मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010

आलोचना का पराभव और नामवर सिंह-2-

    नामवर सिंह की ताजा चारों किताबें उनके मार्क्सवादी होने के मिथ को तोड़ती हैं। मिथ बनाना और तोड़ना यह उनकी सामान्य प्रकृति है। अपने कहे को सार्वजनिक तौर पर बदलना अथवा अस्वीकार करना, विचारों की रुढ़िबद्धता को तोड़ने का उनका उपयोगितावादी अस्त्र हैं। नामवर सिंह की इन किताबों की आलोचनादृष्टि की धुरी है तात्कालिक दबाब ,पितृसत्तात्मक नजरिया और सत्ता की जरूरतें।
       भूमिका में आशीष त्रिपाठी ने नामवर सिंह को उद्धृत करते हुए लिखा है , ‘‘एक बार मेरे पूछने पर उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘चाहे निबन्ध हो या पुस्तक,मुझे उसका प्रकाशन तब ही जरूरी लगता रहा है,जबकि वह मौजूदा परिदृश्य में हस्तक्षेप करे ,उसके ठहराव को तोड़े और वाद-विवाद-संवाद की प्रक्रिया को आगे बढ़ाए। मेरी ज्यादातर पुस्तकें अपने समय की बहसों में भागीदार होकर लिखी गयी हैं। इसीलिए संग्रह के लिए संग्रह निकालना मेरी प्राथमिकता नहीं रहा है।’’
      सवाल उठता है फिर ये किताबें क्यों लायी गयी हैं ? क्या ये किताबें संग्रह के लिए संग्रह नहीं हैं ? नामवर सिंह जिसे ‘हस्तक्षेप’ कहते हैं वह शीतयुद्धीय राजनीति का महामंत्र है। मौजूदा दौर ‘हस्तक्षेप’ का नहीं ‘लेखन’ का है और उसी का परिणाम हैं ये चार किताबें। ‘हस्तक्षेप’ से ‘लेखन’ के पैराडाइम में आना नामवर सिंह का कायाकल्प है। यह एक मार्क्सवादी का ‘कछुआ धर्म’ में रूपान्तरण है। यह मार्क्स के पंथ से देरिदा के पंथ में दाखिल होना है। नामवर सिंह के इन निबंधों के प्रकाशित होने से उनका पैराडाइम शिफ्ट हुआ है। वे अचानक ‘आलोचना’ से ‘विमर्श’ में चले आए हैं।
     नामवर सिंह की इन किताबों में मूलतः दो मॉडल हैं पहला साहित्यिक मॉडल कृति-व्यक्ति केन्द्रित है, दूसरा, अस्मिता मॉडल है,इसमें अस्मिता के उप-पाठ भी शामिल हैं। ये दोनों ही मॉडल उनकी इन चार किताबों में हैं। ये दोनों सत्ता विमर्श के साहित्यिक मॉडल हैं।       

