गुरुवार, 11 नवंबर 2010

किसान की भूख और ब्लॉगरों की भूमिका

     मध्यवर्ग के लोग आमतौर पर किसानों के प्रति रौमैंटिक भाव से सोचते हैं अथवा अनालोचनात्मक ढ़ंग से सोचते हुए किसान का महिमामंडन करते रहते हैं। किसान के मनोविज्ञान की कभी हमने आलोचनात्मक समीक्षा ही नहीं की है। दूसरी ओर एक वर्ग ऐसा भी है जिसका किसान के साथ दर्शकीय संबंध है। हम नहीं जानते कि किसान कैसे रहता है ? किस मनोदशा में रहता है ? कैसे खाता-पीता है ? किसान के बीच में चेतना पैदा करने वाले भी कम हैं और किसान को भ्रमित करने वाले ज्यादा हैं। पिछले एक दशक में हजारों किसानों की आत्महत्या पर तरह-तरह के लेख लिखे गए,अनेक लेखकों और पत्रकारों ने तो किसानों की आत्महत्या पर लिखते-लिखते देश-विदेश में खूब नाम कमा लिया। किसान को इस प्रक्रिया में हमने जाना कम और सनसनीखेज ज्यादा बनाया। ब्लॉगिंग एक ऐसा मीडियम है जिसके जरिए हम किसानों के बारे में अपने इलाकों के अनुभवों और समस्याओं को उठा सकते हैं। किसान समस्या उठाते समय हमें क्रांति के मनोभाव से भी लड़ना होगा। हमारे माओवादी किसानों की दुर्दशा देखकर यह निष्कर्ष निकाल बैठे हैं कि किसानों में क्रांति का बिगुल बजाया जा सकता है।
     भारत के किसान की आज केन्द्रीय समस्या क्रांति नहीं है। किसान की प्रधान समस्या कर्जा भी नहीं है। किसान की प्रधान समस्या है भूख और हमें भूख पर बातें करनी चाहिए। किसान के खान-पान पर बातें करनी चाहिए। उसकी जीवनशैली के सवालों को उठाना चाहिए।
  अखिल भारतीय किसान सभा के प्रथम अध्यक्ष स्वामी सहजानंद सरस्वती से हमारे किसान नेताओं को भी बहुत कुछ सीखना बाकी है। किसान नेताओं का किसानों के साथ अनालोचनात्मक संबंध भी एक बड़ी समस्या है। हमारे अनेक किसान नेता किसान के मनोविज्ञान की गहरी पकड़ से वंचित हैं। यह बात उनके लेखन और कर्म में आसानी से देखी जा सकती है। जो लोग किसानों में क्रांति का बिगुल बजाते रहते हैं वे कृपया किसानों में कुछ समय उनके मनोविज्ञान की मीमांसा पर भी खर्च करें तो बेहतर होगा। क्रांति और कर्ज की महत्ता पर लिखने की बजाय किसान खाएं-पीएं इस सवाल पर ध्यान दें तो बेहतर होगा। इस प्रसंग में स्वामी सहजानंद सरस्वती का प्रसिद्ध निबंध हैं ‘‘खाना-पीना सीखें‘‘। इस निबंध का बड़ा महत्व है।
  स्वामी सहजानंद सरस्वती ने लिखा है ‘‘हमने देखा है कि किसानों को दिन-रात इस बात की फिक्र रहती है कि मालिक (जमींदार) का हक नहीं दिया गया, दिया जाना चाहिए, साहू-महाजन का पावना पड़ा हुआ है उसे किसी प्रकार चुकाना होगा, चौकीदारी टैक्स बाकी ही है, उसे चुकता करना है, बनिये का बकिऔता अदा करना है आदि-आदि। उन्हें यह भी चिन्ता बनी रहती है कि तीर्थ-व्रत नहीं किया, गंगा स्नान न हो सका, कथा वार्ता न करवा सके, पितरों का श्राद्ध तर्पण पड़ा ही है, साधु-फकीरों को कुछ देना ही होगा, देवताओं और भगवान को पत्र-पुष्प यथाशक्ति समर्पण करना ही पड़ेगा। वे मन्दिर-मस्जिद बनाने और अनेक प्रकार के धर्म दिखाने में भी कुछ न कुछ देना जरूरी समझते हैं। यहाँ तक कि ओझा-सोखा और डीह-डाबर की पूजा में भी उनके पैसे खामख्वाह खर्च हो ही जाते हैं। चूहे, पंछी, पशु, चोर बदमाश और राह चलते लोग भी उनकी कमाई का कुछ न कुछ अंश खा जाते हैं। सो भी प्राय: अच्छी चीजें ही। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बहुत ही हिफाजत से रखने पर भी बिल्ली उनका दूध-दही उड़ा जाती है। कौवों का दाँव भी लग ही जाता है। कीड़े-मकोड़े और घुन भी नहीं चूकते वे भी कुछ लेई जाते हैं।
सारांश यह कि संसार के सभी अच्छे-बुरे जीव उनकी कमाई की चीजों के हिस्सेदार बनते हैं। किसान भी खुद यही मानते हैं कि उन सबों का भी हक उनकी कमाई में है।
लेकिन क्या वे कभी यह भी सोचते हैं कि हमें और हमारे बाल-बच्चों को भी खाने का हक है? जरा इस प्रश्न की तह में जाकर देखना चाहिए।’’
स्वामी जी ने एक और बड़ी समस्या को उठाया है और वह है क्या किसान सब कुछ पेट की खातिर कर रहा है ? इसका उत्तर खोजते हुए लिखा है ‘‘यह माना जाता है कि पेट के लिए ही सबकुछ किया जाता है। लेकिन क्या सचमुच यही बात है ? यदि हाँ तो फिर किसान अपनी गाय-भैंस का दूध दुह के स्वयं पी क्यों नहीं लेता और बाल-बच्चों को पिला क्यों नहीं देता। उसे रोकता कौन है,   यदि पेट के ही लिए सभी काम सचमुच करता है? पीने से जो बचे उसका दही बना के क्यों खा-खिला नहीं डालता? दही के बाद भी बच जाए तो घी निकाल के खाने में क्या रुकावटें हैं? दुहने के बाद फौरन खा-पी जाने में तो खैरियत है। घर जाने पर तो न जाने कौन-कौन से दावेदार खड़े हो जाएँ।

