सोमवार, 1 नवंबर 2010

ईमेल संस्कृति के आरपार

   प्रवक्ता डॉट कॉम ने बहस चलाकर अच्छा काम किया है। मैं इधर-उधर की बातें न करके पहले सिर्फ उस फिनोमिना के बारे में कहना चाहता हूँ। जो पंकज और उनके जैसे लेखकों और युवाओं में घुस आया है। यह नव्य उदार संस्कृति का प्लास्टिक पोलीथीन फिनोमिना है। यह ईमेल संस्कृति है।  इसमें सारवान कुछ भी नहीं है।   
     ये एक व्यक्ति के विचार नहीं हैं बल्कि यह एक फिनोमिना है। एक प्रवृत्ति है। पहले मैं यही सोच रहा था कि पाठकों की राय पर प्रतिक्रिया नहीं दूँगा। लेकिन इधर कुछ असभ्यता ज्यादा हो रही है। इसलिए बोलना जरूरी है। मैं बहुत सोच समझकर लिख रहा हूँ कि पंकजजी ने अपने लेख में जो कुछ लिखा है और उनके पक्ष में जिस तरह की टिप्पणियां लोगों ने लिखी हैं। वे सबकी सब वेब संस्कृति के सभ्य विमर्श का हिस्सा नहीं बन सकतीं। हां,वे वेब संस्कृति के असभ्य विमर्श का हिस्सा जरूर हैं। जैसे पोर्नोग्राफी है। उन्हें व्यक्ति या व्यक्तियों की राय के रूप में न देखकर एक फिनोमिना के रूप में देखें तो बेहतर होगा। सवाल यह है वेब पर दीनदयाल उपाध्याय (विचार-विमर्श की परेपरा) के लेख हैं और पोर्नोग्राफी भी है,हम किस परंपरा में जाना चाहते हैं ?
      मेरी समस्या पंकजजी नहीं हैं। वह फिनोमिना है जिसकी वे अभिव्यक्ति कर रहे हैं। वह असभ्य भाषा है जिसकी वे अभिव्यक्ति कर रहे हैं। यह हिन्दी की इज्जत को मिट्टी में मिलाने वाली भाषा है। यह भाषा इस बात की द्योतक है कि हिन्दी का युवाओं में अपकर्ष हो रहा है। यह इस बात का भी संकेत है कि हिन्दी में ऐसे युवाओं का समूह  पैदा हो गया है जो विचारों में गंभीरता के साथ अवगाहन करने से भाग रहा है। वह विचार विमर्श को ईमेल कल्चर में तब्दील कर रहा है।
   विचार-विमर्श को ईमेल संस्कृति में तब्दील करने की अनुमति किसी को नहीं दी जा सकती। ईमेल संस्कृति की विशेषता है पढ़ा और नष्ट किया। यही पोलिथीन प्लास्टिक फिनोमिना की विशेषता है। यह वेब विमर्श नहीं है।  यह ईमेल विमर्श है।  यह इस बात का प्रतीक है कि अभी हमारे युवाओं का एक हिस्सा वेबसंस्कृति के लायक सक्षम नहीं बन पाया है। ये लोग ईमेल संस्कृति और विमर्श संस्कृति में अंतर करना नहीं जानते। इसे हम इसे वेब असभ्यता कहते हैं।  
      कायदे से पंकजजी का लेख न छपता तो बेहतर था। फिर भी संपादक की उदारता है कि उसने इस लेख और इस पर आई टिप्पणियों को प्रकाशित किया। पंकजजी ने जिस भाषा और जिस अविवेक के साथ लिखा है उससे मेरी यह धारणा पुष्ट हुई है कि हिन्दी को अभी माध्यम साक्षरता की सख्त जरूरत है। मुझे समझ नहीं आता कि इतना पढ़ लिखकर पंकजजी ने क्या सीखा ? अज्ञान की पराकाष्ठा के कुछ नमूने उनके लेख से देखें- लिखा है-
‘‘किसी व्यक्ति की तारीफ़ या निंदा में किये गए लेखन सामान्यतः निकृष्ट श्रेणी का लेखन माना जाता है. लेकिन 2 दिन में ही अगर यह लेखक दुबारा ऐसा निकृष्ट काम करने को मजबूर हुआ है तो इसके निहितार्थ हैं. खैर’’