     ये किताबें नामवर सिंह की पहले आयी किताबों जैसे - ‘छायावाद’,‘इतिहास और आलोचना’,‘कविता के नए प्रतिमान’,‘दूसरी परंपरा की खोज’, ‘वाद-विवाद-संवाद’ से बुनियादी तौर पर अलग हैं। ये चारों किताबें नामवर सिंह के विचारों के वैविध्य को सामने लाती हैं। इन किताबों में नामवर सिंह की शीतयुद्धीय धारणाओं का विध्वंस भी देखा जा सकता है।
        सवाल उठता है क्या नामवर सिंह के ये चार संकलन किसी नई बहस को जन्म देते हैं ? क्या इनके माध्यम से आलोचना में कोई नयी जान फूंकी जा सकती है ? क्या इन निबंधों से आलोचना का कोई नया वातावरण बनेगा ? जी नहीं। इन किताबों से नामवर सिंह के विचारों के बारे में और भी भ्रम पैदा होंगे, आलोचकों और लेखकों में सत्ता की शरण में जाने की मुहिम तेज होगी। आलोचना और भी नपुंसक बनेगी। अराजनीतिक बनेगी।
       नामवर सिंह की जो चार किताबें आई हैं वे हैं ‘कविता की जमीन और जमीन की कविता’,‘प्रेमचन्द और भारतीय समाज’, ‘हिन्दी का गद्यपर्व’ और ‘जमाने से दो-दो हाथ’। ये चारों किताबें मूलतः आलोचना को पुनःप्रतिष्ठित करने का असफल प्रयास है। इनमें ‘प्रेमचंद और भारतीय समाज’ कथा समीक्षा की महत्वपूर्ण किताब है। जबकि ‘जमाने से दो-दो हाथ’ उत्तर आधुनिक विषयों पर नामवर सिंह की अधूरी किताब है। इसमें नामवर सिंह वैचारिक रूप से चंचल नजर आते हैं। यही स्थिति ‘हिन्दी का गद्यपर्व’ नामक किताब की भी है इसमें नामवर सिंह के शीतयुद्धीय साहित्यिक नजरिए को देखा जा सकता है।  हिन्दी साहित्येतिहास को लेकर नामवरसिंह की विवादास्पद और कमजोर धारणाएं इसमें व्यक्त हुई हैं।
      ‘हिन्दी का गद्य पर्व’ में चार मार्क्सवादियों -जार्ज लूकाच,लुसिएँ गोल्डमान,रेमण्ड विलियम्स और लेनिन -पर नामवर सिंह के लेख सबसे कमजोर लेख हैं । चीजों को सरल बनाकर पेश करने के चक्कर में मार्क्सवादियों के विचारों की अपूर्ण इमेज प्रस्तुत की गई है। ‘लेनिन और हम’ निबंध में लेनिन को एकबार याद करने के बाद नामवर सिंह ने लेनिन को कभी दोबारा याद नहीं किया। हिन्दी के मार्क्सवादियों में रामविलास शर्मा ,राहुल सांकृत्यायन और शिवदान सिंह चौहान के उठाए कुछ ही मुद्दों पर उन्होंने लिखा है। बाकी मार्क्सवादियों को इस लायक भी नहीं समझा।
      कहने का आशय यह कि हिन्दी के मार्क्सवादियों और मार्क्सवाद पर उन्होंने न्यूनतम लिखा है। विदेशी मार्क्सवादियों पर भी न्यूनतम लिखा है। भारत के बाकी मार्क्सवादियों पर कुछ भी नहीं लिखा है। मार्क्सवादी साहित्यालोचना संबंधी धारणाओं पर कुछ भी नहीं लिखा है। सवाल किया जाना चाहिए कि नामवर सिंह ने मार्क्सवादी सिद्धान्तों और भारत के मार्क्सवादियों पर क्यों नहीं लिखा ? जबकि रामविलास शर्मा ने अपने तरीके से यह काम किया है।
    मार्क्सवादी सिद्धांत चर्चा से विश्व का कोई भी मार्क्सवादी नहीं भागा सिर्फ नामवर सिंह को छोड़कर। उल्लेखनीय है भारत में मार्क्सवादी सिद्धान्त चर्चा समाजविज्ञान, दर्शन और विज्ञान के भारतीय मार्क्सवादियों में खूब हुई है लेकिन नामवर सिंह इससे भागते रहे हैं।
     नामवर सिंह का मार्क्सवाद की मूल सिद्धान्त चर्चा से पलायन और उनका सारी जिंदगी मार्क्सवाद की बुनियादी बातों पर न बोलना और न लिखना किस बात का संकेत है ?
      सच्चाई यह है नामवर सिंह ने मार्क्सवाद पर सबसे ज्यादा पढ़ा है। सबसे बड़ा मार्क्सवादी किताबों का जखीरा उनके पास है। लेकिन मार्क्सवाद पर उन्होंने न्यूनतम लिखा है।
    नामवर सिंह का मार्क्सवादी सिद्धांत चर्चा से पलायन का प्रधान कारण है उनकी सामंती मनोवृत्तियां और सत्ताभक्ति।  नामवर सिंह तमाम अच्छाईयों और महानता के बावजूद अपने दिमाग की सामंती और सत्तापंथी संरचनाओं को तोड़ने में असमर्थ रहे हैं। सत्ता और सामंत उनके मार्क्सवाद पर भारी पड़े हैं। 
        मार्क्सवाद की सिद्धांत चर्चा किसी भी बुद्धिजीवी को इरेशनल वैचारिक संरचनाओं से लड़ने, पोजीशन लेने के लिए मजबूर करती है। नामवर सिंह के साथ यह प्रक्रिया जीवन और साहित्य में कभी घटित ही नहीं हुई।
     नामवर सिंह मार्क्सवाद की जटिल सिद्धान्त चर्चा में हस्तक्षेप करने के लिए कभी अपने को जाग्रत नहीं कर पाए ? नामवर सिंह के लिए मार्क्सवाद सुविधा की चीज है। मार्क्सवाद की बुनियादी सिद्धांत चर्चा में लिखित और वाचिक दोनों ही रूप में उनकी अनुपस्थिति हिन्दी में सत्ता,मार्क्सवाद और सामंतवाद के निकृष्टतम गठजोड़ की चरम अभिव्यक्ति है। उल्लेखनीय है मार्क्सवाद की सिद्धांत चर्चा पर रामविलास शर्मा,अमृतराय, शिवकुमार मिश्र,मैनेजर पांडेय आदि ने लिखा है लेकिन नामवर सिंह ने कुछ भी नहीं लिखा है।     
  इन चार किताबों में वाचिक और लिखित दो तरह के नामवर सिंह हैं। लिखित नामवर सिंह में हिन्दी समीक्षा के गद्य सौंदर्य के दर्शन होते हैं। जबकि वाचिक नामवर सिंह में जगह-जगह वैचारिक विचलन नजर आता है। कायदे से वाचिक और लिखित दोनों किस्म के नामवर सिंह में भेद करके पढ़ा जाना चाहिए। यह भेद व्यक्ति का ही नहीं मीडियम का भी है। नामवर सिंह आलोचक कम और साहित्य के प्रौपेगैण्डिस्ट या प्रचारक ज्यादा नजर आते हैं।


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