    मगर क्यों यह बात नहीं की जाती यही तो विचारणीय है। यदि कहा जाए कि सरकारी कर, जमींदारी लगान और साहूकार के पावने का खयाल और भय उसे ऐसा नहीं करने देता तो फिर पेट के ही लिए सब कुछ करते हैं यह कहाँ रहा? दिमाग में तो दूसरा भूत बैठा है। पेट की बात तो यों ही बकी जाती है। पुरानी पोथियों में मिलता है कि भूखे होने से विश्वामित्र ने कुत्तों का जंघा खा डाला। अजीगर्त वगैरह ने भी ऐसा ही निन्दित और धर्मवर्जित मांस खा लिया हालाँकि वे लोग पक्के ऋषि और धर्मभीरु थे। मगर पेट के सामने धर्म की भावना कुछ न कर सकी तो क्या सरकारी और जमींदारी पावने की भावना और धारणा धर्म भावना से भी ज्यादा बलवती है? जो लोग ऐसा समझते हैं वह भूलते हैं। हो सकता है, समाज का रूप बदले और भविष्य में इस धार्मिक भावना का स्थान भौतिक भावना ले ले। मगर आज तो धर्म भावना सौभाग्य या दुर्भाग्य से सर्वोपरि है। धर्म के नाम पर किसान सबकुछ गवाँ देने को तैयार हो जाते हैं।‘‘
स्वामी जी ने आगे लिखा है कि ‘‘जरा और सोचें। कल्पना करें कि एक आदमी बहुत ही ज्यादा भगवान का भक्त है। भगवान का उसे दर्शन भी हो जाता है। वह नरसी मेहता या सूरदास के टक्कर का है। उसने भोजन बनाया और कई दिनों का भूखा होने के कारण जल्द खाना भी चाहता है। पेट में आग जो लगी है। मगर भगवान का भोग तो लगाएगा ही। भक्त जो ठहरा। अब अगर उसके साक्षात भगवान या गुरु महाराज उसकी परोसी- परोसाई समूची थाली उठा ले जाएँ,   तो क्या होगा। दोबारा बनाने की कोशिश करेगा। लेकिन यदि थाल छीनने की यही प्रतिक्रिया बराबर जारी रही, तो क्या यों ही बर्दाश्त करता जाएगा? खुद छेड़खानी न करेगा? वह तो असम्भव है। दो-चार बार शायद बर्दाश्त करे। मगर अन्त में तो अपने भगवान या गुरु महाराज से भी उठा-पटक कुश्तम-कुश्ती करेगा ही। पकड़ के थाल भी छीन लेगा जरूर। आखिर कचहरियों में वेद,   कुरान, बाइबिल और शालग्राम की झूठी कसमें खाने का मतलब क्या है? क्या वह जर और जमीन के लिए ही भगवान का पछाड़ा जाना नहीं है? क्या कचहरियों में ऐसे ही मौकों पर बराबर यह भगवान इस प्रकार प्रत्यक्ष पछाड़ पर पछाड़ नहीं खाते हैं? ’’