उनके लेखे, मेरा लेखन निकृष्ट श्रेणी का लेखन है। यह निकृष्ट काम है। अरे भाई,यह किस स्कूल में पढ़ी भाषा है। विचार-विमर्श की यह भाषा नहीं है। लेखन तो सिर्फ लेखन है वह निकृष्ट और उत्कृष्ट नहीं होता।  वे यह भी मानते हैं कि मैं अपने ‘‘कुतर्क थोपना’’ चाहता हूँ।जिससे असहमत हैं उसे कुतर्क कहना किस गुरू ने सिखाया है ? मैंने मुद्दे पर केन्द्रित लिखा है। उन्हें पूरा हक है कि वे किसी भी वामपंथ से संबंधित विषय पर प्रामाणिक ढ़ंग से आलोचना लिखें। पंकजजी नहीं जानते कि वे लेख नहीं लिखते, वे ईमेल लिखते हैं । ईमेल और लेख में अंतर होता है। यह विवेक उन्हें अर्जित करना होगा।
   मैं सोच-समझकर हिन्दुत्व और उससे विषयों पर ही नहीं अन्य सैंकड़ों विषयों पर अपनी पहलकदमी से लिखता रहा हूँ। उसका एक सैद्धांतिक आधार है। मैं अनेक बार उस आधार की अपने लेखों में चर्चा भी करता हूँ। जिससे पाठक उन किताबों तक पहुँचे। ईमेल फिनोमिना ने सबसे बुरा काम किया है विचारों और विचारकों का असभ्यों की तरह उपहास करके। मार्क्स,लुकाच, आदि किसी से भी असहमत हो सकते हैं,लेकिन उन्हें पढ़ें और फिर लिखें लेकिन वे बिना पढ़े ही लिख रहे हैं।
   मैं उनके लेख से सहज ही अनुमान लगा सकता हूँ कि वे प्रवक्ता के संसाधनों और मंच का दुरूपयोग कर रहे हैं और अपना पैसा भी बर्बाद कर रहे हैं। भारत की गरीब जनता का पैसा ,संजीवजी और उनके मित्रों के प्रयासों से चल रहे प्रवक्ता डॉट कॉम का स्पेस अनर्गल बातों के लिए घेरकर हम क्या अच्छा काम नहीं कर रहे ।
     वेबसाइट पर खर्चा आता है और इसका सभ्यता विमर्श,पाठकों की चेतना बढ़ाने,उन्हें समाज के प्रति और भी जागरूक बनाने लिए इस्तेमाल होना चाहिए। न कि ईमेल की बेबकूफियों के लिए। मैं जानता हूँ कि संजीवजी किस विचारधारा के हैं लेकिन क्या इसके लिए उनपर आरोप लगाना ठीक होगा ?
    जो अपना दायित्व समझते हैं वे थोड़ा ठंड़े दिमाग से सोचें कि क्या उन्होंने इतने दिनों में एक भी ऐसा लेख लिखा जो बाद में प्रवक्ता वाले अपने लिए संपत्ति समझें ? वे लगातार ईमेल लिखते रहे हैं और ईमेल पढ़ते ही बेकार हो जाता है,अनेक बार उसे लोग पढ़ते भी नहीं हैं। यही वजह है प्रवक्ता पर पंकजजी और ऐसे ही लोगों के विचार जिस क्षण आते हैं ,उसी क्षण मर जाते हैं। इस तरह वे अपनी और प्रवक्ता की बौद्धिक और आर्थिक क्षति कर रहे हैं।
     प्रवक्ता फोकट की कमाई से नहीं चलता। संजीव वगैरह किस तरह कष्ट करके उसके लिए संसाधन जुटाते होंगे,हम समझते हैं। प्रवक्ता या ऐसी ही अन्य वेब पत्रिकाओं के प्रति जो स्वैच्छिक प्रयासों से और सामाजिक तौर पर कुछ करने के इरादे से चलायी जा रही हैं उनका हमें बौद्धिक रूप से सही इस्तेमाल करना चाहिए। वेब पत्रिका कचरे का डिब्बा नहीं है कि उसमें कुछ भी फेंक दिया जाए। यह विचारों के आधान-प्रदान का गंभीर मंच है। उसे हमें ईमेल का मंच नहीं बनाना चाहिए। एक नमूना और देखें-  

