माता के स्तनों में इतना मीठा दूध बिना कोशिश के ही मौजूद था कि खाने और पीने दोनों ही,  का काम करता था। पशुओं के लिए भी यही बात है। बच्चे कमा नहीं सकते और न हाथ-पाँव चला सकते हैं। इसलिए भगवान या प्रकृति ने खुद पहले से सुन्दर इन्तजाम कर दिया। जंगलों और पहाड़ों और सारी जमीन पर घास-पात और फल-फूल की, जड़ और मूल की इतनी बहुतायत है कि सभी पशु-पक्षी खा-पी सकते हैं। यहाँ तक कि किसान जब निरा बच्चा है तब तक वह अमृत जैसा माँ का दूध पीने को पाता है।

     मगर सयाना होने पर ? हाथ-पाँव चलाने और दिन-रात एड़ी-चोटी का पसीना एक करने पर ? उसका पेट नहीं भरता और भूखों मरता है। क्या यह बात समझ में आने की है ? लोग कहते हैं कबीर ने उल्टी बातें बहुत कही हैं, जैसे 'नैया बीच नदिया डूबी जाए' मगर क्या यह नैया बीच नदिया का डूबना नहीं है ? वर्तमान सामाजिक व्यवस्था ने अमन और कानून ने जो यह भूखों मरने की व्यवस्था कमाने वालों के लिए,  किसानों के लिए,  बना रखी है और जिसका समर्थन सारी शक्ति लगा कर किया जाता है, क्या वह प्रकृति को पसन्द है ? प्रकृति ने तो हवा, पानी, दूध आदि प्रचुर मात्रा में प्रस्तुत करके बता दिया है कि भोजन जैसी जरूरी चीज जरूरत-भर पाने का हर किसान को नैतिक अधिकार है, कुदरती हक है। मगर अभागा किसान समझे तब न ?















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