रविवार, 3 अक्टूबर 2010

कार्ल मार्क्स की नजर में भारतीय प्रश्न

                                                        लंदन, 28 जुलाई 1857
कल रात 'मृत भवन' में मिस्टर डिजरायली ने तीन घंटे का जो भाषण दिया था, उसे सुनने की जगह पढ़ा जाता तो उसका असर कम होने की जगह और बढ़ जाता। कुछ समय तक मि. डिजरायली ने वक्तृत्व कला का घोर आडंबर प्रदर्शित किया। बनकर बहुत धीरे-धीरे बोलने का और औपचारिकता के एक विकारहीन अनुक्रम का प्रदर्शन किया। ये चीजें एक महत्वाकांक्षी मंत्री की शान से संबंधित उनकी विचित्र धारणाओं के चाहे जितनी भी अनुकूल हों, लेकिन उनके यातनाग्रस्त श्रोताओं के लिए वास्तव में बहुत क्लेशपूर्ण होती हैं! पहले वह एकदम तुच्छ चीजों को भी लघु काव्यों के रूप में प्रस्तुत करने में सफल हो जाते थे। लेकिन अब वह लघु काव्यों तक को प्रतिष्ठा की रूढ़िबध्द नीरसता में डुबो देते हैं। मिस्टर डिजरायली की तरह के एक अच्छे वक्ता को तो, जो तलवार चलाने की जगह कटार भांजने में अधिक निपुण हैं---
बर्लिन की अकादमी के सामने प्रस्तुत कर दिया जा सकता है। देश, काल और अवसर के संबंध में उनके भाषण की विचित्र निष्पक्षता इस बात को अच्छी तरह साबित कर देती है कि वह न देश और काल के अनुरूप था, न अवसर के। रोमन साम्राज्य के पतन से संबंधित कोई अध्याय मांटेस्क्यू अथवा गिवन की पुस्तक में पढ़ने पर बहुत अच्छा लग सकता है; लेकिन उसी को यदि एक रोमन सीनेटर के मुंह में रख दिया जाए, जिसका खास काम ही यह था कि उस पतन को रोके, तो वह बहुत ही मूर्खतापूर्ण लगेगा। यह सही है कि हमारे आधुनिक पार्लियामेंटों में एक ऐसे स्वतंत्रचेता वक्ता की कल्पना की जा सकती है जो वास्तविक विकास-क्रम को प्रभावित करने में अपनी असमर्थता से निराश होकर प्रच्छन्न निंदापूर्ण तटस्थता का रुख अपना लेता है और अपने को इसी से संतुष्ट कर लेता है। यह भी मान लिया जा सकता है कि उसकी इस भूमिका में न शान की कमी होगी, न दिलचस्पी की। स्वर्गीय श्री गार्नियर पेजेज नेलुई फिलिप की प्रतिनिधि सभा (चैंबर ऑफ डिपुटीज) की स्थायी सरकार वाले गार्नियर पेजेज ने नहींकमोबेश सफलता के साथ ऐसी ही भूमिका अदा की थी। लेकिन मि. डिजरायली, जो एक जीर्ण-शीर्ण गुट के जाने-माने नेता हैं, इस तरह की सफलता को भी एक जबरदस्त पराजय मानेंगे। इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय सेना के विद्रोह ने वक्तृत्व कला के प्रदर्शन के लिए एक अत्यंत शानदार अवसर उपस्थित कर दिया था। लेकिन, इस विषय पर एकदम निर्जीव ढंग से विचार करने के अलावा उस प्रस्ताव में क्या सार था जिसको अपने भाषण का उन्होंने निमित्त बनाया? वास्तव में वह कोई प्रस्ताव ही नहीं था। उन्होंने झूठ-मूठ का यह दिखावा किया कि दो सरकारी दस्तावेजों की जानकारी हासिल करने के लिए वह व्यग्र थे : इनमें से एक दस्तावेज तो ऐसा था जिसके बारे में उन्हें यह भी यकीन नहीं था कि वह कहीं है भी, और दूसरा दस्तावेज ऐसा था जिसके बारे में उन्हें पूरा यकीन था कि संबंधित विषय से उसका कोई फौरी ताल्लुक नहीं था। इसलिए उनके भाषण और उनके प्रस्ताव में इसके सिवा और कोई संबंध नहीं था कि प्रस्ताव ने बिना किसी उद्देश्य के ही एक भाषण के लिए जमीन तैयार कर दी थी और उद्देश्य ने स्वयं यह स्वीकार कर लिया था कि वह इस योग्य नहीं था कि उस पर कोई भाषण दिया जाए। मि. डिजरायली सरकारी पद से अलग इंगलैंड के सबसे प्रसिध्द राजनीतिज्ञ हैं और इसलिए उनके द्वारा अत्यंत श्रमपूर्वक और विस्तार से तैयार की गई राय के रूप में उनके भाषण की ओर बाहर के देशों को अवश्य ध्यान देना चाहिए। 'एंग्लो-इंडियन साम्राज्य के पतन के संबंध में' उनके 'विचारों' की एक संक्षिप्त व्याख्या खुद उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत करके मैं अपने को संतुष्ट कर लूंगा :
भारत की उथल-पुथल एक फौजी बगावत है, या वह एक राष्ट्रीय विद्रोह है? फौजों का व्यवहार किसी आकस्मिक उत्तेजना का परिणाम है अथवा वह एक संगठित षडयंत्र का नतीजा है?
