गुरुवार, 11 नवंबर 2010

क्रांति ,भूख और माओवाद

       मैं पिछले 35 सालों से क्रांतिकारियों का साहित्य पढ़ रहा हूँ। इनमें कई रंगत के क्रांतिकारी रहे हैं जिनको पढ़ता रहा हूँ। खासकर माओवादियों और उनके हमदर्दों का किसानों के हितों को लेकर हल्ला इन दिनों ज्यादा मच रहा है। उसके बारे में और उनकी किसानचेतना के बारे में कुछ बातें कहना चाहता हूँ।
    माओवादी विचारकों को इस सवाल का जबाब देना चाहिए क्या भारत के किसान क्रांति को तैयार हैं ? क्या किसान में क्रांतिचेतना होती है ? क्या माओवाद प्रभावित इलाकों में क्रांति दस्तक दे रही है ? क्या क्रांति को अपने विरोधी दल के कार्यकर्ताओं की हत्या करके संपन्न किया जा सकता है ?
    क्या आदिवासी और किसानों की चेतना इतनी विकसित हो गयी है कि वे क्रांति के लिए जान तक देने को तैयार हैं ? यदि ऐसा ही था तो हजारों किसानों ने माओवाद प्रभावित आंध्र प्रदेश में आत्महत्याएं क्यों कीं ? हम जानना चाहते हैं माओवादी संगठन कैसी विचारधारा प्रसारित कर रहे हैं जिससे मरने,आत्महत्या करने या हत्या करने से रोक क्यों नहीं पाते ?
    माओवादी और उनके समर्थक विचारक किसान और आदिवासी समस्या के बारे में बुनियादी रूप से गलत सोच रहे हैं। भारत का किसान और आदिवासी क्रांतिचेतना से लैस नहीं है। आदिवासी या किसान वर्ग आधुनिककाल में क्रांति का नेतृत्व नहीं कर सकता। यह क्रांतिकारी वर्ग नहीं है।
    भारत के माओवाद प्रभावित आदिवासी-किसान इलाकों में क्रांति की लहर नहीं बह रही है। बल्कि हिंसा और अपराध की लहर चल रही है। एक तरफ कारपोरेट घरानों के द्वारा संचालित संगठित हिंसाचार और अपराध हैं। दूसरी ओर माओवाद के नाम पर अपराध हो रहे हैं। माओवादी जब किसी की हत्या करते हैं तो वे क्रांति की सेवा नहीं करते बल्कि अपराध करते हैं। क्रांति कभी अपराध के कंधों पर सवार होकर नहीं आती बल्कि जनता की लहर पर सवार होकर आती है। क्रांतिचेतना का अपराधचेतना से कोई संबंध नहीं है।
     आदिवासी और किसान आज सबसे ज्यादा असंगठित हैं। असंगठित लोग क्रांति नहीं कर सकते। क्रांति के लिए जनता का संगठित होना अनिवार्य शर्त है। आदिवासी और किसान सक्रिय और संगठित हों और उनके शत्रु कमजोर और असंगठित हों तब कहीं जाकर माओवादी राजनीति राष्ट्रीय दबाब पैदा कर सकती हैं।  लेकिन आज स्थितियां यह हैं कि माओवादियों की तुलना में उनके विरोधी ज्यादा संगठित हैं,उनके पास जनाधार या जनसमर्थन है। सत्ता उनके साथ है। सामाजिक शक्ति संतुलन उनके साथ है।  माओवादियों का शत्रु ढुलमुल नहीं है बल्कि पक्के इरादों वाला है । पुख्ता जमीन पर खड़ा है । ऐसे में माओवादियों को अपने राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने में सफलता मुश्किल से ही मिल पाएगी।
     माओवादियों के हिंसाचार से एक बात साफ निकल रही है कि वे क्रांति को अभी समझे नहीं हैं। किसान और आदिवासी के साथ वे तादात्म्य नहीं बिठा पाए हैं। माओवादियों की हरकतों और लेखन को देखकर नहीं लगता कि वे सही ढ़ंग से आदिवासियों और किसानों का मनोविज्ञान समझ पाए हैं। उन्हें आदिवासियों-किसानों की समस्या और चेतना का वास्तविक ज्ञान नहीं है।
    स्वामी सहजानंद सरस्वती  ने किसानचेतना के जिस पिछड़े पहलू की चर्चा की थी,उस पर जरा गौर करें । मसलन् ‘‘गाय-भैंसों को लीजिए। यदि उन्हें खूब दाना, घास, खल्ली, भूसा न खिलाइए,   पानी न पिलाइए, फिर भी दुहने का बर्तन लेकर जाइए तो क्या होगा ? दूध मिलेगा ? वे दुहने देंगी ? दूध तो नहीं, उसकी जगह उनकी लत्ती (लात की चोट) मिलेगी और बर्तन भी फूटेगा। यदि थोड़ा-बहुत उसमें दूध रहा तो वह भी जाएगा। इतना ही नहीं। उन्हें खूब खिला-पिला कर रखिये। मगर रात में उनके बैठने-लोटने की जगह ठीक न हो, उसमें कीचड़ और पानी हो तो क्या होगा? अगर यह भी ठीक हो, मगर मच्छरों ने रात-भर काट खाया और आपने उनसे बचने का कोई यत्न नहीं किया, तो भी क्या वे दूध देंगी ? वही उछलकूद और वही लात दूध की जगह। अगर आपने यह सब भी किया। मगर दूहने के पहले एक लाठी कसके जमा दी तो? ऐसी दशा में दूध की आशा आप कर ही नहीं सकते। आपको उनकी सींगों की चोट का सामना करना और जख्मी होना भले ही पड़े।’’

