शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

सन् 1917 की अक्टूबर क्रांति के मौके पर - साधारण मनुष्य की महानता का महाख्यान

मैं निजी तौर पर जिस उमंग,उत्साह और वैचारिक गर्मजोशी के साथ दीपावली मनाता हूँ, दुर्गापूजा के सार्वजनिक समारोहों में शामिल होता हूँ। ठीक उसी उत्साह और उमंग के साथ मार्क्सवादियों और उदारमना लोगों के राजनीतिक -साहित्यिक जलसों में भी शामिल होता हूँ। मेरे अंदर जितना उत्साह होली को लेकर रहता है वही उत्साह 7 नबम्वर 1917 की अक्टूबर क्रांति को लेकर भी है।
     आनंद और क्रांति के बीच,मनोरंजन और क्रांति के बीच,जीवंतता और क्रांति के बीच गहरा संबंध है। आप जितने जीवंत होंगे।बृहत्तर सामाजिक सरोकारों में जितना व्यापक शिरकत करेंगे। उतना ही ज्यादा क्रांतिकारी परिवर्तनों को मदद करेंगे। जीवन में जितना रस लेंगे,आनंद लेंगे,आराम करेंगे उतने ही क्रांति के करीब होंगे।
     समाजवादी विचारों और सामाजिक क्रांति से हमारी दूरी बढ़ने का प्रधान कारण है सामाजिक जीवन और निजी जीवन से आनंद और सामाजिकता का उठ जाना। हम अब प्रायोजित आनंद में घिर गए हैं। स्वाभाविक आनंद को हम भूल ही गए हैं कि कैसे स्वाभाविक ढ़ंग से आनंद और रस की सृष्टि की जाए। जीवन का नशा गायब हो गया है। जीवन में जो स्वाभाविक नशा है उसकी जगह हर मेले ठेले में दारू की बोतल आ गयी है। बिना बोतल के हमारे समाज में लोगों को नशा ही नहीं आता,आनंद के लिए उन्हें नशे की बोतल की जरूरत पड़ती है।
    आनंद ,उत्सव, उमंग और जीवतंता के लिए दारू की बोतल का आना इस बात का संकेत है कि हमने प्रायोजित आनंद के सामने घुटने टेक दिए हैं। हमें देखना चाहिए विगत 60 सालों में भारत में दारू की खपत बढ़ी है या घटी है ? आंकड़े यही बताते हैं कि दारू की खपत बढ़ी है। इसका अर्थ है जीवन में स्वाभाविक आनंद घटा है। स्वाभाविक आनंद की बजाय प्रायोजित आनंद के सामने हमारा समर्पण इस बात का भी संकेत है कि हमें जश्न मनाने की तरकीब नहीं आती।
     हमने जन्म तो लिया लेकिन खुशी और आनंद का पाठ नहीं पढ़ा। आनंद से कैसे रहे हैं। इसके लिए वैद्य,हकीम,योगी,बाबा,नेता आदि के उपदेशों या उसके योग शिविरों में जाने की जरूरत नहीं है। हमारी आसपास की जिन्दगी और बृहत्तर सामाजिक दुनिया के प्यार में आनंद छिपा है।
    जीवन में आनंद का ह्रास तब होता है जब स्वयं से प्यार करना बंद कर देते हैं,दूसरों से प्यार करना बंद कर देते,स्वार्थवश प्यार करने  लगते हैं। मुझे सोवियत क्रांति इसलिए अच्छी लगती है कि उसने पहलीबार सारी दुनिया को वास्तव अर्थों में प्यार करने का पाठ पढ़ाया। सोवियतों के साथ प्यार करना सिखाया। मजदूरों -किसानों को महान बनाया ।शासक बनाया।
    सोवियत अक्टूबर क्रांति इसलिए अच्छी लगती है कि मानव सभ्यता के इतिहास में पहलीबार शासन अपने सिंहासन से उतरकर गरीब के घर पहुँचा था। गरीबों को उसने जीवन की वे तमाम चीजें दीं जिनका मानव सभ्यता सैंकड़ों सालों से इतजार कर रही थी।
   सारी दुनिया में एक से बढ़कर एक शासक हुए हैं। बड़े यशस्वी और प्रतापी राजा हुए हैं, बड़े दानी राजा हुए हैं। लेकिन सोवियत क्रांति के बाद जिस तरह की शासन व्यवस्था का उदय हुआ और सोवियतों के काम ने सोवियत संघ और सारी दुनिया को बगैर किसी युद्ध,दबाब और दहशत के जिस तरह प्रभावित किया वैसा इतिहास में देखने को नहीं मिलता।
