शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

मुक्तांचल की जंग है माओवाद

    अंग्रेजीमार्का बहुत सारे बुद्धिजीवी इन दिनों माओवाद पर फिदा हैं। वे बीच-बीच में आदिवासियों घूम आते हैं । प्रेस को फोटोसत्र के लिए बुला लेते हैं । चंद घंटों या चंद रोज की यात्रा के बाद बताते हैं कि माओवादी न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं। इन अंग्रेजीदा बुद्धिजीवियों की बांकी अदाओं पर बलिहारी मध्यवर्ग के युवाओं की बड़ी तादाद है।      
     मीडिया में वे कह रहे हैं माओवादी न्याय के लिए लड़ रहे हैं। हम कहना चाहते हैं न्याय के लिए वहां जंग होती है जहां अन्याय हो रहा हो। अन्याय वहां होता है जब  सरकार ने किसानों की जबर्दस्ती जमीन ली हो, उन्हें बेदखल किया हो। लेकिन जहां न किसी की जमीन ली गयी है और न किसी को बेदखल किया है, न किसी को मारा है न पीटा है,वहां पर न्याय की जंग के नाम पर खूनी खेल क्यों चल रहा है ? लालगढ़ ऐसा ही एक इलाका है।
    लालगढ़ में माओवादी किसके लिए लड़ रहे हैं और क्या वे सचमुच में आंदोलन कर रहे हैं ? लालगढ़ में माओवादी कोई आंदोलन नहीं चला रहे। वहां पर उनकी कोई मांगें नहीं हैं। इसके बावजूद यदि कोई यह कहे कि माओवादी न्याय के लिए लड़ रहे हैं तो सफेद झूठ बोलता है। माओवाद के नाम पर वे सिर्फ कत्ल कर रहे हैं,निर्दोष लोगों की हत्याएं कर रहे हैं।
    हत्या करना न्याय नहीं है। बल्कि अपराध है। हमें न्याय और अपराध में अंतर करना चाहिए। जहां वे लोकतांत्रिक ढ़ंग से संघर्ष कर रहे हैं वहां पर उनकी न्याय की जंग हो सकती है। लेकिन जहां पर वे अकारण हत्याएं कर रहे हैं वहां पर उनका खाता हत्या के अपराधियों के नाम से ही तैयार होगा।
      माओवादी हत्याएं करते हुए तर्क दे रहे हैं कि वे हत्या नहीं कर रहे बल्कि वर्ग उन्मूलन कर रहे हैं। शोषकवर्ग और उसके समर्थकों का सफाया कर रहे हैं। शारीरिक तौर पर मौत के घाट उतारने को वर्ग उन्मूलन नहीं कहते यह तो जनसंहार है जिसे किश्तों में संपन्न किया जा रहा है।
     माओवादी अच्छी तरह जानते हैं  उनके हिंसाचार से आदिवासियों और किसानों की जिन्दगी में खुशहाली आने वाली नहीं है। माओवादी जानते हैं बंदूक और बमों से क्रांतिकारी चेतना का निर्माण नहीं होता।
   बम और बंदूक से यदि क्रांति निकलती तो माफिया गिरोह आसानी से क्रांतिकारी  बन जाते । हत्याओं से सामाजिक वर्गों का उन्मूलन नहीं होता। जो लोग हिंसा और घृणा को प्रत्येक समस्या की रामबाण दवा मानते हैं उन्हें सोचना चाहिए कि क्या इससे उन्हें अपना अभीप्सित लक्ष्य प्राप्त करने में सफलता मिल सकती है ?
    माओवादी बताएं कि उनके हथियारबंद गिरोहों के लिए हथियार ,गोली-बारूद, बम, लैंडमाइन आदि के लिए पैसा कहां से आता है ? क्या हम मान लें कि उनके लिए गांव के गरीब किसान और आदिवासी पैसा देते हैं ? क्या यह संभव है जिन आदिवासियों-किसानों के पास स्वयं खाने को एक फूटी कौड़ी न हो वे माओवादियों को चंदे में मोटी रकम देते होंगे ? शहरों में माओवादी कहीं पर भी चंदा इकट्ठा करते नजर नहीं आते, तथाकथित बौद्धिकों की सभाओं में उन्हें कभी-कभार चंदा जरूर मिलता है । लेकिन उससे माओवादियों का विशाल नेटवर्क नहीं चल सकता।
    माओवादियों का मानना है वे जबरिया धन वसूलते नहीं हैं,किसी से फिरौती नहीं लेते। डाकेजनी नहीं करते। चौथ नहीं वसूलते। ऐसी स्थिति में तो यह सवाल और भी प्रासंगिक है कि उन्हें पैसा कहां से मिलता है ?