    ‘‘मगर किसान को तो जरा देखिए। खाने बिना मर रहा है। तन पर न मांस है,   न चमड़ा। हड्डियाँ भी नहीं हैं। मालूम होता है कमाते-कमाते घिस गईं। जठरानल ने,   प्रचण्ड क्षुधा ज्वाला ने सबको जला दिया है। फिर भी लगान दिए चला जा रहा है,   चौकीदारी समय पर अदा करता ही है, साहूजी का पावना सूद दर सूद के साथ एक का दस पैसे-पैसे चुकता करता ही है। वह तो सरकार की, जमींदार की और साहूकार की दुनिया की, कामधेनु है। वही घी, दूध, गेहूँ, चावल सबके लिए मुहय्या करता है। मगर कभी इस कामधेनु की चिन्ता सरकार ने, जमींदार ने, या दुनिया ने, मतवाली और अन्‍धी दुनिया ने,  की है, कि क्या खाया-पिया इसने, या कतई खाया-पिया भी कि नहीं?

    ‘‘फिक्र करें भी क्यों, जब इस कामधेनु को खुद इसकी,  अपने खाने-पीने की परवाह नहीं? जब कि यह बिना खाये-पिये ही दूध देने को बराबर तैयार है, तो कौन नादान इसकी परवाह करे और इसे खिलाये-पिलाये। यदि ये शोषक,  ये जमींदार वगैरह,  कभी पूछने तक नहीं आया तुमने खाया-पिया भी है या क्या खाया है, तो इसमें उनका दोष ही क्या? इतना ही नहीं इसे खूब पीटते और मारते-मारते दम निकाल लेते हैं,  जैसा कि बराबर ही होता है,  और जेल में भी डाल देते हैं। फिर भी यह तो ऐसी बेहूदी कामधेनु है कि पूरा दूध दिये चली जाती है। नहीं-नहीं, पीटने से और पीटने के डर से तो और भी देती है। फिर वे क्यों न मौज करें और इसकी परवाह क्यों न छोड़ दें? वह इसके जैसे नादान और नालायक-पागल थोड़े ही हैं कि इस बला में फँसें। उनने तो अच्छा बेवकूफ फाँसा है।’’