मि. डिजरायली फरमाते हैं कि पूरा सवाल इन्हीं नुक्तों पर निर्भर करता है। उन्होंने कहा कि पिछले दस वर्षों से पहले तक भारत में ब्रिटिश साम्राज्य 'फूट डालो और शासन करो' के पुराने सिध्दांत पर आधारित थालेकिन उस समय तक भारत की विभिन्न जातियों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करते हुए, उनके धर्म में किसी प्रकार के हस्तक्षेप से बचते हुए, और उनकी भूसंपत्ति की रक्षा करते हुए ही इस सिध्दांत पर अमल किया जाता था। देशी सिपाहियों की फौज देश की अशांत भावनाओं को अपने अंदर समेट कर बचाव के एक साधन का काम करती थी। लेकिन हाल के वर्षों में भारत की सरकारी व्यवस्था में एक नए सिध्दांत कोजातियों को नष्ट करने के सिध्दांत कोशामिल कर लिया गया है। देशी राजे-रजवाड़ों को बलपूर्वक नष्ट करके, संपत्ति की निश्चित व्यवस्था को उलट-पुलट करके और आम लोगों के धर्म में हस्तक्षेप करके इस सिध्दांत को अमल में लाया गया है। 1848 में ईस्ट इंडिया कंपनी की आर्थिक कठिनाइयां ऐसी जगह पर पहुंच गई थीं जहां उसके लिए यह आवश्यक हो गया था कि वह अपनी आमदनी को किसी न किसी तरीके से बढ़ाए। तब कौंसिल की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसमें लगभग बिना किसी छिपाव-दुराव के साफ-साफ यह सिध्दांत तय कर दिया गया कि अधिक आमदनी हासिल करने का एकमात्र तरीका यही हो सकता है कि देशी राजे-रजवाड़ों को मिटा कर ब्रिटिश अमलदारियों का विस्तार किया जाए। इसी के अनुसार, जब सतारा के राजा* की मृत्यु हुई तो उनके गोद लिए हुए वारिस को ईस्ट इंडिया कंपनी ने नहीं माना और उलटे उनके राज्य को हड़प कर उसे अपनी हुकूमत में शामिल कर लिया। उसके बाद से जब भी कोई देशी राजा बिना अपना स्वाभाविक वारिस छोड़े मरा, तो उसके राज्य को हड़प लेने की इसी व्यवस्था पर अमल किया गया। गोद लेने का सिध्दांत भारतीय समाज की आधारशिला है: सरकार ने उसको मानने से व्यवस्थित रूप से इनकार कर दिया। और, इसी तरह, 1848 से 1854 तक, एक दर्जन से अधिक स्वतंत्र राजाओं के राज्यों को बलपूर्वक ब्रिटिश साम्राज्य में मिला गया गया। 1854 में बरार के राज्य पर जबरदस्ती कब्जा कर लिया गया। बरार का क्षेत्रफल 80 हजार वर्ग मील था, 40 से 50 लाख तक उसकी आबादी थी और उसके पास विशाल संपत्ति थी। इस तरह बलपूर्वक हड़पे गए राज्यों की सूची का अंत मि. डिजरायली ने अवध के नाम के साथ किया। उन्होंने कहा कि अवध को हड़पने की चाल के फलस्वरूप ईस्ट इंडिया सरकार की न केवल हिंदुओं के साथ, बल्कि मुसलमानों के साथ भी टक्कर हो गई। इसके बाद और भी आगे जाकर मि. डिजरायली ने बताया कि भारत की सांपत्तिक व्यवस्था में सरकार की नई व्यवस्था ने पिछले दस वर्षों में किस भांति उलट-फेर किए हैं।