    आज हमारे पास इंटरनेट है, सैटेलाइट टीवी है, रेडियो है, प्रेस है, हवाई जहाज हैं, दुनिया की शानदार उपभोक्ता वस्तुओं का संसार है। खाते पीते घरों में वस्तुओं का ढ़ेर लगा है। हम किसी भी चीज को आसानी से पा सकते हैं। बैंकों का समूह कर्ज देने के लिए हमारे दरवाजे पर खड़ा है। विचारों,सामाजिक सरोकारों और सामाजिक जिम्मेदारी के पैराडाइम से निकलकर हम वस्तुओं और भोग के महासमुद्र में डूबते-उतराते रहते हैं। आए दिन नामी-गिरामी लोगों को टीवी और मीडिया में देखते रहते हैं,उनके विचार सुनते रहते हैं, लेकिन हमें याद नहीं है कि इन नामी-गिरामी लोगों के विचारों का सारी दुनिया या भारतवर्ष पर कितना असर हो रहा है। आज मीडिया है उनके जयकारे हैं, वे मीडिया के भोंपू हैं ,और सुंदर-सुंदर एंकर से लेकर हीरोइनें हैं जिनके पासएक भी सहेजने लायक विचार नहीं है। ये लोग सबके मिलकर उपभोग का वातावरण बना रहे हैं। जिस व्यक्ति को हम मीडिया में रोज देखते और सुनते हैं उसके विचारों का कोई असर नहीं हो रहा।
   इसके विपरीत अक्टूबर क्रांति के समय न तो टीवी था, न रेडियो था, और न कोई खास प्रचार सामग्री थी वितरित करने लिए। इसके बावजूद सोवियत संघ और उसके बाहर सारी दुनिया में क्रांति के विचार की चिंगारी कैसे फैल गयी ?
     आज जो लोग हिन्दुत्व की हिमायत कर रहे हैं और मार्क्सवाद पर हमले कर रहे हैं, वे जरा जबाब दें कि हिन्दुत्व का विचार आधुनिक प्रचार माध्यमों के जोर जोर से नगाड़े बजाने के बाबजूद भारत में मात्र 20-22 प्रतिशत लोगों को प्रभावित कर पाया है। भारत में कम्युनिस्ट संख्या में कम हैं,उनके पास बड़े संसाधन नहीं हैं। मैनस्ट्रीम मीडिया आए दिन उन पर हमले करता रहता है। इसके बाबजूद सामाजिक और राजनीतिक जीवन में कम्युनिस्टों का प्रभाव बहुत ज्यादा है। कम्युनिस्टों की राजनीतिक साख है। समाजवाद की प्रतिष्ठा है। उनका दल छोटा है। महत्व बड़ा है।
      अक्टूबर क्रांति ने समाजवाद के विचार को महान बनाया। बगैर मीडिया समर्थन के समाजवाद के विचार को एकही झटके में सारी दुनिया में संप्रेषित कर दिया। दूसरा महान कार्य यह किया कि पहलीबार सारी दुनिया को यह विश्वास दिलाया कि वंचित लोग,शोषित लोग शासन में आ सकते हैं। 
   सोवियत क्रांति के पहले यही मिथ था कि सत्ता हमेशा ताकतवर लोगों के हाथ में रहेगी चाहे जैसी भी शासन व्यवस्था आए। तीसरा संदेश यह था शासकों और जनता में बगैर किसी भेदभाव और असमानता के जी सकते हैं। शासकों और जनता के बीच के महा-अंतराल को अक्टूबर क्रांति ने धराशायी कर दिया था।
       सात नबम्बर 1917 को सोवियत संघ में दुनिया की पहली समाजवादी क्रांति हुई। यह सामान्य सत्ता परिवर्तन नहीं था। यह महज एक देश का राजनीतिक मसला भी नहीं था। लेनिन,स्टालिन आदि मात्र एक देश के नेताभर नहीं थे। आज जिस तरह का घटिया प्रचार क्रांतिविरोधी ,समाजवाद विरोधी ताकतें और कारपोरेट मीडिया कर रहा है उसे देखकर यही लगता है कि अक्टूबर क्रांति कोई खूंखार और बर्बर सत्ता परिवर्तन था। एक शासक की जगह दूसरे शासक का सत्ता संभालना था। जी नहीं।
    अक्टूबर क्रांति विश्व मानवता के इतिहास की विरल और मूलगामी सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों को जन्म देनी वाली विश्व की महान घटना थी। कहने के लिए अक्टूबर क्रांति सोवियत संघ में हुई थी लेकिन इसने सारी दुनिया को प्रभावित किया था। हमें गंभीरता के साथ इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि ऐसा क्या हुआ इस क्रांति के साथ जिसने सारी दुनिया का राजनीतिक पैराडाइम ही बदल दिया।
   सारी दुनिया में सत्ताओं का परिवर्तन अमीरों के लिए खुशहाली लेकर आता रहा है,खजानों से शासकों के ऐशो आराम की चीजें खरीदी गयी हैं। लेकिन सोवियत संघ में एकदम विलक्षण मिसाल कायम की गई। ऐसी मिसाल मानव सभ्यता के इतिहास में नहीं मिलती। सोवियत खजाने से पहला भुगतान एक सामान्य घोड़े वाले को किया गया। 