‘‘गरीब के भूखे पेट को अपना उत्पाद बना कर बेचने वाले इन दुकानदारों को अपचय, उपचय और उपापचयपर बात करने के बदले सीधे थेसिस, एंटीथेसिस और सिंथेसिसतक पहुचते हुए देखा जा सकता है. क्रूर मजाक की पराकाष्ठा यह कि भूखे पेटको मार्क्स के उद्धरण बेच कर इनके एयर कंडीशनर का इंतज़ाम होता है. इन लोगों ने कोला और पेप्सी की तरह ही अपना उत्पाद बेचने का एक बिलकुल नया तरीका निकाला हुआ है. जिन-जिन कुकर्मों से खुद भरे हों, विपक्षी पर वही आरोप लगा उसे रक्षात्मक मुद्रा में ला दो. ताकि उसकी तमाम ऊर्जा आरोपों का जबाब देने में ही लग जाय. आक्रामक होकर वे इनकी गन्दगी को बाहर लाने का समय ही न सकें।’’
इस पूरे पैराग्राफ का मेरे प्रवक्ता पर प्रकाशित मेरे 200 से ज्यादा लेखों में से किसी से भी कोई लेना देना नहीं है। मैं नहीं जानता कि पंकजजी और उनके दोस्तों ने मेरी लिखी किताबें या मेरे ब्लॉग को गंभीरता से पढ़ा है या नहीं। वे आसानी से समझ सकते हैं कि मैं क्यों और किस नजरिए से लिखता हूँ।
    मैं आज भी यही मानता हूँ कि हिन्दी में अभी बहुत ज्यादा विविध किस्म के गंभीर विचारों के उत्पादन और पुनर्रूत्पादन की जरूरत है। हमें गंभीरता और छिछोरेपन में अंतर करना चाहिए। हमें तर्क और कुतर्क में अंतर करना चाहिए। विचारधारा और कॉमनसेंस में अंतर करने की तमीज विकसित करनी चाहिए। विद्वानों ,राजनेताओं आदि से लेखन में कैसे सम्मान के साथ संवाद करें इसके बारे में सीखना चाहिए। दुख के साथ कहना पड़ रहा है ईमेल फिनोमिना यह नहीं समझता,नहीं समझ सकता।   
     उनके कुतर्क का एक और नमूना देखें- ‘‘लेखक के विचारों को आप कानून की तराजू में रखकर तौलेंगे तो बांटे कम पड़ जाएंगे…..!अब आप सोचें….. फासीवाद का इससे भी बड़ा नमूना कोई हो सकता है? यह उसी तरह की धमकी है जब कोई आतंकवादी समूह कहता है कि मुझे गिरफ्तार करोगे तो जेल के कमरे कम पड जायेंगे।’’ वे समझ ही नहीं पाए हैं कि मैं लेखक की अभिव्यक्ति के विशाल दायरे से जुड़ा सवाल सामने रख रहा था और वे शैतानी भरे तर्क दे रहे हैं।
     पंकजजी की निकृष्टतम मानसिकता और ईमेल असभ्यता का नमूना है उनका यह कथन   ‘‘तो अगर पंडित जी की बात मान ली जाय तो देश रसातल में पहुचेगा ही साथ ही कुत्सित मानसिकता का परिवार से लेकर राष्ट्र तक में कोई आस्था नहीं रखने वाला हर वामपंथी, स्वयम्भू लेखक मस्तरामकी तरह बन बाप-बेटी, भाई-बहन तक में सम्‍बन्ध स्थापित करने वाला लेख लिख वैचारिक हस्तमैथुन कर मस्त रहेगा.’’।
    वे जानबूझकर इस तरह की घटिया भाषा लिख रहे हैं। इन पंक्तियों को देखकर कोई भी संपादक कैसे लेख प्रकाशित कर सकता है  ? कैसे कोई पाठक इन पंक्तियों के लिखे जाने के बाद पंकजजी को बधाईयां दे सकता है। पंकजजी जानते हैं उन्होंने यह क्या लिखा है-फिर से पढ़ें - ‘‘स्वयम्भू लेखक मस्तरामकी तरह बन बाप-बेटी, भाई-बहन तक में सम्‍बन्ध स्थापित करने वाला लेख लिख वैचारिक हस्तमैथुन कर मस्त रहेगा.’।
