मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

फेसबुक के खतरे और राजनीति

   हिन्दी में इंटरनेट पर जो कुछ भी लिखा जा रहा है उसमें अनेक मजेदार बातें सामने आ रही हैं। इंटरनेट पर ब्लॉग से लेकर फेसबुक पर लिखने वालों में उदारवादी नजरिए को लोग ज्यादा उदार ढ़ंग से पेश आ रहे हैं जबकि अनुदार लोगों की आक्रामकता और अनुदारभाव बढ़ गया है।वे और भी ज्यादा कंजरवेटिव होते जा रहे हैं।
    मैं जब भी उदार नजरिए से जब भी साम्प्रदायिक समस्या पर रोशनी ड़ालने की कोशिश करता हूँ तो पाता हूँ कि हठात मेरे ब्लॉग का नियमित पाठक नाराज है और उसके अंदर से हिन्दुत्ववादी विचार आक्रामक रूप में बाहर आने शुरू हो जाते हैं।
     मैंने यह भी देखा है कि उदार नजरिए से मोहल्ला लाइव जैसे वेबसाइट पर जब भी कोई मूल्यांकन या आलोचनात्मक टीका-टिप्पणी हुई है तो उस पर भी अनुदारपंथी नजरिया ही खुलकर सामने आया है।
    हिन्दुत्ववादी अथवा अतिवामपंथी नजरिए के नेट यूजर,साइबर लेखक पूरी कोशिश करते हैं कि किसी भी तरह उदारवादी नजरिए के साथ राजनीतिक एकजुटता तैयार न होने दी जाए।
     कायदे से देखें तो ब्लॉगलेखक डिजिटल शरणार्थी हैं। इनके साथ अनुदार विचार विमर्श करना सही नहीं है। ब्लॉग पर चलने वाली राजनीतिक बहसों के बारे में अभी यही कहा जा सकता है कि यह शैशव अवस्था में है। हिन्दी-अंग्रेजी दोनों में चलने वाली राजनीतिक बहसें राजनीतिक दलों को स्पर्श नहीं करतीं। जमीनी हकीकत पर उनका न्यूनतम असर भी नहीं होता।
    वास्तविकता है कि साहित्य संबंधी ब्लॉग पर लोग तुलनात्मक तौर पर ज्यादा नहीं जाते। कभी-कभार जाते हैं। प्रतिक्रियावादी विषयों के ब्लॉगों पर भीड़ ज्यादा होती है अथवा अतिवामपंथी विचारों के ब्लॉगों पर भीड़ ज्यादा होती है। ऐसे भी खिचड़ी ब्लॉग हैं जिन पर पर भीड़ ज्यादा होती है जैसे भडास ब्लॉग।
    दूसरी ओर फिल्मी समीक्षा या मीडिया की खबरों के ब्लॉग पर ज्यादा लोग जाते हैं। तुलनात्मक तौर पर भाजपा की वेबसाइट पर कांग्रेस की वेबसाइट से ज्यादा ट्रैफिक है। हिन्दी ब्लॉगिंग में वामपंथियों की नगण्य उपस्थिति है।  
    ब्लॉगिंग का प्रेस के साथ आदान-प्रदान बढ़ा है। विभिन्न अखबारों ने अपने ब्लॉग बनाए हैं। साथ ही वे ब्लॉगों में से चुनकर लेख वगैरह प्रकाशित करते रहते हैं। लेकिन मीडिया को प्रभावित करने की क्षमता अभी तक ब्लॉग अर्जित नहीं कर पाए हैं। नीतियों को प्रभावित करने की क्षमता अभी पैदा नहीं कर पाए हैं। इसका प्रधान कारण है भारत के ज्यादातर बुद्धिजीवियों का डिजिटल लेखन से अलगाव। वे नेट पर नियमित लिखते ही नहीं हैं। यह बात दीगर है कि वे प्रिंट में भी नियमित नहीं लिखते।
    आज भी हिन्दी के अधिकांश लेखक-साहित्यकार-बुद्धिजीवी मीडिया लेखन को घटिया मानते हैं। पैसा कमाने का बुरा जरिया मानते हैं। वे एसएमएस तक खोलना नहीं जानते,ठीक से कभी ईमेल तक नहीं करते,इंटरनेट पर नियमित पढ़ना तो अभी बहुत दूर की बात है। जो इंटरनेट पर पढ़ता नहीं है वह लिखने में कितना पीछे होगा और जो इंटरनेट पर लिखता नहीं है वह डिजिटल मुद्दों पर विचार-विमर्श में कितना पीछे होगा इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। मैं कम से कम अपने मास्टर होने के नाते यह कह सकता हूँ कि ज्यादातर कॉलेज और विश्वविद्यालय शिक्षक इंटरनेट पर नहीं जाते,न वे लाइब्रेरी जाते हैं। वे किताब की दुकान पर किताब खरीदने भी नहीं जाते। वे सीधे नौकरी करते हैं। नोट्स बना लेते हैं और उससे ही सारी जिंदगी काम चलाते हैं। शिक्षकों के द्वारा किताबों की व्यक्तिगत खरीद एकदम जीरो है। इक्का-दुक्का प्रोफेसर किताबें खरीदते हैं। वे मानते हैं कि जब बिना पढ़े ही काम चल रहा है तो पढ़ने की क्या जरूरत है। जब बिना पढ़े ही पगार मिल रही है तो फिर पढ़ने के लिए क्यों प्रयास किया जाए।
    सामान्य स्थिति यह है कि भाजपा को छोड़कर किसी भी पार्टी ने वेब को विगत लोकसभा चुनाव में गंभीरता से नहीं लिया। ज्यादातर उम्मीदवारों और दलों ने इस पर कोई भी पैसा खर्च नहीं किया। इससे यह भी पता चलता है कि हमारे देश में संचारक्रांति का अभी क-ख-ग भी नहीं लिखा गया है। हिन्दी में वेबसाइट वालों के पास संसाधनों का अभाव है। विज्ञापन नहीं हैं.पैसे नहीं हैं।