संक्षेप में वाकया कुछ इस प्रकार है- फरवरी क्रांति के ठीक पहले 1917 में जार के जमाने में एक बूढ़े घोडेवाले के घोड़ों को युद्ध के कामों के लिए जारशासन ने जबर्दस्ती ले लिया था। उसे घोड़ों की अच्छी कीमत का वायदा किया गया था ,लेकिन समय बीतता गया और उस बूढ़े को अपने घोड़ों के पैसों का भुगतान नहीं हुआ। वह बूढ़ा पैत्रोग्राद आया और उसने अस्थायी सरकार के सभी दफ्तरों में चक्कर काटे। दफ्तर के बाबू उसे एक ऑफिस से दूसरे ऑफिस में टरकाते रहे , वह बेहद परेशान हो गया था। उसका सारा पैसा और धैर्य खत्म हो गया था। जार का शासन धराशायी हो गया लेकिन उसका कोई पैसा देने वाला नहीं था। इसी भागदौड़ में उस बूढ़े को किसी ने बताया कि तुम बोल्शेविकों से मिलो वे मजदूरों और किसानों की वे सारी चीजें लौटा रहे हैं जो जार के जमाने में जमीदारों और जार शासन ने छीन ली थीं। किसी ने यह भी कहा कि उसके लिए उसे सिर्फ लेनिन की एक चिट्ठी की जरूरत है। वह बूढ़ा किसी तरह लेनिन के पास पहुँच गया और सुबह होने के पहले ही उसने लेनिन को जगा दिया और उनसे चिट्ठी लेने में सफल हो गया। और सीधे वह चिट्ठी लेकर अलेक्सान्द्रा कोल्लोन्ताई के घर पर जा पहुँचा। दरवाजे पर पहुँचते ही उसने घंटी बजायी। कोल्लोन्ताई ने दरवाजा खोला और पूछा किससे मिलना है तो उसने कहा मुझे कोल्लोन्ताई से मिलना है, मैं उनके सबसे बड़े बोल्शेविक लेनिन की चिट्ठी देना चाहता हूँ। कोल्लान्ताई ने उसके हाथ चिट्टी लेकर देखी तो पाया कि वह सचमुच में लेनिन का पत्र था।  लिखा था- ‘‘ उसके घोड़े की कीमत का भुगतान सामाजिक सुरक्षा कोष से कर दीजिए।’’ कोल्लान्ताई ने उस बूढ़े से कहा चिट्ठी दे दो। उसने कहा ‘‘ पैसा मिल जाने पर ही मैं आपको यह चिट्टी दूंगा। तब तक मैं इसे अपने पास ही रखूंगा।’‘
   उल्लेखनीय है यह लेनिन की पहला सरकारी आदेश था। लेकिन उस समय मंत्रालयों में भयानक अराजकता छायी हुई थी,नौकरशाही असहयोग कर रही थी। खजाने में हंगामा और अराजकता का माहौल था। बोल्शेविकों का अभी तक सभी मंत्रालयों पर कब्जा हुआ नहीं हुआ था। उस समय कम्युनिस्टों के सामने समस्या थी कि मंत्रालयों पर जोर-जबर्दस्ती कब्जा करें या प्यार से ? नौकरशाही परेशान थी कि कम्युनिस्टों के शासन में उन सबकी नौकरियां चली जाएंगी। लेकिन लेनिन ने आदेश निकाला कि जो जहां जिस पद पर काम कर रहा है वह वहीं पर काम करता रहेगा। इससे मामला थोड़ा शांत हुआ लेकिन खजाने में अभी भी अशांति और अराजकता बनी हुई थी। खजाने के कर्मचारी, टाइपिस्ट, क्लर्क आदि खजाने का सामान लेकर भागे जा रहे थे,कोल्लान्ताई अपने साथ कुछ मजदूरों और तकनीकी जानकारों की एक टोली लेकर खजाने पर पहुँची और देखा कि लोग सामान लेकर भाग रहे हैं। खजाने की चाभियां नहीं मिल नहीं थीं, वे कहीं छिपा दी गयी थीं अथवा कोई उन्हें लेकर चला गया था,कुछ भी पता नहीं चल रहा था। अराजकता का आलम यह था कि बैंक के सारे कागज कर्मचारियों ने नष्ट कर दिए थे, बैंक के बाहर भीड़ लगी थी। यह भी परेशानी थी कि खजाने के ताले लगे रहेंगे तो अन्य विभागों का पैसे के बिना काम कैसे चलेगा। वह घोड़े वाला किसान कई दिन से लेनिन की चिट्ठी लिए घूम रहा था अपना भुगतान पाने के लिए वह रोज सुबह ही आ जाया करता था कि मेरा भुगतान कब होगा। दो दिनबाद तिजोरियों की कुंजियां हाथ लगीं और जब खजाना खुला तो उससे समाजवादी क्रांतिकारी शासन के द्वारा पहला भुगतान उस घोड़ों के मालिक बूढ़े किसान को किया गया। इस पहले भुगतान ने मानव सभ्यता के नए इतिहास का आरंभ किया। साधारण आदमी को महान बनाया और  सत्ता को उसका सच्चे अर्थ में सेवक बनाया।
           

