बुधवार, 6 अक्टूबर 2010

आलोचना का पराभव और नामवर सिंह -3-

     हिन्दी साहित्य को जनप्रिय बनाने में नामवर सिंह के व्याख्यानों का बड़ा योगदान है, उन्होंने अपने व्याख्यानों से हिन्दी साहित्य के प्रति वैसे ही आकर्षण पैदा किया है जिस तरह 19वीं सदी में दयानंद सरस्वती के भाषणों ने हिन्दी भाषा के प्रति आकर्षण पैदा किया था।
    नामवर सिंह अपने व्याख्यानों में प्रौपेगैण्डा की तकनीक का बारीकी से इस्तेमाल करते हैं। इसमें सेंसरशिप भी शामिल है,जिसके तहत वे कुछ सूचनाएं छिपाते तो कुछ सूचनाएं बताते हैं। इस पद्धति के आधार पर ही वे साहित्य में लेखकों को उठाने-गिराने का काम करते रहे हैं।
      नामवर सिंह की व्याख्यान कला के चार तत्व हैं मोहित करना,छिपाना ,सरल बनाना और फुसलाना। इन तत्वों के आधार पर नामवर सिंह ऑडिएंस और लेखकों की समझ को बदलने और नियंत्रित करने का काम करते हैं। इस पद्धति का इस्तेमाल करते हुए वे लेखक,विचार और संस्थान विशेष की छद्म इमेज भी बनाते हैं।
     उनके लेखन में हिन्दी के समस्त दोषों का ठीकरा अन्य के सिर फोड़ा गया है। दोष के लिए अन्य दोषी और स्वयं दोषमुक्त। अभिव्यक्ति की यह पद्धति आलोचना की नहीं प्रौपेगैण्डा की पद्धति है। प्रौपेगैण्डा पद्धति में झूठ बोलना कला है और कम से कम सूचना देना भी कला है।
     नामवर सिंह कम से कम सूचनाएं देकर अभीप्सित प्रचार प्राप्त करते रहे हैं। उनके अधिकांश व्याख्यान प्रगतिशीलों और जनवादियों के बीच ही हुए हैं अतः उनकी राय को नियंत्रित करने में नामवर सिंह की बडी भूमिका रही है।  उल्लेखनीय है प्रौपेगैण्डा राय को नियंत्रित करता है। हिन्दी साहित्य में नामवर सिंह राय बनाने और नियंत्रित करने का काम करते रहे हैं। इस अर्थ में वे कम्प्लीट प्रचारक हैं। राय बनाना,राय नियंत्रित करना,सहमति तैयार करना यही उनका मूल लक्ष्य रहा है। यही काम बुद्धिजीवी से सत्ता कराना चाहती है। इसी को कहते हैं सत्ता का खेल।
    ये सारे काम आलोचना के कम प्रौपेगैण्डा के ज्यादा हैं। आलोचना का काम सहमति तैयार करना नहीं है,बल्कि असहमतियों का उदघाटन करना है। आलोचनात्मक वातावरण बनाना है। नामवर सिंह असहमति और आलोचनात्मक वातावरण तैयार करने का नहीं सहमति के निर्माण का काम करते रहे हैं। यह प्रौपेगैण्डा की पद्धति है आलोचना की नहीं।
   नामवर सिंह को हिन्दी में आलोचक कम और ‘ साहित्य के अधिकारी विद्वान’ के रूप में ज्यादा जनप्रियता हासिल है। यह ‘अधिकारी विद्वान’ का पद प्रचारक का पद है आलोचक का नहीं।
    वे जब बोलते हैं तो ऑडिएंस का ख्याल रखते हैं और उन्हीं बातों,विचारों आदि का प्रचार करते हैं जिसको ऑडिएंस की स्वीकृति मिले। उनके भाषणों में हिन्दी प्रेम,भारत प्रेम,भारतीय परिवार प्रेम, गांव,ग्राम्य दुर्दशा,स्वाधीनता का समर्थन और दर्शक की इच्छाओं का महिमामंडन खूब हुआ है।
    नामवर सिंह के अनेक व्याख्यान लेखकों के मनोबल को बढ़ाने के लिहाज से दिए गए हैं। हिन्दी में जिसे अपना मनोबल टूटता सा लगता है दौड़कर नामवर सिंह के पास जाता है और अनुरोध करता है चलो भाषण दो। यह काम मूलतः प्रौपेगैंडिस्ट का है। वह नैतिक मनोबल बढ़ाने का काम करता है। इस काम में नामवर सिंह अपनी साख और आदर्शों का जमकर इस्तेमाल करते रहे हैं।
