हालांकि मनोविश्लेषक मनोविकृति विज्ञान का यह मानना है कि आचरण के उसके व्याख्याकारी सिध्दांतों के बीच ऐसे उपकरण हैं जिनसे आत्महत्या के कारणों का पता लगाया जा सकता है लेकिन अनुभवजन्य आंकड़ों या सत्यापित सिध्दांतों के निष्कर्षों के आधार पर वह कोई भी पक्की कारणवैज्ञानिक अवधारणा तय नहीं करना चाहता। जिलबुर्ग ने लिखा है : '...स्पष्ट है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आत्महत्या की समस्या आज भी अनसुलझी है। न तो सामान्य समझ और न नैदानिक और न मनोविकृति विज्ञान इसका कारण कार्यात्मक या अनुभवात्मक समाधान खोज पाया है।'
1918 में विएना में एक मनोविश्लेषक विचारगोष्ठी में सिगमंड फ्रायड ने चर्चा का सारांश इस प्रकार प्रस्तुत किया : 'इस चर्चा से बहुत मूल्यवान सामग्री मिली है, लेकिन हम किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाए हैं...हमें तब तक कोई मत तय करने से बचना चाहिए जब तक अनुभव इस समस्या का हल नहीं निकाल देता।' इसके बाद से फ्रायड, जिलबुर्ग, अब्राहम, मैनिंगर, ब्रिल और अन्यों सहित विशेषज्ञ और अत्यधिक प्रशिक्षित मनोविश्लेषकों ने आत्महत्या पर काम किया है।
यहां एक प्रणालीवैज्ञानिक बाधा का उल्लेख किया जाना चाहिए। इस समय इस बाधा पर पूरा नियंत्रण पा लेना असंभव है। जब तक आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की और लंबी मनोविकृति जांच (पूर्ण और प्रचुर जीवनवृत्त अभिलेख के साथ मनोविश्लेषण या नैदानिक अध्ययन द्वारा) नहीं कर ली जाती तब तक उसकी आत्महत्या की व्याख्या और वर्गीकरण उसके मरने के बाद उसके जीवनवृत्त का फिर से निर्माण मात्र कहा जाएगा। यह बहुत मुश्किल और अधिकांश मामलों में असंभव काम है। बहुत उत्साही मत संग्रहक या रवैया परीक्षक आत्महत्या संबंधी इंटरव्यू नहीं कर सकते और जनसंख्या के प्रतिनिधिक नमूनों का केवल इस पूर्वाभासी आधार पर अन्वेषण नहीं कर सकते कि नमूने में शामिल कुछ लोग आत्महत्या करेंगे।
इस बाधा पर कुछ हद तक मनोविश्लेषक मनोविकृति विज्ञानियों ने काबू पाया है जिन्होंने उन मरीजों के रिकार्ड की बात फिर से जांच की जिनका इलाज या जांच चल रही थी और जिन्होंने तब या बाद में आत्महत्या की, या उन मरीजों के रिकार्ड की जिन्होंने आत्महत्या का असफल प्रयास किया या जिन्होंने इलाज के दौरान इसका विचार बनाया। संस्थागत मामलों के निकट से अध्ययन द्वारा जिलबुर्ग ने इस समस्या से स्वयं को जोड़ा। अत: उसके निष्कर्षों को इस बारे में मनोविश्लेषक विकृति विज्ञान के निश्चयात्मक कथन का सूचक माना जा सकता है। उसका निष्कर्ष था कि आत्महत्या उन लोगों ने की जो अवसादक मनोविकृति, तंत्रिका रोग, खंडित मनस्कता से पीड़ित थे। अंतत: उसने यह निष्कर्ष निकाला 'जाहिर तौर पर मनोविकृति विज्ञान में ऐसी कोई नैदानिक हस्ती नहीं है जो आत्महत्या प्रवृत्ति से मुक्त हो।' जिलबुर्ग के अनुसार, 'आत्महत्या एक विकासात्मक स्वरूप की प्रतिक्रिया है जो सभी प्रकार के मानसिक रोगियों और संभवत: तथाकथित सामान्य व्यक्तियों में सभी जगह और आम तौर पर पाई जाती है।' उसका विचार है कि 'आगे मनोविश्लेषक अध्ययनों ... से आंकड़ों का सांख्यिकीय सरणियन किया जा सकेगा और आत्महत्या के चिकित्सीय प्रकार का पता लगाया जा सकेगा और उसका पुष्टीकरण किया जा सकेगा।'
