शनिवार, 27 नवंबर 2010

वी एस नायपॉल प्रसंगःफंडामेंटलिज्म के प्रतिवाद में

   वी एस नायपाल बड़े लेखक हैं । उन्हें बुकर पुरस्कार और नोबुल पुरस्कार भी मिल चुका है। उनके विचार अनेक धर्मनिरपेक्ष विचारकों और लेखकों को पसंद नहीं हैं। मैं भी उनके अनेक विचारों से असहमत हूँ। लेकिन हाल ही में यूरोपीय लेखक संसद से उनको बाहर कर दिए जाने के फैसले को स्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ।यह सीधे लेकक की स्वतंत्रता का हनन है।  उल्लेखनीय है यूरोपीय लेखक संसद का लाजा अधिवेशन तुर्की की राजधानी इस्ताम्बुल में चल रहा है। संसद के आयोजकों ने नायपाल को उदघाटन के लिए बुलाया था। लेकिन स्थानीय तुर्की लेखकों और धार्मिक प्रेस ने नायपाल के बुलाए जाने का विरोध किया और कहा कि उनकी मौजूदगी इस्लाम का अपमान है।
    सारी दुनिया जानती है नॉयपाल के इस्लाम के बारे में  क्या विचार हैं। वे इस्लाम की जितनी तीखी आलोचना करते हैं उतनी गहराई के साथ भारत के हिन्दुत्ववादियों और भाजपा के प्रेमी भी हैं। नॉयपाल उन चंद लेखकों में हैं जिन्होंने बाबरी मसजिद गिराए जाने का स्वागत किया था। तुर्की के धार्मिक प्रेस ने नॉयपाल को बुलाए जाने के खिलाफ विगत कई दिनों से हंगामा खड़ा किया हुआ है। उसके दबाब में आकर ही आयोजकों को उन्हें आने के लिए मना करना पड़ा।
   इस प्रसंग में कई सवाल उठते हैं पहला सवाल यह है कि क्या लेखक को अपने धर्म संबंधी विचार रखने का हक है ? क्या धर्म संबंधी विचारों के आधार पर या राजनीतिक विचारधारा विशेष के विचारों को मानने के कारण हमें लेखक का बहिष्कार करना चाहिए ? क्या साहित्य में धर्ममीमांसा संभव है ? आदि सवालों पर हमें गंभीरता के साथ सोचना चाहिए। लोकतंत्र में यह संभव है कि लेखक धर्म को न माने,धर्म की आलोचना करे। नास्तिक हो। लेकिन लोकतंत्र का रखवाला हो। लोकतंत्र का सारा दारोमदार वैचारिक मतभेद और सामाजिक भिन्नता पर टिका है।
    यूरोपीय लेखक संसद ने नॉयपाल के कार्यक्रम को रद्द करके लोकतंत्र की मर्यादा नष्ट की है। लोकतंत्र में अन्य की भी जगह है। इसी तरह साहित्यकार को धर्म संबंधी स्वतंत्र विचार रखने का मानवाधिकार है,इसके आधार पर उसका बहिष्कार करना या उसे अपमानित करना ठीक नहीं है। यह फंडामेंटलिज्म है।
     दुर्भाग्य की बात यह है कि यह घटना यूरोप में घटी है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इस्लामिक फंडामेंटलिज्म का किस तरह लोकतंत्र पर दबाब बढ़ रहा है। जाहिर है जब इस्लामिक फंडामेंटलिज्म के सामने लोकतंत्र के सिपहसालार सिर झुकाएंगे तो अन्य किस्म के फंडामेंटलिस्टों जैसे ईसाई फंडामेंटलिस्ट,हिन्दू फंडामेंटलिस्ट आदि के भी हौंसले बुलंद होंगे। वे भी लेखक या नेता की अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले बोलेंगे, बहिष्कार करेंगे। शारीरिक हमले करेंगे।
नॉयपाल की एवज में ब्रिटिश उपन्यासकार हरी कुंजरू को उदघाटन भाषण देने के लिए बुलाया गया और उन्होंने यूरोपीय लेखक संसद और तुर्की के फंडामेंटलिस्टों की अपने उदघाटन में जमकर आलोचना की और कहा कि नॉयपाल को आने से रोकना गलत है। उनकी अनुपस्थिति दुख की बात है। साथ ही उन्होंने कहा कि तुर्की के कानून से बदनाम धारा 301 को निकाल देना चाहिए। कुंजरू ने कहा कि नॉयपाल यहां होते तो हमारी साख बढ़ती,प्रामाणिकता भी बढ़ती। यह दुख की बात है कि आप किसी को इसलिए नहीं आने देगे क्योंकि उसके विचार आपको आक्रामक लगते हैं। इसके अलावा कुंजरू ने विस्तार के साथ तुर्की के अंदर अभिव्यक्ति की आजादी के हनन के अनेक प्रसंग भी उठाए और कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी के मामले में तुर्की क रिकॉर्ड खराब है। द गार्दियन ने लिखा है  ‘‘The writer also attacked Turkey's record on free speech, citing the cases brought against novelist Orhan Pamuk and editor Hrant Dink under article 301 of the country's penal code, which makes it illegal to insult Turkey, Turkish ethnicity or Turkish government institutions.
Kunzru told the assembled authors: "Pamuk faced trial for giving the following statement to a Swiss magazine: 'Thirty thousand Kurds have been killed here and a million Armenians. And almost nobody dares mention that. So I do.'" He added: "Dink, one of Turkey's most prominent Armenian voices was convicted under article 301 then murdered by a young nationalist, who was subsequently photographed in a police station surrounded by smiling officers, against the backdrop of the national flag. There are many other examples in Turkey of the weapons of offence and insult being used to silence dissent. Turkey is obviously not alone in this, but since we are here, it is important that we acknowledge it."
    बुनियादी समस्या यह है कि दुनिया के विभिन्न देशों में धार्मिक फंडामेंटलिस्ट ,पृथकतावादी ,साम्प्रदायिक आदि लोकतंत्र विरोधी संगठनों के द्वारा लेखकीय स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी पर आए दिन हमले बढ़ रहे हैं। इसके लिए ये संगठन बेसिर-पैर के बहानों को आधार बना रहे हैं। हमें लोकतंत्र के विकास और समृद्धि के लिए अभिव्यक्ति,विचार और लेखन की स्वतंत्रता पर बढ़ते हमलों के खिलाफ एकजुट होकर आवाज बुलंद करनी चाहिए। वरना लोकतंत्र विरोधी ताकतें लोकतंत्र को निगल जाएंगी।

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