वे कहते हैं, 'गोद लेने के नियम का सिध्दांत केवल भारत के राजाओं और रजवाड़ों के विशेषाधिकार की वस्तु नहीं है, वह हिंदुस्तान के हर उस व्यक्ति पर लागू होता है जिसके पास भूसंपत्ति है और जो हिंदू धर्म को मानता है।'
मैं उनके भाषण के एक स्थल का उध्दरण देता हूं :
वह महान सामंत, अथवा जागीरदार, जो अपने सम्राट की सार्वजनिक सेवा के एवज में अपनी भूमि का स्वामी बना हुआ है, और वह इनामदार जो पूरे भूमि-कर से मुक्त जमीन का स्वामी हैजो, अगर एकदम सही तौर पर नहीं तो, कम से कम, प्रचलित तौर पर हमारे माफीदार के समान हैइन दोनों ही वर्गों के लोगऔर ये वर्ग भारत में बहुत हैंस्वाभाविक वारिसों के न रहने पर अपनी रियासतों के लिए वारिस प्राप्त करने के लिए हमेशा इस सिध्दांत का उपयोग करते हैं। सतारा के हड़प लिए जाने से वे वर्ग एकदम विचलित हो उठे हैं। उन दस छोटे लेकिन स्वतंत्र राजाओं की अमलदारियों के हड़प लिए जाने से भी, जिनका मैंने पहले ही जिक्र किया है, वे विचलित हो उठे थे और जब बरार के राज्य को हड़प लिया गया तब वे केवल विचलित ही नहीं हुए थे, बल्कि अधिकतम मात्रा में भयभीत भी हो उठे थे। अब कौन आदमी सुरक्षित रह गया था? भारत भर में कौन सामंत, कौन माफीदारजिसका खुद का अपना बेटा नहीं थासुरक्षित रह गया था? (बिलकुल ठीक कहते हैं! ठीक कहते हैं!) यह भय अकारण नहीं था। इन चीजों के बारे में बड़े पैमाने पर काम किया गया था और उन्हें अमली रूप दिया गया था। भारत में पहली बार जागीरों और इनामों पर फिर से कब्जा कर लेने का सिलसिला शुरू हुआ। इसमें संदेह नहीं कि ऐसे भी नादानी-भरे अवसर आए थे जब सनदों (अधिकार-पत्रों) की जांच-पड़ताल करने की कोशिशें की गई थीं, लेकिन गोद लेने के कानून को ही खतम कर दिया जाए, इसका स्वप्न में भी किसी ने कभी खयाल नहीं किया था। इसलिए कोई भी सत्ता, कोई भी सरकार इस स्थिति में कभी नहीं थी कि जो लोग अपने स्वाभाविक वारिस नहीं छोड़ गए थे, उनकी जागीरों और इनामों पर वह फिर से कब्जा कर ले। यह आमदनी का एक नया जरिया था; लेकिन, इन वर्गों के हिंदुओं के दिमागों पर इन तमाम चीजों का जिस समय असर पड़ रहा था, उसी समय सांपत्तिक व्यवस्था में उलट-फेर करने के लिए सरकार ने एक और कदम उठा लिया। सदन का ध्यान अब मैं उसी की ओर दिलाना चाहता हूं। निस्संदेह, 1853 में समिति के सामने ली गई गवाही के पढ़ने से, सदन को इस बात की, जानकारी है कि भारत में जमीन के ऐसे बहुत बड़े-बड़े भाग हैं जो भूमि-कर (मालगुजारी) से मुक्त हैं। भारत में भूमि-कर से मुक्त होना इस देश में भूमि-कर देने से मुक्त होने से कहीं अधिक महत्व रखता है, क्योंकि, आम तौर से, और प्रचलित अर्थ में कहा जाए तो, भारत में भूमि-कर ही राज्य का संपूर्ण कर है।
इन मुआफियों की उत्पत्ति कब हुई थी, इसका पता लगाना कठिन है; लेकिन इसमें संदेह नहीं कि वे अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही हैं। वे भिन्न-भिन्न तरह की हैं। निजी मुआफी की उन जमीनों के अतिरिक्त, जिनकी अत्यंत बहुतायत है, भूमि-कर से मुक्त ऐसी बड़ी-बड़ी जागीरें भी वहां हैं जो मसजिदों और मंदिरों को दे दी गई हैं।