लेकिन मनोविश्लेषक मनोविकृति विज्ञान के सिध्दांतों से हमें आत्महत्या से संबंधित रोग हेतु विज्ञानिक नियमों का पता चलता है। इस बारे में एक बुनियादी स्थापना यह है कि आत्महत्या प्रेरणा संबंधी मनोविश्लेषक खोजों को आत्महत्या की सामाजिक स्थितियों से जोड़ना इस विषय पर हमारे ज्ञान में प्रगति का सर्वाधिक फलदायक तरीका है। इस स्थापना से कई उपस्थापनाएं की जा सकती हैं।
इस तरह की स्थापनाओं तक पहुंचने के लिए हमें दार्शनिकों के उपदेशात्मक और अटकलबाजीपूर्ण विचारों से बचना होगा। विलियम जेम्स ने अपने निबंध 'इज लाइफ वर्थ लिडिंग?' में महत्वपूर्ण अस्तित्व की जो बात की है न तो वह और न ही अपने नैतिक प्रबंधों में आत्महत्या को नैतिक नियमों का उल्लंघन बताने वाले इम्मेनुअल कांट के विचार आधुनिक वैज्ञानिक आंकड़ों के अनुरूप हैं। मानव जीवन में आत्महत्या द्वारा तबाही को कम करने के लिए उसकी सचाई से नफरत करना काफी नहीं। आत्महत्या करने के व्यक्ति के अधिकार की पैरवी करने वाले डेविड ह्यूम और जीवनेच्छा के त्याग के साथ आत्महंता की संगति की बात करने वाले शॉपेनहॉर हमारी वैज्ञानिक जानकारी में वृध्दि नहीं करते हैं। मानवों को आत्महत्या करने का सामाजिक या दार्शनिक अधिकार है, इस घोषणा से हमें यह पता नहीं चलता कि वे आत्महत्या क्यों करते हैं। और जब तक हमें यह पता नहीं चलेगा कि वे ऐसा क्यों करते हैं तब तक चाहे हम जेम्स और कांट की तरह इसकी निंदा करते रहें या ह्यूम और शॉपेनहॉर की तरह उसकी पैरवी करते रहें हम उस पर नियंत्रण नहीं पा सकते।
मनोविश्लेषक मनोविकृति विज्ञान के नजरिए से कहा जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति में आत्महत्या की संभावना, खुद को मारने की प्रवृत्ति रहती है जिसकी तीव्रता अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग होती है। निश्चित रूप में इस तीव्रता को मनोमितिकों ने कभी नहीं मापा और इसे मापने में दिक्कत स्पष्ट रूप में बहुत ज्यादा है। इस संभावना की तीव्रता की मात्रा यह मत करो, दूध छुड़ाई, यौन शिक्षा, बच्चों में वैमनस्य, माता-पिता द्वारा अस्वीकृति या अतिस्वीकृति और पर-निर्भरता के रूप में पारिवारिक वातावरण के कारण व्यक्ति में भय, चिंता, कुंठा, प्रेम और नफरत द्वारा शैशवकाल और प्रारंभिक बचपन में ही तय हो जाती है। जिन मामलों में मां के अत्यधिक प्रेम, पिता द्वारा तिरस्कार, भाई-बहन द्वारा प्रेरित हीनता के कारण व्यक्ति समाज के रिवाजों और लोकप्रथा के अनुरूप