बिहार विधानसभा के चुनाव परिणाम आ चुके हैं। इन परिणामों का भारत की भावी राजनीति के लिए बड़ा महत्व है। इन परिणामों ने पश्चिम बंगाल के वामनेताओं की बेचैनी बढ़ा दी है। बिहार में नीतीशकुमार की जीत का प्रधान कारण है शांतिपूर्ण ढ़ंग से चुनावों का होना। पश्चिम बंगाल में भी यदि हिंसारहित चुनाव होते हैं तो वाम मोर्चे का आगामी विधानसभा चुनाव जीतना असंभव है। वामनेता इस बात से परेशान हैं कि हिन्दीभाषी उनके साथ नहीं हैं। यहां रहने वाले हिन्दीभाषी अमूमन बिहार और यू.पी. की राजनीति से सीधे प्रभावित होते हैं। मौजूदा रूझान वाममोर्चे के लिए खतरे की सूचना हैं।
क्योंकि बिहार में सभी रंगत के वामदलों की चुनावी एकजुटता असरहीन साबित हुई है। एक अन्य संदेश यह है कि ममता बनर्जी के कद को राहुल गांधी-सोनिया गांधी के जरिए छोटा नहीं किया जा सकता। राहुल-सोनिया का जादू खत्म हो चुका है।
बिहार के मुस्लिंम मतदाता केन्द्र सरकार के मुसलमानों के विकास के लिए कई हजार करोड़ रूपयों के अनेक विकास कार्यक्रमों से एकदम प्रभावित नहीं हुए हैं। यह माना जा रहा है कि पश्चिम बंगाल में मुसलमानों के लिए नौकरियों में आरक्षण करके वाममोर्चा मुसलमानों का दिल जीतने का जो सपना देख रहा है वह शायद पूरा न हो। मुसलमानों के लिए विशेष आर्थिक पैकेज का कोई लाभ कांग्रेस को बिहार में नहीं मिला है। मुसलमान अभी भी कांग्रेस से नाराज हैं। मुसलमान जिन कारणों से कांग्रेस से नाराज हैं वे पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे के साथ जुड़े हैं। अतः यहां ममता के साथ मुसलमानों की सहानुभूति को वामदल तोड़ नहीं पाएंगे।
बिहार के मुस्लिम बहुल इलाकों में 49 सीटें हैं इनमें से 36 पर भाजपा-जदयू का जीतना बड़ी उपलब्धि है। इनमें ज्यादातर सीटें भाजपा को मिली हैं।अब भाजपा मुसलमानों के लिए अछूत पार्टी नहीं है। मुसलमानों में बाबरी मसजिद मसले का कोई महत्व नहीं रह गया है।
नीतीश सरकार की नक्सलों के प्रति सहानुभूति रही है इसका उन्हें फायदा मिला है। नक्सल प्रभावित इलाकों में 56 में से सत्तारूढ़ मोर्चे को 41 सीटें मिली हैं।इसबार नक्सलों ने वहां चुनाव बहिष्कार का नारा नहीं दिया था। इसी तरह यादव बहुल 36 सीटों में से सत्तारूढ़ मोर्चे को 29सीटें मिली हैं। जबकि शहरी इलाकों की 42 सीटों में से 37 सीटें सत्तारूढ़ मोर्चा जीता है।
ममता बनर्जी और नीतीश कुमार में कई समानताएं हैं। पहली समानता यह है कि दोनों ने वोटर के मैदान में उन लोगों को बड़ी संख्या में उतारा है जो अभी तक वोट नहीं दे पाते थे। दूसरा साम्य पिछड़ेपन के विरोध को लेकर है। ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल के पिछड़ेपन को वैसे ही मुद्दा बनाया हुआ है जैसा नीतीश ने बिहार में बनाया है। यहां भाजपा की आंतरिक सहानुभूति ममता बनर्जी के साथ है और भाजपा के पक्ष में आम जनता के बढ़ते रूझान का पश्चिम बंगाल में वामविरोधी वोटों को एकजुट करने में निश्चित असर होगा। इन सब कारणों से वामनेताओं की बेचैनी बढ़ गयी है।
बिहार के इसबार के चुनाव को नए ढ़ंग से देखें तो बेहतर निष्कर्ष निकाल सकते हैं।यह राष्ट्रीय राजनीति में भावी परिवर्तनों का संकेत है। देश की राजनीति और भी ज्यादा दक्षिणपंथी शक्ल लेगी। मनमोहन सिंह खैरात में दक्षिणपंथ को सत्ता सौंपकर जाएंगे। जैसे पहले अटलजी को कांग्रेस सौंपकर गयी थी । तीसरा मोर्चा खत्म हो गया है उसके आधार पर कोई राजनीति संभव नहीं है। वाम को अपने एजेण्डे पर नए सिरे से सोचना होगा। वाम के एजेण्डे को जनता सुन नहीं रही है। राजनीति में दक्षिणपंथी दबाब और बढ़ेंगे। नव्य उदारतावाद की गति तेज होगी।
नीतीश कुमार की जीत को मीडिया अतिरंजित ढ़ंग से पढ़ रहा है। बिहार में अव्यवस्था और जातिवाद बने हुए हैं। अंतर यह है कि एनडीए ने जातीय समीकरण को प्रचार में छिपाया है विकास को सामने रखा है। भारत के जातीय समीकरण को नष्ट करना किसी के वश का काम नहीं है। विकास का नारा सत्तारूढ़ मोर्चे की मीडिया प्रबंधन कला की देन है। इसका जमीनी हकीकत से कम संबंध है। लेकिन एक अच्छी बात हुई है कि बिहार में चुनाव शांतिमय रहा और विकास के नाम पर हुआ।
विकास के नाम पर चुनाव होना और विकास होना दो अलग-अलग चीजें हैं। नीतीश कुमार की विकासपुरूष की इमेज का बिहार की जमीनी हकीकत से कम संबंध है। यह मीडिया प्रबंधन और प्रौपेगैण्डा की देन है। एक और सवाल उठा है क्या विकास के नाम पर विचारधारा के सवालों को दरकिनार कर दिया जाए ?नीतीश का मॉडल है विचारधाराहीन विकास का। यह किसका मॉडल है ? लोहिया-जयप्रकाश नारायण ने कभी विचारधाराहीन विकास की बातें नहीं की थीं।
विचारधाराहीन विकास का मॉडल वस्तुतः नव्य उदार आर्थिक नीतियों का मनमोहन मॉडल है। जिसे नीतीश एंड कंपनी विकास कह रहे हैं वह तो मनमोहन की लाइन है। जिसे इन दिनों सभी नव्य उदारपंथी बोल रहे हैं। नीतीश के मॉडल में मनमोहन मॉडल से भिन्न क्या है ? एक बड़ी भिन्नता है नीतीश कुमार धुर दक्षिणपंथी भाजपा के साथ मिलकर यह मॉडल लागू करने जा रहे हैं और इसमें किसानों की तबाही खूब होगी। उनकी जीत इस बात की गारंटी नहीं है कि किसान सुरक्षित रहेंगे। बिहार में जातिवाद प्रधान समस्या नहीं है। किसानों की बदहाली प्रधान समस्या है। देखना होगा बिहार में किसानों की बदहाली बढ़ती है या घटती है ? विचारधाराहीन विकास से किसान बचता नहीं है। आंध्र,महाराष्ट्र आदि इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
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