    यह वैचारिक स्तर सिर्फ ऐसे व्यक्ति का ही हो सकता है जिसने अपने को सभ्य न बनाया हो। जो ईमेल सभ्यता में कैदहो। वे जानते हैं वैचारिक हस्तमैथुन किसे कहते हैं ? उन्होंने कभी मेरी किताबें नहीं देखी हैं ? बाजार में उपलब्ध हैं और वे माध्यम साक्षर बनाने के लिए ही लिखी गयी हैं। अपमानजनक ,अश्लील भाषा में लिखकर ईमेल फिनोमिना ने मेरी धारणा को ही पुष्ट किया है कि अभी हिन्दी में सामान्य विचार-विमर्श बहुत पीछे है और इस दिशा में और भी ज्यादा लिखने की जरूरत है।
      पंकजजी की समस्या यह है कि प्रवक्ता वाले मेरे इतने लेख क्यों छापते हैं ? दिक्कत उनकी समझ में है। मैं लिखता हूँ इसलिए छापते हैं , उनकी संपादकीय नीति के दायरे में लिखता हूँ इसलिए छापते हैं।
    पंकजजी को आश्चर्य हो रहा है मेरे एक सप्ताह में एक दर्जन लेख प्रवक्ता पर देखकर। यदि वे मेरी एक साल में कभी-कभी आने वाली किताबों को देख लेंगे तो उनके हृदय की धड़कन बंद हो जाएगी। मैं एकमात्र लेखक हूँ जिसकी एक साथ नियमित कई किताबें आती रही हैं,मैं कभी खुशामद नहीं करता,मैं कभी सरकारी खरीद में किताब की बिक्री का प्रयास नहीं करता।मैंने कभी अपनी किताबों के पक्ष में आलोचनाएं नहीं लिखवायीं,इसके बावजूद वे बिकती हैं। मैं पंकजजी और उनके दोस्तों के ज्ञानवर्द्धन के लिए अपनी किताबों की एक सूची दे रहा हूँ। साथ में यह खबर भी कि ये किताबें महंगी हैं और बेहद सुंदर हैं। इन्हें एकबार पढ़ने के बाद आप कम से कम मीडिया में बहुत कुछ अनर्गल लिखना बंद कर देंगे।
    मैं यदि कोई विषय चुनता हूँ तो उस पर एक नहीं कई लेख लिखता हूँ जिससे उस विषय को ठोस ढ़ंग से विस्तार के साथ सामने रखा जाए पाठकों को उस पर सोचने के लिए मजबूर किया जाए। मैं लेखन के लिए लेखन नहीं करता बल्कि माध्यम साक्षरता के परिप्रेक्ष्य में लिखता हूँ। इसका मकसद है आलोचनात्मक विवेक पैदा करना। इसका मकसद किसी विचारधारा को थोपना नहीं है। इस प्रसंग की अन्य बातें अगले लेख में जरूर पढ़ें।
    अंत में एक बात प्रवक्ता से अनुरोध के रूप में कहनी है कि वे विषय पर केन्द्रित और सारवान लेख ही छापें,वे ईमेल और लेख में अंतर करें। अन्यथा उन्हें बार-बार पंकजजी जैसे फिनोमिना का सामना करना पड़ेगा। इससे प्रवक्ता की साख खराब होगी। प्रवक्ता का काम है आम पाठक की चेतना का स्तर ऊँचा उठाना। उसका काम यह नहीं है कि वह पाठक की चेतना के सबसे निचले धरातल पर ले चला जाए।
   हिन्दी का पाठक पहले से ही चेतना के सबसे निचले स्तर पर जी रहा है। इसे ईमेल संस्कृति ,फेसबुक की दो पंक्ति के लेखन की संस्कृति और ट्विटर की 140 अक्षरों की संस्कृति ने हवा दी है। यह व्यक्ति को असभ्यता के धरातल से बांधे रखती है। हमें इससे बचना चाहिए। लेखन ,मीडिया और कम्युनिकेशन का मकसद है व्यक्ति को चेतना के निचले स्तर से ऊपर उठाना,उसे जोड़ना। यह काम करने के लिए पाठक की चेतना के सबसे निचले स्तर पर जाने की जरूरत नहीं है। इससे प्रवक्ता का मूल लक्ष्य ही नष्ट हो जाएगा।    
प्रकाशित पुस्तकें
  1. दूरदर्शन और सामाजिक विकास,1991,डब्ल्यू न्यूमैन एंड कंपनी,कोलकाता.