4 टिप्‍पणियां:

  1. दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं...

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  2. एक दिन ऐसा भी लाएँ
    जब मेहनतकश खुश हों,
    दीवाली मनाएँ!!!
    मेहनत की जय जय हो
    लक्ष्मी श्रमोत्पन्ना
    कारा से बाहर हो
    अपने घर हो!!!

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  3. एक बोल्शेविक क्रान्ति का इंतज़ार भारत को भी हैं!

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  4. जब दुनिया हिल उठी थी...

    लेनिन के नेतृत्व में (भारतीय कैलेंडर के हिसाब से आज के ही दिन ०७ नवम्बर १९१७ को) रूस में महान 'सर्वहारा-क्रान्ति' (वोल्शेविक-क्रान्ति) सम्पन्न हुई थी जिसने आगे चलकर विश्व राजनीती की दिशा ही बदल दी...लेनिन व रूस की क्रांतिकारी जनता को लाल सलाम!

    भारत में 'सांस्कृतिक-क्रान्ति' के जनक आंबेडकर के साथ नाइंसाफी हुई है

    आप अंदाजा लगाईये कि जब पांच लाख लोगों ने एक साथ मिलकर एक ही दिन आंबेडकर के नेतृत्व में सड़ांध व घृणित 'ब्राह्मणवादी-सनातनी हिन्दू धर्म' को त्याग करने का ऐलान किया था...तब जाहिर है, उस समय भी भारत की धरती हिल गयी होगी. बहुत अफ़सोस होता है यह जानकार कि अन्य बुर्जुआ दलों कांग्रेस-लोहियावादी-समाजवादियों के साथ साथ कम्युनिष्टों ने भी इसे नजरंदाज करने की कोशिश की थी. बाद में कांग्रेस को जगजीवन राम के रूप में एक नया प्यादा मिल गया जिसे वह उत्तर-भारत में चेतनाविहीन दलितों-पिछड़ों को भरमाने में जबरदस्त इस्तेमाल किया और कथित 'ब्राह्मण-हरिजन-मुस्लिम गठजोड़' बनाकर 'ब्राह्मणवादी सनातनी' सामाजिक-व्यवस्था को ही आहिस्ता-आहिस्ता मजबूती प्रदान किया. कांग्रेस से सबक सीखते हुए ठीक यही प्रयोग उत्तर-प्रदेश में मायावती ने भी 'कुर्सी-जुगाड़ू' के लिए दोहराया. आज भाजपा को भी रामविलास पासवान, उदितराज, अठालवे जैसे कई प्यादे मिल गए है. मुलायम-लालू-शरद-नीतीश-देवेगौड़ा कभी-कभार संघी साम्प्रदायिकता के खिलाफ थोड़ा-बहुत दहाड़ते है पर 'ब्राह्मणवादी सनातनी हिन्दू धर्म को जोरदार ठोकर मारने की उनकी कोई मंशा नहीं दिखती है. लालू तो इन दिनों तांत्रिक-अघोड़ी के चक्कर में ही जा फंसा है. फिर आप किस सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनीतिक उथल-पुथल की बात करते हैं?

    राम सिंह मेमोरियल ट्रस्ट (रसमत )

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