यह बहाना करके कि मुआफी के झूठे दावे बहुत हैं, भारत की जागीरों की सनदों की जांच करने का काम ब्रिटिश गवर्नर जनरल* ने स्वयं अपने कंधे पर ले लिया है। 1848 में स्थापित नई व्यवस्था के अंतर्गत,सनदों की जांच-पड़ताल करने की उस योजना को यह प्रमाणित करने की दृष्टि से फौरन कलेजे से लगा लिया गया कि सरकार शक्तिशाली है, कार्यकारिणी बहुत जोरदार है और वह योजना स्वयं सार्वजनिक आमदनी का एक अत्यंत लाभदायी स्रोत है। अस्तु, बंगाल प्रेसिडेंसी और उसके आसपास के इलाकों की जागीरों की सनदों की जांच करने के लिए कमीशन बैठा दिए गए। बंबई प्रेसिडेंसी में भी वे नियुक्त कर दिए गए और, जिन प्रांतों की नई-नई व्यवस्था की गई थी उनमें पैमाइश करने की आज्ञा जारी कर दी गई, जिससे कि पैमाइशों के पूरे हो जाने पर इन कमीशनों का काम आवश्यक निपुणता के साथ किया जा सके। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि पिछले नौ वर्षों में भारत की जागीरों की माफी-प्राप्त संपत्ति की जांच-पड़ताल का काम इन कमीशनों द्वारा बहुत तेज गति से किया गया है और उससे भारी नतीजे भी निकले हैं।
मि. डिजरायली ने हिसाब लगाकर बताया है कि इन जागीरों को उनके मालिकों से वापिस ले लेने के फलस्वरूप जो आमदनी हुई है, वह बंगाल प्रेसिडेंसी में 5 लाख पौंड प्रति वर्ष, बंबई प्रेसिडेंसी में 3 लाख 70 हजार पौंड प्रति वर्ष, और पंजाब में 2 लाख पौंड प्रति वर्ष से कम नहीं है; इत्यादि। भारतवासियों की संपत्ति को हड़पने के केवल इस तरीके से संतुष्ट न होकर, ब्रिटिश सरकार ने उस देशी अमीरों की पेंशनों को भी बंद कर दिया है जिन्हें संधियों के अंतर्गत देने के लिए वह बाध्य थी :
मि. डिजरायली कहते हैं, 'दूसरों की संपत्ति को जब्त करने का यह एक नया साधन है जिसका अत्यंत व्यापक, आश्चर्यजनक और दिल दहलाने वाले पैमाने पर इस्तेमाल किया गया है।'
इसके बाद मि. डिजरायली भारतवासियों के धर्म में हस्तक्षेप करने की बात को उठाते हैं। उस पर विचार करने की जरूरत हमें नहीं है। अपनी तमाम स्थापनाओं से वह इस परिणाम
पर पहुंचते हैं कि भारत की वर्तमान अशांति एक फौजी बंगावत नहीं है, बल्कि वह एक राष्ट्रीय विद्रोह हैसिपाही उसके केवल सक्रिय साधन हैं। अपने उपदेशात्मक भाषण का अंत उन्होंने सरकार को यह सलाह देकर किया है कि आक्रमण की अपनी वर्तमान नीति पर चलते जाने के बजाए उसे चाहिए कि वह अपना ध्यान भारत के आर्थिक सुधार के काम की ओर दे।

(14 अगस्त 1857 के न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून, अंक 5091, में प्रकाशित )












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