    नामवर सिंह की साख सबसे ज्यादा है, जिसका वे व्यक्तियों,लेखकों और साहित्य पाठकों के नैतिक मनोबल बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। इस प्रक्रिया में साहित्य की ग्रहण क्षमता बढ़ाने पर उनका खास ध्यान रहा है।
    नामवर सिंह अपने भाषणों से हस्तक्षेप करते हैं, ऑडिएंस को एकजुट करते हैं फिर सुनने वालों में एकमत राय कायम करते हैं। वे अपने व्याख्यानों के जरिए संबंधित विषय पर मतभेदों को कम करते हैं। मतभेदों के दायरे को कम करने के चक्कर में सरलीकरण और विभ्रम भी पैदा करते हैं,लेकिन उनका मूल लक्ष्य विभ्रम पैदा करना नहीं है,वे मतभेद और गुटबाजियां कम करने के लिए व्याख्यान का इस्तेमाल करते हैं। व्याख्यान के अंत में उनकी भविष्य पर नजर होती है और आशा का संदेश देते हैं। भविष्य के प्रति ऑडिएंस में जो अज्ञान है उस पर से पर्दा हटाते हैं। यह काम बेहद सतर्क ढ़ंग से करते हैं।
    नामवर सिंह अपने विचारों में जिस क्षेत्र या विषय पर बातें करते हैं उस पर समाधान भी सुझाते हैं वे महज बातें नहीं करते। ऑडिएंस उनके समाधानों से सामने सहमत होती है। इसके लिए वे अभिभूत करने की कला का जमकर इस्तेमाल करते हैं। इसी अर्थ में वे साहित्य के महान् प्रचारक हैं।
   नामवर सिंह के व्याख्यान ऑडिएंस को फुसलाते ज्यादा हैं ज्ञान कम देते हैं। वे साहित्य के प्रति आस्था पैदा करते हैं साहित्य का ज्ञान कम देते हैं। यही वजह है नामवर सिंह के व्याख्यान पढ़ते हुए साहित्य के प्रति आस्था बनती है ज्ञान कम मिलता है।
    नामवर सिंह की व्याख्यान शैली आक्रामक होती है और इसके जरिए वे किसी न किसी व्यक्ति के विचारों पर हमला करने के बहाने ऑडिएंस के विचारों पर उच्च नैतिक धरातल से हमला बोलते हैं और फिर उसे अपनी राय मानने के लिए फुसलाते हैं।        
     हिन्दी में  आलोचना को प्रतिष्ठित करनें में नामवर सिंह की अग्रणी भूमिका रही है और उनके अथक वाचिक प्रयासों ने  आलोचना को जनप्रियता  दिलायी है। इसके बावजूद इन चार किताबों में नई बातें कम हैं पुरानी बातें ज्यादा हैं। इन किताबों का महत्व इस लिहाज से ज्यादा है कि इनके जरिए हिन्दी आलोचना के बारे में नामवर सिंह के विचारों को पहलीबार पेश किया गया है। ये किताबें आलोचना के स्टीरियोटाईप का खंडन-मंड़न हैं।
      आलोचना के प्रति नामवर सिंह का हमेशा से सर्जनात्मक रवैय्या रहा है। नामवर सिंह ने अपभ्रंश से लेकर जनवादी साहित्य तक जो कुछ भी लिखा है वह  आलोचना का हिस्सा है। इस प्रक्रिया में नामवर सिंह का मुख्य जोर वर्तमान को बेहतर बनाने और नवीन दिशा देने पर है।
     वर्तमान को बेहतर बनाने के लिए नामवर सिंह अतीत में नहीं जाते  बल्कि वर्तमान में रहकर ही बेहतरी के सत्तापंथी यूटोपिया का निर्माण करते हैं। इसके लिए उन तमाम स्रोतों की मदद लेते हैं जिनसे वर्तमान की सही समझ बने। वर्तमान को बेहतर बनाने के लिए उसकी बेहतर समझ का होना जरूरी है। युगीन अन्तर्विरोधों की सटीक समझ पर ही सही समझ निर्भर करती है। सही समझ के आधार पर ही सही दृष्टिकोण का निर्माण संभव है।
    आलोचना का लक्ष्य है सटीक अन्तर्विरोधों को रेखांकित करना। हिन्दी के अधिकांश समीक्षकों की मुश्किल यह है कि वे अपने युग के प्रधान और उप-प्रधान अंतर्विरोधों को नहीं जानते।   युगीन अन्तर्विरोधों की भ्रामक समझ आलोचना को नष्ट करती है। कहीं न कहीं अन्तर्विरोधों की भ्रामक समझ का हिन्दी आलोचना के ह्रास में बड़ा योगदान है।
