एक ऐसे आमूलपरिवर्तनकारी (रेडिकल) आंदोलन की कल्पना कीजिए जिसे भारी पराजय का सामना करना पड़ा हो। इतनी करारी हार कि वास्तव में पूरे जीवनकाल में इसके दोबारा उठ खड़े होने की संभावना नहीं रह गई हो। समय बीतने के साथ इस आंदोलन की धारणाएं महज अप्रासंगिक लगने के बजाए कम गलत या अप्रभावी लगने लग सकती हैं। इसके विरोधियों के लिए इन सिध्दांतों का आक्रामक खंडन करना इतना बड़ा मसला नहीं रह गया हो, जितना इन पर किंचित उस पुरातत्वविषयक रुचि से विचार करना जिसे किसी ने टालेमी के ब्रह्मांड विज्ञान या थामस क्विन के वितंडावाद पर विचार करने के लिए सुरक्षित रखा हो। संभव है आमूलपरिवर्तनकारी (रैडिकल्स) अपना सफाया देखने के बजाए कम घबराए या कम तर्कहीन पाएं। वे ऐसी भाषा बोलते हुए पाए जाएं जो उनके युग की भाषा से मेल नहीं खाती हो। जैसा कि अफलातूनवाद (प्लेटोनिज्म) या प्रणय याचन की भाषा के साथ हुआ, जिसके बारे में अब कोई यह पूछने की जहमत नहीं उठाता कि यह सही है या नहीं। ऐसी गंभीर स्थिति के प्रति वामपंथियों की संभावित प्रतिक्रिया क्या होगी?
निस्संदेह इनमें से कई अपने पुराने विचारों को बचकाना आदर्शवाद मानकर पश्चाताप करते हुए या तो विद्वेषपूर्ण भाव से या निष्ठा के साथ दक्षिणपंथ की ओर मुड़ जाएंगे। अन्य आदतवश, चिंतावश या विरहवश, एक काल्पनिक पहचान से चिपके हुए अपनी विचारधारा से जुड़े रह सकते हैं और इसके साथ आने वाले मनस्ताप का जोखिम उठा सकते हैं। कुछ अतिआशावादी वामपंथी विजयोन्मादी युयुत्सा के अति मध्दिम स्फुरण में भी क्रांति की चिनगारी ढूंढ़ते रहेंगे। अन्य, रैडिकल आवेश उपस्थित रहने पर भी वे इसे अन्यत्र आव्रजन के लिए मजबूर करेंगे। कल्पना की जा सकती है कि इस युग की प्रचलित पूर्वकल्पना यह रही होगी कि कम से कम इस समय के लिए तंत्र अनतिक्रमणीय थी, और यह देखा जा सकता है कि वामपंथियों के कई निष्कर्ष इसी निराश पूर्वकल्पना से निकले हैं। उदाहरण के लिए कोई यह उम्मीद कर सकता है कि तंत्र के हाशिए तथा दरारों में, उन अस्पष्ट, अनिश्चित स्थानों में जहां इसकी शक्ति कम सुरक्षित प्रतीत होती हो, उनमें रुचि अत्यधिक बढ़ेगी। यदि व्यवस्था का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता, तो कम से कम उन शक्तियोंकी आशा तो की जा सकती है, जो कुछ क्षण के लिए ही सही, इसका उल्लंघन कर सके; इसे तोड़-मरोड़ सके; धोखा दे सके।
ऐसे में कोई यह पूर्वानुमान कर सकता है कि ऐसी स्थिति हाशिए पर बैठे लोगों के लिए जश्न की होगी। लेकिन यह तो आंशिक रूप से आवश्यकतावश स्थिति को महत्वपूर्ण बताना होगा क्योंकि वामपंथी स्वयं ही मुख्यधारा से अपमानित ढंग से विस्थापित हो गए होंगे और इस प्रकार से आसानी से केंद्रीयता की सारी बातों को संदेह की दृष्टि से देखेंगे। अपने सर्वाधिक अपरिष्कृत रूप में इस सीमांतवादी संस्कृति की एक सरल प्राक्कल्पना यह होगी कि अल्पसंख्यक सकारात्मक थे और बहुसंख्यक दमनकारी। फासीवादी समूहों, 'अल्स्टर' यूनियनवादियों या अंतर्राष्ट्रीय बुर्जुआ जैसे अल्पसंख्यक इस तसवीर में कैसे फिट होंगे, पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। न ही यह स्पष्ट है कि इस प्रकार की स्थिति 'ए एन सी' जैसे पूर्व के सीमांतवादी आंदोलन के राजनीतिक रूप से प्रभावशाली बनने के साथ कैसे समन्वय स्थापित कर