   माओवादियों के पास कई हजार हथियारबंद कैडर हैं जिन्हें मासिक भत्ता मिलता है, इसके अलावा उनके सैंकड़ों पूरावक्ती कार्यकर्त्ता हैं जो मासिक वेतन पर उनके लिए काम करते हैं। आखिर इस विशाल कैडर और गुरिल्लावाहिनी के लिए पैसा कहां से आता है ? क्या माओवादियों को विदेशों से पैसा आता है ? क्या भारत के कारपोरेट घराने उन्हें पैसा देते हैं ? क्या वे तस्करों के नेटवर्क की मदद से पैसा पाते हैं ? या फिर उन्हें भगवान पैसे देता है ?
     माओवादियों का संगठन शुद्ध विचारधारा के आधार पर नहीं चल रहा है। उसकी दौलत की गंगोत्री कहां है ? इसके बारे में गंभीरता के साथ पता किया जाना चाहिए। विभिन्न राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह बताएं माओवादी कहां से रसद प्राप्त कर रहे हैं ? कम से कम इतना तय है  माओवादियों को धन किसी पवित्र स्रोत से नहीं मिल रहा है।
      जो लोग यह कहते हैं कि लालगढ़ का आंदोलन न्यायपूर्ण आंदोलन है उन्हें माओवादी नेता किशन जी का ‘फ्रंटलाइन’ को दिया साक्षात्कार पढ़ना चाहिए,इस साक्षात्कार में किशनजी ने कहा है कि उनके संगठन का प्रधान लक्ष्य है पश्चिम बंगाल में लिबरेटेड क्षेत्र बनाना। पत्रिका ने पूछा कि पश्चिम बंगाल को लेकर क्या योजना है, किशनजी ने कहा  ‘‘Very simply, to establish a liberated area. We decided in 2007 that this [the Jangalmahal] would be a guerilla area. Since then we have progressed a lot, we have already reached out to more than half the population of the region and made it politically aware. I can tell you only so much. Our politburo does not allow us to divulge the tactical aspects of our programmes.’’ (Volume 26 - Issue 22 :: Oct. 24-Nov. 06, 2009)
यानी माओवादी पश्चिम बंगाल में न्याययुद्ध नहीं लड़ रहे बल्कि मुक्त क्षेत्र या गुरिल्लाक्षेत्र बनाने की जंग लड़ रहे हैं और उन्हें ममता बनर्जी समर्थन कर रही है।
    विभिन्न राजनीतिक दलों,केन्द्र और राज्य सरकारों से सवाल पूछा जाना चाहिए कि वे मुक्तक्षेत्र की धारणा के बारे में क्या सोचते हैं ? ममता बनर्जी,कांग्रेस, भाजपा, माकपा,भाकपा आदि सभी दलों को अपना स्टैंड साफ करना चाहिए कि वे मुक्तक्षेत्र की धारणा के बारे में क्या सोच रहे हैं ?
    उन तमाम बुद्धिजीवियों से भी सवाल है कि क्या वे भारत के संविधान के तहत गांवों को चलाना चाहते हैं या मुक्तक्षेत्र के नाम पर माओवादी अदालतों और अपराधियों के झंड़े तले शासन चलाना चाहते हैं ? संविधान और कानून का शासन होना चाहिए या मुक्तांचल का शासन होना चाहिए ?
     इस सवाल का जबाब अरूंधती राय,मेधा पाटेकर,महाश्वेता देवी आदि को भी देना चाहिए कि वे संविधान के तहत शासन चलाना चाहते हैं या मुक्तांचल का स्वयंभू माओवादी शासन चाहते हैं? यदि मुक्तांचल जरूरी है तो पहले हमारे इन प्यारे बुद्धिजीवियों को अपने डेरे शहरों से माओवाद प्रभावित गांवों में जल्दी से स्थानान्तरित कर देने चाहिए। संविधान,लोकतंत्र, और पूंजीवादी सुविधाओं और वातावरण का परित्याग करके जंगलमहल में चले जाना चाहिए। वे शहरों में घरों में रहते हैं लालगढ़ में वे जंगलमहल में रहेंगे तो उससे अनेक लोगों को लाभ होगा। किसानों -आदिवासियों को भी सांस्कृतिक बनाने का अवसर मिलेगा। कम से कम पहले चरण में इन अभिजात्य बुद्घिजीवियों से गांव के गरीबों को बहुत कुछ देश-देशान्तर के बारे में सीखने को मिलेगा।      








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