   ‘‘ शायद कहा जाए कि जमींदार लूट लेंगे, सरकार छीन लेगी और उसे खाने न देगी। नहीं तो वह जरूर खा जाता। तो इसका सीधा उत्तर यही है कि जब छीना जाएगा तब देखा जाएगा। मगर जब तक छीनने वाले नहीं हैं तभी तक क्यों नहीं खा लेता? यदि छीनने का भय खाने नहीं देता तो क्या नर्क का भी ऐसा ही भय खाने से और चोरी-बदमाशी से रोक देता है? सभी जानते हैं, चोरी करने पर पकड़े जाएँगे और दुराचार-व्यभिचार करने पर थू-थू होगी। मगर क्या छोड़ देते हैं? और अगर सिर्फ खयाली और दिमागी भय ही उनके हाथ और मुँह को रोक देता है। तब तो मानना ही होगा कि असली चीज खाना नहीं। किन्तु पावना चुकाना ही है।’’

    ‘‘एक बात और कंजूसी के मारे जो न खाता और खिलाता है उसका क्या मतलब है? अगर वह मानता रहता कि असली काम खाना ही है और सबसे पहला है, तो ऐसा काम वह कभी नहीं करता। मगर उसके माथे में असली काम कुछ और ही है। फिर क्यों खाये-पीये? आखिर लक्ष्य से क्यों हटे?’’

      ‘‘यह भी तो पक्का है कि जो चीजें खा-पी ली जाएँगी उन्हें कोई छीन नहीं सकता,   ले नहीं सकता। पेट से तो निकालेगा नहीं। हाँ जो बचा रखी जाती हैं उन्हीं के दावेदार होते हैं, हो सकते हैं। ऐसी हालत में किसान अगर पैदा की हुई चीजें खाता-पीता जाए तो कोई क्या करेगा? आखिर पागल आदमी भी तो आदमी ही होता है। वह पशु या पत्थर तो हो जाता नहीं। मगर उसके ऊपर कोई कानून लागू क्यों नहीं होता? यही न, कि लोग ऐसा करना बेकार समझते हैं और मानते हैं कि नतीजा कुछ नहीं होगा? ठीक उसी प्रकार यदि कानूनों और कानूनी माँगों की परवाह न करके किसान भी अच्छी-अच्छी चीजें खा-पी जाया करे, तो क्या होगा? आखिर पागल को भी तो कानून की फिक्र नहीं होती। इसीलिए कानून भी उसकी फिक्र नहीं करता। फिर वही काम किसान क्यों न करे और कानून भी उसी प्रकार उसका पिण्ड क्यों न छोड़ देगा?