वयस्क जीवन के लिए तैयार नहीं हो पाता, वहां व्यक्ति में आत्महत्या की संभावना अधिक हो सकती है। दूसरे छोर पर ऐसा व्यक्ति है जिसके पालन-पोषण ने बुनियादी मानसिक विन्यास को कार्य गतिविधियों या अन्य गतिविधियों की ओर मोड़ दिया है, वहां व्यक्ति में आत्महत्या की संभावना बहुत कम होती है। लेकिन यह संभावना कितनी भी कम हो वयस्क जीवन की तकलीफें, मुसीबतें और कष्ट उसे इतना बढ़ा सकते हैं कि आत्महत्या एक निश्चित संभावना बन जाती है। आत्महत्या अहं का प्रकटीकरण है हालांकि यह अहं का ही विध्वंस है। यह अहं को पहुंचाई गई पीड़ा है जो अपराध के लिए क्षतिपूर्ति या चिंता से राहत के नाते मुक्ति का एकमात्र रूप हो सकती है, 'आनंद के सिध्दांत से आगे' की बात।
इस प्रकार मनोभाव आचरण की सरल विशेषताएं नहीं हैं जिनकी तत्काल स्थिति के अनुसार व्याख्या की जा सके। इनका व्यक्ति के जीवनवृत्त से ताल्लुक होता है। विषाद, दु:ख या ऐसी ही अन्य कोई अवस्था जिसका वर्णन दुर्खीम ने सामाजिक कारणों के आधार पर आत्महत्या के रूपात्मक वर्गीकरण के समय किया है, आत्महत्या के क्षण की अवस्था नहीं है। व्यक्ति में उनका लंबा इतिहास होता है और उसे आत्महत्या की ओर ले जाने वाला कोई तत्काल उद्दीपक प्रतीत हो सकता है। लेकिन इस तरह के उद्दीपक की परिणति तब तक आत्महत्या में नहीं हो सकती है, जब तक कि इसमें कार्य करने वाला आचरण पैटर्न से ही मौजूद न हो। सभी मानव कुंठा और निग्रह, पापबोध और चिंता की प्रक्रिया से गुजरते हैं। अत: एक निश्चित भावनात्मक दबाव में परिणति आत्महत्या में हो सकती है। कुछ व्यक्ति इस मार्ग को चुनते हैं। इसलिए जो व्यक्ति इस मार्ग को नहीं चुनते हैं उनमें चल रही इस प्रक्रिया की दुर्बलता की तुलना में आत्महंतक लोगों में चल रही प्रक्रिया की सघनता की जांच जरूरी है।
आज मनोविश्लेषकों के बीच सर्वाधिक स्वीकार किया जाने वाला विचार यह है कि आत्महत्या अधिकांशत: 'विस्थापन' है अर्थात जिसने व्यक्ति को बाधित किया है उसे मारने की इच्छा का शिकार वह व्यक्ति स्वयं बन जाता है या तकनीकी रूप में इस बात को इस तरह कहा जा सकता है : आत्महंता इंट्रोजेक्टेड पात्र की हत्या करता है और पात्र को मारने की इच्छा से उत्पन्न पापबोध का प्रायश्चित करता है। अहं की संतुष्टि हो जाती है और पराहं आत्महत्या द्वारा प्रशमित होता है।
आत्महत्या में प्रकट सभी मनोभावों की व्याख्या व्यक्ति के जीवनवृत्त, विशेष रूप में परिवार के जरिए बुनियादी मनोविन्यास के प्रवाह के संदर्भ में की जा सकती है। इस प्रकार दुर्खीम जिसे असंभव समझते थे वह संभव हो सकता है अर्थात आत्महत्याओं को प्रेरणाओं के आधार पर और बकौल उनके रूपात्मक वर्गीकरण किया जा सकता है। आत्महत्या के मनोभाव साइकोजेनिक होते हैं और साथ ही एक पाश्र्विक होते हैं क्योंकि मनोभाव संरचना की आधारशिला शैशव और बचपन में ही रख दी जाती है। ऐसा कहा गया है कि व्यक्ति आचरण को निर्धारित ही नहीं बल्कि अत्यधिक निर्धारित माना जाना चाहिए क्योंकि प्रारंभिक वर्षों के दौरान भावात्मक जीवन की मूल संरचना पर नियंत्रण पाना अपेक्षाकृत कठिन है। यह मान्यता कि आचरण अति निर्धारित है एक ऐसी स्थिति का प्रमाण हो सकती है जहां बुध्दि उसे दूसरी दिशा में ले जा सकती है।
