‘‘ एक ऊँची इमारत पर लक्ष्मी का खूबसूरत बुत नस्ब (स्थापित) था।
चंद लोगों ने जब उस इमारत को अपना दफ़्तर बनाया तो उस बुत को टाट के टुकड़ों से ढ़ाँप दिया।
कबीर ने यह देखा तो उसकी आंखों में आँसू उमड़ आए।
दफ़्तर के आदमियों ने ढारस दी और कहाः ‘‘ हमारे मज़हब में यह बुत जाइज़ नहीं।’’
कबीर ने टाट के टुकड़ों की तरफ अपनी नमनाक आँखों से देखते हुए कहाः ‘‘खूबसूरत चीज़ को बदसूरत बना देना भी किसी मज़हब में जाइज़ नहीं ?’’
दफ़्तर के आदमी हँसने लगे-कबीर धाड़ें मारकर रोने लगा। ’’ (सआदत हसन मंटो)
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