    ‘‘एक बात और। जब फसल खेतों में लगती है, तैयार होकर खलिहान में जमा की जाती है, या घर लायी जाती है तो चूहे, पक्षी, कीड़े-मकोड़े और राह चलते या चोर वगैरह उसे जरूर ही खाते हैं। आप हजारों कोशिश करें। मगर उन्हें रोक नहीं सकते। वह अपना हिस्सा ले ही जाते हैं। यही नहीं कि केवल पेट-भर लेते हैं। आगे के लिए जमा भी करते हैं। चूहों की तो खास बात है जमा करने की। ताकि जब फसल के दिन न हों तब खाएँ-पिएँ। ऐसा क्यों होता है। क्यों चूहे और दूसरे जानवरों को रोका नहीं जा सकता? क्यों घूमने-फिरने वाले जानवर भी खा जाते हैं? इसीलिए न कि वह खेत के मालिक से, किसान से पूछने नहीं जाते, आज्ञा लेने नहीं जाते कि खाएँ? वे आरजू-मिन्नत भी नहीं करते कि दया करके खाने दीजिए। वे कोई भी नियम-कानून या अपना-पराया वाला सवाल नहीं जानते। वह तो एक ही मन्‍त्र और एक ही सिद्धान्त जानते हैं कि पेट भर लो। जो सामने आए वही हमारा है। उदर में रख लो और उसी में से आगे के लिए भी प्रबन्ध कर लो। अगर वे पूछने जाते या आरजू करते तो क्या कोई खेत वाला उन्हें खाने देता। वे खाने में आगा-पीछा करते, मेरा हक है या नहीं,   यह मेरा है या और का आदि बातें भी यदि सोचते तो भी भूखे ही मरते। क्योंकि इतने ही में खेतिहर आकर रोक देता। इसलिए पेट के सवाल में वे उसे जैसे हो भर लेने के अलावे कुछ भी नहीं जानते। इसलिए मौज भी करते हैं।’’

    ‘‘मगर किसान? इसे तो हजार फिक्र पड़ी है। यह तो लाख बार आगा-पीछा करता है। सामने आया घी, दूध और गेहूँ, चावल पेट में रखने के बजाय जमा करता है कि मालिक को देना है, साहूकार को देना है। मेरा हक नहीं है कि खाऊँ, यही मानता है। कानून और व्यवस्था के वाहियात पचड़े में पड़ जाता है। सैकड़ों तरह के खयाल और भय उसकी हाथ-मुँह और उसकी जबान रोक देते हैं। वह जमा करने में लग जाता है। फलत: जैसे मधुमक्षिका की जमा की हुई शहद गैरों के हाथ लगती है, न कि उसके या उसके बाल-बच्चों के; ठीक वही हालत किसान की भी होती है। पैदा करता और जमा करता है वह। खाते हैं दूसरे लोग। अगर चूहों और पशु-पक्षियों से भी खाने-पीने की यह अक्ल वह सीख लेता तो उसकी यह दुर्दशा नहीं होती। उसका उद्धार हो जाता।

    जो खाने-पीने के सामान स्वयं किसान पैदा करता है उसे ही मुफ्तखोर जमींदार,   धनी और अधिकारी वर्ग खाते हैं। उनके लिए कहीं आसमान से कोई दूसरी चीज नहीं आती और न दूसरा कोई उनके लिए ये वस्तुएँ पैदा ही करता है। ताज्जुब है कि हजार इच्छा और प्रचण्ड भूख के रहते हुए भी ये नालायक किसान उनके लिए रख छोड़ता है उनके पास पहुँचाता है और खुद परिवार के साथ भूखों मरता है। यदि कहा जाए कि गंगा की धारा में एक प्यासा हुआ आदमी है, तो लोग आश्चर्य करेंगे। बात पर विश्वास न करेंगे। मगर अपार दूध, घी और गेहूँ, चावल पैदा करने वाले किसान का भूखों मरना और क्या है यदि गंगा के बीच प्यासे मरना नहीं है? घास खाने वाले जानवर के बच्चे के सामने घास रख दीजिए और उस जानवर को कहीं भूखा छोड़ दीजिए। आप देखेंगे कि अपने बच्चे के सामने की सब घास खा जाएगा और यह परवाह कतई न करेगा कि बच्चा भूखा है, वह बच्चा जिसकी रक्षा के लिए वह परेशान रहता और बड़े प्रेम से जिसे चाटता है। जिसे अपना दूध पिलाता है और शत्रुओं के आक्रमण से बचाता है। उसकी यह हरकत यदि किसान को इतना भी सिखा सकती कि अपने भूखे रह के गैरों के पेट भरने की कोशिश ठीक नहीं तो उसका निस्तार हो जाता। अपना पेट भर लेना सबसे प्रधान और पहला काम है। अगर वह इतना ही समझ जाता तो उसका कल्याण हो जाता। दुनिया में अनायास ही क्रान्ति हो जाती।’’

   











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