     हिन्दी में खूब लिखा जा रहा है किन्तु अन्तर्विरोधों की सही समझ के अभाव, अतिरेक और भ्रष्ट धारणाओं में ज्यादा लिखा जा रहा है। अवधारणाओं का भ्रष्टीकरण जितना हिन्दी में हुआ है वैसा अन्यत्र नजर नहीं आता। यह परवर्ती पूंजीवाद की विशेषता है। अवधारणाओं के भ्रष्टीकरण में हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं और उनमें छपने वाले तथाकथित समीक्षकों की सक्रिय भूमिका रही है। नामवर सिंह की ये चारों किताबें साहित्य में अवधारणात्मक भ्रष्टीकरण में ईंधन का काम कर सकती हैं।             
     इन किताबों में दो बातें गायब हैं पहली बात जो गायब है वह है नामवर सिंह के द्वारा उपेक्षित विषय और लेखों का संदर्भ। संपादक को कम से उन विषयों पर नामवर सिंह से बात करनी चाहिए थी जिन पर उन्होंने नहीं लिखा और जो लिखा और बोला है उसके संदर्भ को नामवर सिंह से बातें करके लिखा जाना चाहिए। अथवा आलोचना के उन सवालों पर संपादक को स्वयं लिखना चाहिए जिन पर नामवर सिंह ने नहीं लिखा अथवा ऐसा लिखा है जिस पर संपादक की असहमति है अथवा विवादास्पद लिखा है।
       संपादक को महज संवाददाता नहीं होना चाहिए। इससे यह संदेश जाता है कि नामवर सिंह के निबंधों पर लिखने की संपादक की क्षमता नहीं है अथवा नामवर सिंह के साथ समझौते के तहत संकलन तैयार किया गया और हिदायत दी गयी कि नामवर सिंह पर कलम नहीं चलाओगे। इस प्रसंग में संपादक ने यदि नामवर सिंह के द्वारा संपादित संकलनों की भूमिकाओं से ही कुछ सबक हासिल किया होता अथवा मार्क्सवादी आलोचकों के द्वारा तैयार किए गए संकलनों की भूमिका से ही कोई सीख ली होती और ठीक से भूमिका लिखी होती तो निबंधों में व्याप्त विभ्रमों,धारणाओं और विवादों पर संपादक के नजरिए का भी अंदाजा लगता ?
    नामवर सिंह के निबंधों का संकलन व्यापक कालखंड़ में फैला है ,निबंधों में समय का अंतराल है ,इसके कारण निबंधों में असम्बद्धता भी है। इसमें चुप्पी  वाले साल और जिन विषयों को नामवर सिंह ने नहीं उठाया है उनका कारण जानने में मदद नहीं मिलती।
      नामवर सिंह मित्र शैली के आलोचक हैं। उनका पंसदीदा मित्र आलोचक-लेखकों के साथ इन निबंधों में संवाद दिखता है। दूसरा महत्वपूर्ण बात यह कि नामवर सिंह व्यक्ति के आलोचक हैं,व्यवस्था के नहीं। जबकि रामविलास शर्मा ने व्यक्ति और व्यवस्था केन्द्रित दोनों ही किस्म की आलोचना लिखी है।
     नामवर सिंह अकादमिक स्तर पर जितने गंभीर हैं और जिस ठंड़े मन के साथ समस्त जटिलताओं के साथ सोचते और लिखते हैं वैसी मनोदशा इन किताबों में एकसिरे से नदारद है। इन किताबों के आधार पर नामवर सिंह के बारे में कोई भी राय नहीं बनायी जा सकती और जो राय  बनेगी वह बेहद खराब होगी। ये किताबें उनके  द्वारा पहले लिखी किताबों का वस्तुतः निरस्तीकरण है।
      नामवरसिंह के लेखन की गंभीरता ,स्थिर होकर सोचने और लिखने की विद्वतापूर्ण शैली का उनके वाचिक निबंधों में अभाव दिखाई देता है।  वाचिक निबंध तात्कालिकता और पापुलिज्म की सोच से संचालित हैं। इन किताबों से यह भी पता चलता है कि नामवर सिंह जो कुछ भी बोलते रहे हैं वह सब तैयारी से नहीं बोलते थे। संपादकीय दबाब ,तात्कालिकता और मंचीय दबाब इन वाचिक लेखों में साफ नजर आते हैं। नामवर सिंह के निबंधों में तात्कालिकता और उत्सवधर्मिता के दबाबों को भी देखा जा सकता है। ये चीजें नामवर सिंह के धीर-गंभीर अकादमिक व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं हैं।