सकती है, जबकि इसका रूढ़िवादी पूर्वग्रह यह है कि इस तरह का वर्चस्व अवांछनीय है। इस प्रकार के विचार का ऐतिहासिक आधार यह तथ्य होगा कि जो राजनीतिक आंदोलन कभी व्यापक, केंद्रीय तथा सृजनात्मक थे अब कुल मिलाकर सक्रिय नहीं रहे। सचमुच एक आंदोलन का प्रत्यय जो कभी केंद्रीय और विध्वंसक था अब पदों का विरोधाभास प्रतीत होगा। अत: व्यापक, प्रभुत्वशाली और सहमतिजन्य की भर्त्सना करना और इनसे व्यतिक्रम के लिए जो कुछ हुआ उसे रूमानी रंग देना स्वाभाविक प्रतीत होगा। इन सबसे अधिक यह उन युवा विद्रोहियों की अभिवृत्ति होगी जिनके पास राजनीतिक दृष्टि से स्मरण करने के लिए कुछ खास नहीं था; जिन्हें व्यापक रैडिकल आंदोलन की कोई वास्तविक स्मृति या अनुभव नहीं थे लेकिन जिन्होंने दुखद दमनकारी बहुलताओं का अत्यधिक अनुभव किया था।
यदि ऐसा प्रतीत हो कि तंत्र ने अपने विरुध्द सारे विरोध खारिज कर दिए हैं तो इससे यह अस्पष्ट अराजकतावादी धारणा बना लेना कठिन नहीं होगा कि तंत्र दमनकारी है। आकर्षक राजनीतिक तंत्र के रूप में अन्य किसी विकल्प की अनुपस्थिति में यह दावा स्पष्ट रूप से युक्तिसंगत प्रतीत होगा। तंत्र की वास्तविक आलोचना इसके बाहर रहकर ही की जा सकती है अत: ऐसे समय में 'अन्यत्व' के प्रति अतिविश्वास की आशा की जा सकती है। 'आर्दवाक' से लेकर 'अल्फासेंचुरी' तक उन सारी चीजों में अत्यधिक रुचि ली जाएगी जो बाहरी, विसामान्य, अन्यस्थानिक और समाविष्ट नहीं होने वाली हैं। तंत्र के तर्क से परे कोई भी चीज जो हमारे सामने लुभावना दृश्य उपस्थित करता हो, उसके प्रति आसक्ति होगी। लेकिन बड़ी विचित्र बात है कि यह रूमानी अति-वामवाद भंगुर निराशावाद के साथ-साथ रहेगा। क्योंकि सचाई यह है कि यदि तंत्र सर्वशक्तिमान है तो परिभाषानुसार इसके बाहर कुछ भी नहीं, जैसे कि ब्रंह्मांड के अनंत विस्तार के बाहर कुछ भी नहीं है। यदि इस तंत्र के बाहर कुछ होगा भी तो वह ज्ञान की सीमा से बिलकुल परे होगा और इस प्रकार हमें बचाने में अयोग्य। लेकिन यदि हम इसे तंत्र के भीतर केंद्र में ला सकें ताकि यह प्रभावशाली ढंगसे अपने पैर जमा सके तो इसका 'अन्यत्व' तुरंत संदूषित हो जाएगा और इस प्रकार इसकी विध्वंसक शक्ति क्षीण हो जाएगी। अत: सैध्दांतिक रूप से इस तंत्र को नकारने वाली चीजें, व्यावहारिक रूप में ऐसा नहीं कर पाएंगी। हम जो कुछ समझ सकते हैं परिभाषानुसार वह रैडिकल नहीं हो सकता क्योंकि यह व्यवस्था के भीतर ही होगा; लेकिन जो कुछ भी व्यवस्था के दायरे से बाहर होगा, उसके बारे में हमें सिर्फ रहस्यमय फुसफुसाहट ही सुनाई देगी।
इस प्रकार के विचार ने एक ऐसे तंत्र की पूरी अवधारणा का ही त्याग कर दिया है जो आंतरिक रूप से विरोधाभासी है, जिसने अपने केंद्र में उसे स्थापित कर लिया है जो संभवतया उसका विनाश कर सकता है। बल्कि, यह तंत्र के 'भीतर' या 'बाहर' की दो सख्त विरोधी विकल्पों के रूप में सोचती है। जहां तंत्र के भीतर होने का अर्थ है सह अपराधिता और बाहर होने का मतलब है लाचार, नपुंसक हो जाना। इस युग की इस विशिष्ट विचार शैली को 'स्वच्छंदतावादी' निराशावाद कहा जा सकता है। स्वच्छंदतावादी, क्योंकि किसी ने हमारे पास जो है उससे बिलकुल अलग किसी चीज का ख्वाब देखना नहीं छोड़ा होगा और निराशावादी क्योंकि कानून और सत्ता के सर्वशक्तिमान होने के प्रति इनसान इतना अधिक सजग होगा कि वह शायद ही सोच सकता है कि उसके ख्वाब कभी पूरे होंगे। यदि इसके बाद भी कोई विध्वंस में विश्वास करता है लेकिन इसे करने वाले हाड़ मांस के इनसानों की उपस्थिति में नहीं तो यह कल्पना करना संभव है कि व्यवस्था ने किसी प्रकार स्वयं ही अपने को विनष्ट कर लिया; अपने ही तर्क को विरचित कर लिया, जो कि तब आपको कतिपय आमूलपरिवर्तनवाद के साथ कतिपय संदेहवाद की भी अनुमति देगा।