आत्महत्यात्मक आचरण वह आचरण है जिसे दूसरी दिशा में नहीं ले जाया गया है। पुराने मनो वैज्ञानिक जख्मों और कुंठाओं का फिर से उफान जीवन के मौजूदा और भावी अर्पण से भारी पड़ जाता है। लेकिन यह अन्वेषण जरूरी है कि यह उफान किस वजह से आता है। हां, अगर यह तर्क हो कि व्यक्ति के लिए जीवन में चाहे जितना कुछ हो उसकी आत्महत्या की संभावना इतनी प्रबल है कि उसे देर-सबेर कामयाबी मिलेगी ही तो इस तरह के अन्वेषण की जरूरत नहीं है। इस प्रकार मृत्यु संवेग को जीतने के लिए व्यक्ति के संघर्ष को परिवार और क्लास रूप के जरिए शैशवावस्था या बचपन में जीती गई या अंशत: अथवा पूर्णत: हारी गई लड़ाई के रूप में देखा जा सकता है; या जो क्लिनिक अथवा विश्लेषण कक्ष में फिर से लड़ी जाती है जिसकी परिणति एक नए गतिरोध अथवा विजय में होती है।
इस बिंदु पर पहुंचकर मनोविश्लेषक मनोविकृति विज्ञान इस मुद्दे को सामाजिक क्षेत्र में ले जाने में विफल हो जाता है। इस विफलता का बुनियादी कारण मनोविश्लेषण का थैरेपी अर्थात मानसिक बीमारी के इलाज को अधिक महत्व देना है। जाहिर है कि इस तरह की थैरेपी वैयक्तिक होती है जिसमें व्यक्ति को अपनी अवचेतन इच्छाओं और आकांक्षाओं को पहचानना पड़ता है और यह देखना पड़ता है कि वे किस तरह से कुंठित हुईं और किस तरह से उनका दमन हुआ और इसने व्यक्ति को कितना मनोवैज्ञानिक नुकसान पहुंचाया। विश्लेषण कक्ष में 'मुक्त साहचर्य' (कई बार यह काम क्लिनिक में भी संभव है जब गहराई से विश्लेषण जरूरी न हो) के जरिए इस पहचान से व्यक्ति को पता चलता है कि वह इस तरह से आचरण क्यों कर रहा है। इससे वह तंत्रिका रोग सघनता के दायरे में अपने आचरण को नए चैनलों में मोड़ पाता है।
इस प्रकार थैरेपी आवश्यक तौर पर वैयक्तिक होती है और व्यक्ति को अपने आचरण के प्रेरणा तत्व को इकट्ठा करके सामने रखना होता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि तंत्रिका रोग में सामाजिक तत्व कारण के रूप में मौजूद नहीं रहता। तथाकथित सामान्य व्यक्ति द्वारा की गई आत्महत्या में हमेशा गंभीर तंत्रिका रोगी तत्व मौजूद रहते हैं और उनका इलाज वैयक्तिक तत्व के रूप में ही किया जाना चाहिए लेकिन उसके कारण व्यक्ति के सामाजिक जीवनवृत्त में गहरे छिपे हो सकते हैं।