    स्मरण रहे कि कानून सदा बनते-बिगड़ते रहते हैं। बहुमत ही उनके बदलने का कारण भी है। ऐसी दशा में तो किसान का यह काम अस्सी प्रतिशत का काम होगा। यह तो 'कह सुनाऊँ या कर दिखाऊँ' वाली बात होगी। वह तो कहने के बजाय कर डालेगा और उसका यह मत बड़ा ही पक्का होगा भी। इसे टालने की हिम्मत कोई भी सरकार या शक्ति कर नहीं सकती। फिर तो कानून खामख्वाह ऐसा ही बनेगा कि सबसे पहले किसान को ही खाना-पीना चाहिए। कानून का काम तो सिर्फ यही है कि जिसे हम सामूहिक रूप से करने लगें उसी पर मुहर लगा दे। कानून हमारे लिए हैं,   न कि हमीं कानून के लिए हैं। यही सबसे पक्की बात है।

    किसान के पास बैल होता है, गाय, भैंसें होती हैं। उनकी क्या हालत है। बैल का पेट जब खाली होता है, खूब भरा नहीं होता, तो न तो 'भूखे हैं, रोटी दो' के नारे लगाता, न क्रान्ति और रेवोल्यूशन की बात ही करता और न भीख ही माँगता है। वह तो सत्याग्रह करता, हल और गाड़ी खींचने से साफ इनकार करता और चारों पाँव बैठ जाता है। वह तो अपने अमल से बता देता है कि हमारी जो खुराक है वही, न कि ऊलजलूल रद्दी चीजें, लाओ और पहले हमारा पेट भरो। उसके बाद ही हम हल या गाड़ी में जुतेंगे। वह तो दलील भी नहीं करता और वोट भी नहीं देता। मगर ऐसा करता है कि उसकी माँग उसकी इच्छा पूर्ण करनी ही होती है। तो क्या किसान अपने बैल से भी गया गुजरा है? जिसे अक्ल नहीं होती उसे बैल कहते हैं। मगर वह बैल तो अक्लवाले किसान से सौ दर्जे अच्छा है। यदि किसान को और कहीं अक्ल नहीं मिलती, तो अपने बैल से ही क्यों नहीं सीखता? बैल तो एक ही कानून जानता है और वह है पेट भरने का कानून। क्योंकि उसके बिना हल या गाड़ी खींचना गैर-मुमकिन है। यदि किसान भी वही एक कानून सीख ले तो क्या हो? आखिर उसे भी तो देह से कठिन श्रम करके खून को पानी करके ठीक बैल ही की तरह खटना तथा सभी पदार्थ पैदा करना पड़ता है जो अमीर और कानून बनाने वाले ही खाते-पीते हैं। कानून बनाने वालों को तो उस तरह खटना पड़ता नहीं। फिर वे क्या जानने गए कि पेट भरने पर काम हो सकता है या उसके बिना भी? और जब वे देखते हैं कि किसान तो काम किए चला जाता है, खेत जोतता, बोता और गेहूँ, बासमती, घी,   दूध पैदा किये जा रहा है, तो फिर उसके पेट भरने की फिक्र क्यों करने लगे? उन्हें क्या गर्ज? यदि बैल बिना खाये-पीये ही गाड़ी और हल खींचे, खींचता रहे तो कौन किसान ऐसा बेवकूफ है कि उसे खिलाने की फिक्र करेगा ? ’’

   




1 टिप्पणी:

  1. बात आप ठीक ही कर रहे हैँ। पर एक बात और लगती है कि किसान बैलबुद्धि हो ही नही सकता क्योँकि वह बैल जैसा यायावर तो है नहीँ। माना कि बहुतोँ के पास अपनी जमीन भी नहीँ, घर भी नहीँ- पर बीबी बच्चे तो हैँ। बैल को तो इसकी भी फिक्र नही पर किसान को तो है। उसकी इसी कमजोरी की वजह से वह शोषित किया जाता रहा जाता रहा है। बात सिर्फ खुद को पालने कि नहीँ है। बैल से ज्यादा समझदार होने की वजह से वह ज्यादा लाचार है।

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