    नामवर सिंह के प्रति अनालोचनात्मकता से लड़ना पहली समस्या है। नामवर सिंह को आलोचना के भगवान का दर्जा देकर हिन्दीभक्तों ने उनका तो नुकसान किया ही साथ ही हिन्दी आलोचना का भी गंभीर नुकसान किया है। उन्हें ‘कल्ट व्यक्तित्व’ बनाया है।
        इन चार किताबों से यह पता नहीं चलता कि नामवर सिंह असल में क्या करते रहे हैं और इस तरह का लेखन और वाचन क्यों करते रहे हैं । नामवर सिंह का कहना है कि मैं लेखन के लिए लेखन में विश्वास नहीं करता। यदि यह सच है तो सवाल किया जाना चाहिए कि वे बोलने के लिए बोलने पर क्यों विश्वास करते हैं ? बोलने के लिए बोलना ज्यादा खतरनाक है । नामवर सिंह का अधिकांश संकट यहीं पर है।
     उनके विचारों में गंभीर विचलन वाचिक निबंधों में सामने आया है। लिखित निबंधों में विचलन कम है। अतः उनके लिखे और बोले को एक ही ढ़ंग और परिप्रेक्ष्य में नहीं पढ़ा जा सकता। विचारधारा और परिप्रेक्ष्य का संकट उनके वाचिक निबंधों में ज्यादा और लिखित निबंधों में कम है। लिखित निबंधों में नामवर सिंह ज्यादा सुसंगत ,बौद्धिक और व्यवस्थित नजर आते हैं। वाचिक निबंधों मैं भटके हुए नजर आते हैं। सवाल यह है कि वे बोलने के लिए बोलने की कला का इस्तेमाल क्यों करते रहे हैं ?
    बोलने के लिए बोलने की कला के कारण वे सामाजिक ज्यादती के भी शिकार हुए हैं या उन्हें शिकार बनाया गया है ? वे प्रतिदिन बोलते हैं, प्रतिदिन भाषण देना जोखिम का काम है। नामवर सिंह नए-नए विषयों पर बोलते हैं और कम के कम अथवा कभी कभी वगैर जाने भी बोलते हैं। वे बौद्धिक रिस्क लेते हैं।
     उनके विचारों की फिसलन का स्रोत है बोलने के लिए बोलना। बोलते समय नामवर सिंह ‘केजुअल आलोचक’ के रूप में सामने आते हैं। पेशेवर आलोचक का रूप लिखित निबंधों में दिखाई देता है। ‘केजुअल आलोचक’ के रूप में नामवर सिंह ने विषय विशेष पर बोलते हुए संदर्भ,अवधारणा,ऐतिहासिकता आदि चीजों को लेकर घल्लूघारा किया है। यह प्रवृत्ति उनके निबंधों में व्यापक रूप में फैली हुई है।
     इस समस्या का दूसरा पहलू ऑडिएंस से जुड़ा है। नामवर सिंह की वाह -वाह करने वाली ऑडिएंस है। यह क्रिटिकल ऑडिएंस नहीं है। अन-क्रिटिकल ऑडिएंस में अहर्निश भाषण देने के कारण उन्हें यह एहसास नहीं हुआ कि वे क्या सही और क्या गलत बोल रहे हैं। सचेत समीक्षकों की आलोचना पर नामवर सिंह के आलोचक मन ने कभी ध्यान नहीं दिया,सचेत ऑडिएंस उन्हें मिली नहीं। इसका प्रभाव इन किताबों में दिखता है। इन किताबों में अनेक भूलें सहज ही देखी जा सकती हैं।
    भक्त ऑडिएंस में बोलने के कारण नामवर सिंह को कभी अपनी कमजोरियों का एहसास तक नहीं हुआ और वे इस मुगालते में रहे हैं कि वे जो कुछ भी बोल रहे हैं सही बोल रहे हैं। उनके भाषणों जो चीजें नष्ट हुई हैं वह हैं विषय की शोधपरक गंभीरता, ऐतिहासिकता ,जटिलता एवं संश्लिष्टता। इसके कारण अनेक स्थानों पर वे सरलीकरण और कॉमनसेंस के तर्कों का इस्तेमाल करते हैं। यहां हम सिर्फ दो प्रसंगों का जिक्र करना चाहेंगे,ये हैं आपात्काल और स्त्री-पुरूष संबध।



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