  सोशल नेटवर्क के बारे में चूंकि अभी राजनीतिक सचेतनता नहीं है इसलिए राजनीतिक दिक्कतें भी कम हैं ,लेकिन अमेरिका में राजनीतिज्ञों की दिक्कतें ज्यादा है। वे वेब के जरिए धन संग्रह करने पर जोर दे रहे हैं और बड़े पैमाने पर धन एकत्रित भी कर रहे हैं। वे सोशल नेटवर्क पर आने-जाने वालों की अभिरूचियों और राजनीतिक विचारों का गंभीरता के साथ अध्ययन कर रहे हैं और उसके अनुसार राजनीतिक रणनीतियां बना रहे हैं। विगत राष्ट्रपति चुनाव में अमेरिका के दोनों प्रधान राजनीतिक दलों ने वेब का जमकर इस्तेमाल किया था। सोशल वेबसाइट पर आने-जाने वालों की व्यक्तिगत चीजों को जानने के चक्कर में नागरिकों की प्राइवेसी का उल्लंघन भी किया गया।
    हाल ही में यह भी देखा गया है कि अमेरिकी प्रशासन सोशल नेटवर्क का गंभीरता के साथ इस्तेमाल कर रहा है। सीआईए और दूसरी गुप्तचर संस्थाएं नागरिकों की निगरानी कर रही हैं। इस काम के लिए सीआईए ने ‘ओपन सोर्स सेण्टर’ नामक संस्था का 2005 में गठन किया है और यह काम उसके जरिए किया जा रहा है। इसके जरिए वे ब्लॉग,वेबसाइट,टीवी कार्यक्रम,रेडियो प्रसारण आदि की निगरानी कर रहे हैं। इस सेंटर के मूल्यांकन आम लोगों के लिए उनकी वेबसाइट opensource.gov पर उपलब्ध हैं। इस पर वीडियो रिपोर्ट,इंटरनेट क्लिपिंग, अनुवाद,खास विषय का विश्लेषण आदि उपलब्ध है।
     इसके अलावा एफबीआई का अलग सिस्टम है जो इस क्षेत्र में काम कर रहा है। भारत में ऐसा कोई सिस्टम नहीं है जहां सरकार ध्यान देती हो. उन गतिविधियों का मूल्यांकर करती हो जो इंटरनेट पर हो रही हैं। वह पूरी तरह अपने काम के लिए लगता है अमेरिकी संस्थाओं पर निर्भर है।
       एफबीआई ने अरिजोना विश्वविद्यालय  में ‘डार्क बेव’ प्रोजेक्ट खोला है। इसके जरिए उसने नेट पर आतंकी गतिविधियों की निगरानी की जा रही है।  वे इस प्रकल्प के जरिए इंटरनेट के उन अंधेरे कोनों की खोज करते रहते हैं जहां आतंकी छिपे हैं और अपनी गतिविधियों को नेट के जरिए संयोजित कर रहे हैं। वे इंटरनेट कंटेंट की निगरानी करने के अलावा गुमनाम लेखकों और टिप्पणीकारों पर भी नजर रखे हुए हैं।  इन लोगों ने Writeprint नामक प्रोग्राम बनाया है जो अनाम संदेशों और गुमनाम लोगों की छानबीन करता रहता है। उनकी प्रोफाइल तैयार करता रहता है।
     सोशल नेटवर्क के लिए सात कौन से खतरे हैं। उनके बारे में कारपोरेट परिप्रेक्ष्य में एलन लुस्टिंगर ( डायरेक्टर ऑफ इनफॉर्मेशन सिक्योरिटी फॉर गैन कैपीटल होल्डिंग) ने लिखा हैं। वे सात खतरे इस प्रकार है-
1. Searching social sites for company names yields partial company rosters, which is a start toward softening them up for social networking attacks.
2. Work e-mail addresses gleaned from social sites can provide valuable information. If the e-mail naming scheme (first initial followed by last name or first name, underscore, last name) is the same as the password scheme that undermines security. "You're halfway to breaking their user name and password," he says.
3. Information posted on social sites give clues for passwords to try – names of children, favorite food, sports teams, etc.
4. Phony contests advertised on social sites that request all sorts of data that could be used to reset passwords – where you went to school, name of your first pet, and your favorite uncle.
5. Shortened URLs commonly used on Twitter can lead to anywhere, and there are no clues in the shortened URLs themselves about where that might be.
6. Mining bulletin boards can produce news of IT job openings at specific companies. . Attackers could line up an interview, during which they gather details about the corporate network in the course of discussing the potential job and their experience with specific gear.
7. Google Latitude's use of GPS posts where you are right now, also revealing all the places you aren't. People seeking an excuse to be inside a corporate facility can use this to drop by and ask for an employee they know isn't there.
 लुस्टिंगर का मानना है कि सभी किस्म की सामाजिक धोखाधड़ी करने वाले इन दिनों फेसबुक आदि सोशल नेटवर्क पर आ रहे हैं और उनसे सावधान रहने की जरूरत है।










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