सामाजिक अनुसंधान के लिए बुनियादी समस्या व्यक्ति आत्महंतकों और इसके लिए प्रयास करने वालों के जीवनवृत्त को समाजविज्ञानिक चरों के साथ जोड़ना होना चाहिए और यह इस परिकल्पना के साथ कि निश्चित सामाजिक वातावरण आत्महत्या की संभावना को (1) प्रेरित कर सकता है या (2) कायम रख सकता है या (3) उसे बदतर किया जा सकता है। यदि हम आंकड़ों के आधार पर दिखा सकें कि कुछ सामाजिक परिस्थितियां आत्महत्या या आत्महत्या के प्रयास को प्रेरित करती हैं, कायम रखती हैं या बदतर बनाती हैं तो हम इनके घटित होने के बारे में सामान्य नियम बना सकते हैं।
दुर्खीम की दलील थी कि आत्महत्याओं में व्यक्ति व्यवहार के प्रकारों के बारे में निश्चित होकर ही हम सामाजिक तत्व के रूप में आत्महत्या का रोग हेतु विज्ञानिक विश्लेषण नहीं कर सकते। दुर्खीम में मनोविज्ञानिक निष्कर्षों के इस्तेमाल की अथक क्षमता थी और अब हम अच्छी तरह से समझ सकते हैं और उनके काम में इस तरह की मिसाल हैं कि वह अपने समाजविज्ञानिक विश्लेषण की मनोविश्लेषण के साथ संगति बिठाने का प्रयास करते थे।
नीचे आज अनुसंधान के लिए कुछ परिकल्पनाएं दी गई हैं। इन परिकल्पनाओं की आधारभूत बड़ी बुनियादी परिकल्पना यह है कि आत्महत्यात्मक आचरण सहज मनोवैज्ञानिक आवेग और सामाजिक प्रपात का योग है।
आंकड़े एकत्रित करने की समस्या : हमें समरूप नमूने प्राप्त करने की संभावना का पता लगाना चाहिए ताकि एक जैसी सामाजिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों की तुलना की जा सके। उनके बीच जो आत्महत्या करते हैं और जो नहीं करते हैं। यहां बहुत पेचीदा प्रणालीविज्ञानिक समस्या उभर कर सामने आती है और वह यह कि भावात्मक स्तर पर सामाजिक पृष्ठभूमि की क्या कोई पहचान है। जब तक हमारे पास सभी का सुलभ, सही और मेहनत के साथ दर्ज किया गया मनोविकृति संबंधी जीवनवृत्त नहीं होगा तब तक हम आत्महत्या के बारे में विश्वसनीय आंकड़े एकत्रित नहीं कर सकते। इसके लिए जीवनकाल के शुरू से ही व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करने वाले अंतरंग पारिवारिक जीवन को रिकार्ड करना जरूरी है।
परिवार के बारे में परिकल्पना : आत्महत्या का प्रयास करने वालों या आत्महत्या करने वालों का भावात्मक पैटर्न शैशव और प्रारंभिक बचपन में ही पारिवारिक संबंधों द्वारा निर्धारित हो जाता है। परिवार में समाजीकरण सभी के लिए कुंठा का स्रोत है। इसलिए आत्महत्या सब के लिए संभावित छुटकारा मार्ग है। आत्महत्या से जुड़े बाद के सामाजिक कारकों और प्रारंभिक भावात्मक बनावट के बीच संबंध खोजना जरूरी है।
इसके अलावा आत्महंतकों और आत्महत्या का प्रयास करने वालों के जीवनवृत्तों और उनके परिवार पालन-पोषण स्वरूप जैसे कि प्रजाति समूह, धार्मिक संबध्दता, आय समूह, परिवार आकार, परिवार में व्यक्ति आत्महंतक के स्थान, शिक्षा स्तर के बीच अंत:संबंध स्थापित करना जरूरी है।(क्रमशः)
बढ़िया विश्लेषण आत्महत्या का. दुर्खीम के संदर्भ में. समाजशास्त्र पर पहला लेख पढ़ा आपके द्वारा लिखा. इसी प्रकार सही दिशा में रहिये और लोगों को भी ले जाइये..
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