यदि तंत्र स्वयं सर्वशक्तिमान ईश्वर के समान हर जगह मौजूद है तो ऐसा प्रतीत होगा कि यह किसी स्थान विशेष पर द्रष्टव्य नहीं है और इसलिए यह मानना संभव हो जाएगा कि वहां जो कुछ भी मौजूद है, वह तंत्र तो बिलकुल ही नहीं, जो कि काफी विरोधाभासी है। तंत्र इतना जटिल है कि इसे दरशाया नहीं जा सकता, यह दावा करना इस घोषणा से थोड़ा ही अलग है कि तंत्र मौजूद नहीं है। जिस समय की हम कल्पना कर रहे हैं उसमें निस्संदेह कुछ लोग एक वास्तविक सामाजिक समग्रता की तानाशाही के विरुध्द शोर मचाते पाए जाएंगे, जबकि अन्य समग्रता के संपूर्ण प्रत्यय की विरंचना करने तथा यह दावा करने में व्यस्त होंगे कि यह प्रत्यय केवल हमारे दिमागों में है। इसे कम से कम आंशिक रूप में, सैध्दांतिक तौर पर इस तथ्य की क्षतिपूर्ति मानने में कठिनाई नहीं होगी कि सामाजिक समग्रता को व्यवहार में लाना कठिन साबित हो रहा था। यदि वर्तमान में कोई अतिमहत्वाकांक्षी राजनीतिक कार्रवाई संभव नहीं प्रतीत हो; यदि तथाकथित सूक्ष्म राजनीति ही समय की मांग प्रतीत हो तो इस आवश्यकता को गुण में तब्दील करना, अपने आपको यह सांत्वना देना कि किसी भी व्यक्ति की राजनीतिक सीमाओं का यथार्थ में, इस तथ्य में एक निरपेक्ष आधार होता है कि सामाजिक 'समग्रता' हर हाल में एक भ्रम है ('पराभौतिक' भ्रम आपकी स्थिति को अपेक्षाकृत भव्य बनाने के बजाए मजबूत बनाता है)। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि संपूर्ण परिवर्तन के लिए राजनीतिक अभिकर्ता है या नहीं क्योंकि वास्तव में संपूर्णपरिवर्तन जैसी कोई चीज ही नहीं है। यह मानो किसी व्यक्ति द्वारा चाकू को ब्रेड पर चलाने के बजाए कहीं और चलाकर यह घोषणा करने के समान है कि ब्रेड पहले से ही कटा हुआ है। लेकिन समग्रता भी भ्रम प्रतीत हो सकती है क्योंकि कोई स्पष्ट राजनीतिक अभिकर्ता नहीं होगा जिसके लिए समाज खुद को समग्रता के रूप में प्रस्तुत करे। फिर वे लोग हैं जिन्हें यह समझने की आवश्यकता है कि स्वतंत्र होने के लिए वे इसके साथ कैसे जुड़े हैं और जो यह पाते हैं कि वे यह तभी कर सकते हैं जब वे उस पूरी संरचना के थोड़े भाग को समझें जिससे उनकी वर्तमान स्थिति संबंधित है। यहां स्थानीय और वैश्विक दो सरल विरोधी खेमे या सैध्दांतिक विकल्प नहीं है जैसा कि वे उन बुध्दिजीवियों के लिए हो सकते हैं, जो बड़ा सोचने को तरजीह देते हैं तथा उन अधिक विनम्र शिक्षाविदों के लिए जो इसे ठोस सच के करीब रखना चाहते हैं। लेकिन यदि उन पारंपरिक राजनीतिक अभिकर्ताओं में से कुछ कठिनाई में हैं तो सामाजिक समग्रता की अवधारणा भी कठिनाई में होगी क्योंकि इन्हीं अभिकर्ताओं की इसकी आवश्यकता इसे इसकी शक्ति देती है। (क्रमशः)
( इतिहास के पक्ष में, साभार, प्रकाशक- ग्रंथ शिल्पी,नई दिल्ली )
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