  2. मार्क्सवाद और आधुनिक हिन्दी कविता,1994,राधा पब्लिकेशंस,दिल्ली
  3.आधुनिकतावाद और उत्तर आधुनिकतावाद,1994,सहलेखन, संस्कृति प्रकाशन ,कोलकाता
  4.जनमाध्यम और मासकल्चर, 1996,सारांश प्रकाशन दिल्ली.
  5.हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की भूमिका,1997,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली
  6.स्त्रीवादी साहित्य विमर्श ,2000,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.दिल्ली
  7.सूचना समाज ,2000, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीग्यूटर प्रा.लि. दिल्ली.
  8.जनमाध्यम प्रौद्योगिकी और विचारधारा, 2000,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.दिल्ली
  9.माध्यम साम्राज्यवाद ,2002,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली
  10. जनमाध्यम सैध्दान्तिकी, 2002,सहलेखन, अनामिका पब्लिशर्स एड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली
  11.टेलीविजन,संस्कृति और राजनीति, 2004,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर. प्रा. लि. दिल्ली
  12.उत्तर आधुनिकतावाद ,2004,स्वराज प्रकाशन, दिल्ली.
  13.साम्प्रदायिकता,आतंकवाद और जनमाध्यम,,2005,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.दिल्ली
  14.युध्द,ग्लोबल संस्कृति और मीडिया ,2005,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा. लि.दिल्ली
  15.हाइपर टेक्स्ट,वर्चुअल रियलिटी और इंटरनेट ,2006,अनामिका पब्लिकेशंस एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.
  16.कामुकता,पोर्नोग्राफी और स्त्रीवाद, 2007,(सहलेखन) आनंद प्रकाशन, कोलकाता.
  17.भूमंडलीकरण और ग्लोबल मीडिया,2007,(सहलेखन),अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि.दिल्ली
  18. नंदीग्राम मीडिया और भूमंडलीकरण ,2007, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि.दिल्ली
  19.प्राच्यवाद वर्चुअल रियलिटी और मीडिया,(शीघ्र प्रकाश्य),अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि. दिल्ली
  20.  वैकल्पिक मीडिया , लोकतंत्र और नॉम चोम्स्की (2008),अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि. दिल्ली
 21.तिब्बत दमन और मीडिया,2009, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि. दिल्ली
 22. 2009 लोकसभा चुनाव और मीडिया,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि.  
      दिल्ली.
23.ओबामा और मीडिया,2009, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि. दिल्ली
24.डिजिटल युग में मासकल्चर और विज्ञापन, (2010),सहलेखन,अनामिका पब्लिशर्स एंड   
    डिस्ट्रीब्यूटर,प्रा.लि. दिल्ली .
 
    सम्पादित पुस्तकें
25.बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद,1991,डब्ल्यू न्यूमैन एंड कंपनी,कोलकाता.
26.प्रेमचंद और मार्क्सवादी आलोचना, सहसंपादन,1994,संस्कृति प्रकाशन,कोलकाता.
27.स्त्री अस्मिता,साहित्य और विचारधारा,सहसंपादन, 2004,आनंद प्रकाशन ,कोलकाता.
28.स्त्री काव्यधारा, सहसंपादन,2006,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली.
29.स्वाधीनता-संग्राम,हिन्दी प्रेस और स्त्री का वैकल्पिक क्षेत्र,सहसंपादन, 2006, अनामिका प्रा.लि. दिल्ली 




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