बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

शूद्र सांस्कृतिक बंधुत्व से भागे हुए हिन्दू

    हम सबके अंदर जातिप्रेम और दलितघृणा कूट-कूट भरी हुई। किसी भी अवसर पर हमारी बुद्धि नंगे रूप में दलित विरोध की आग उगलने लगती है। दलितों से मेरा तात्पर्य शूद्रों से है। अछूतों से हैं।
      सवाल उठता है अछूतों से आजादी के 60 साल बाद भी हमारा समाज प्रेम क्यों नहीं कर पाया ? वे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से हम आज भी दलितों से नफरत करते हैं। उन्हें पराया मानते हैं। मेरे कुछ हिन्दुत्ववादी पाठक हैं वे तो मुझपर बेहद नाराज हैं। मैं उनसे यही कह सकता हूँ कि अछूत समस्या,दलित समस्या मूलतः सामाजिक- आर्थिक -राजनीतिक समस्या ही नहीं है। बल्कि यह एक सांस्कृतिक समस्या भी है।
    दलित समस्या को हमने अभी तक राजनीतिक समस्या के रूप में ही देखा है। उसके हिसाब से ही संवैधानिक उपाय किए हैं। उन्हें नौकरी से लेकर शिक्षा तक सब चीजों में आरक्षण दिया है। आजादी के पहले और बाद में मौटे तौर पर वे राजनीतिक केटेगरी रहे हैं। उनकी सांस्कृतिक और आर्थिक नजरिए से हमने कभी सामूहिक मीमांसा नहीं की है। संस्कृति और आर्थिक जीवन के उन चोर दरवाजों को बंद करने का प्रयास ही नहीं किया जिनसे हमारे मन में और समाज में दलित विरोधी भावनाएं मजबूती से जड़ जमाए बैठी हैं।
     जाति को राजनीतिक केटेगरी मानने से जातिविद्वेष बढ़ता है। जाति व्यवस्था सांस्कृतिक-आर्थिक केटेगरी है। संस्कृति इसकी धुरी है आर्थिक अवस्था इसका आवरण है।  अंग्रेजों को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने आधुनिक भारत में जातिप्रथा को प्रधान एजेण्डा बनाया। सामाजिक व्यवस्था के रूप में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रयासों से ही जातिप्रथा का अध्ययन आरंभ हुआ।
    कंपनी शासन के लोग नहीं जानते थे कि जातिप्रथा क्या है ? वे यहां शासन करने के लिए आए थे और यहां के समाज को जानना चाहते थे।यही बुनियादी कारण है जिसके कारण अंग्रेज शासकों के अनुचर इतिहासकारों, मानवविज्ञानियों,प्राच्यविदों आदि ने जातिप्रथा का गंभीरता के साथ अध्ययन आरंभ किया।
     अति संक्षेप में इतिहासकार रामशरण शर्मा के ‘शूद्रों का प्राचीन इतिहास ’ ग्रंथ के आधार पर कह सकते हैं कि प्राचीनकाल में मवेशियों को लेकर जमकर संघर्ष हुए हैं और बाद में जमीन को लेकर संघर्ष हुए हैं। जिनसे ये वस्तुएं छीनी जाती थीं और जो अशक्त हो जाते थे,वे नए समाज में चतुर्थ वर्ण कहलाने लगते थे।फिर जिन परिवारों के पास इतने अधिक मवेशी हो गए और इतनी अधिक जमीन हो गयी कि वे स्वयं संभाल नहीं पाते थे,तो उन्हें मजदूरों की आवश्यकता हुई और वैदिककाल के अंत में वे शूद्र कहलाने लगे।
  हमारे बीच में शूद्रों के बारे में अनेक मिथ प्रचलन में हैं इनमें से एक मिथ है कि शूद्र वर्ण का निर्माण आर्य पूर्व लोगों से हुआ था। यह नजरिया एकांगी है और अतिरंजित है। इसी तरह यह भी गलत धारणा है कि आरंभ में सिर्फ आर्य ही थे।
    वास्तविकता यह है कि आर्थिक तथा सामाजिक विषमताओं के कारण आर्य  और आर्येतर ,दोनों के अंदर श्रमिक समुदाय का उदय हुआ और ये श्रमिक आगे जाकर शूद्र कहलाए। यह ऐतिहासिक सच है कि वैदिककाल के आरंभ में शूद्रों और दासों की संख्या कम थी। लेकिन उत्तरवर्ती वैदिककाल के अंत से लेकर आगे तक शूद्रों की संख्या बढ़ती गई, उत्तर वैदिक काल में वे जिन अशक्तताओं के शिकार रहे हैं,वे वैदिककाल में नहीं थीं।
       एक मिथ यह भी है कि शूद्र हमेशा से मैला उठाते थे,अछूत थे। यह तथ्य और सत्य दोनों ही दृष्टियों से गलत है। यदि हिन्दूशास्त्रों के आधार पर बातें की जाएं तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि त्रेता-युग का आरंभ होने के समय वर्णव्यवस्था का जन्म नहीं हुआ था। न कोई व्यक्ति लालची था और न लोगों में दूसरों की वस्तु चुराने की आदत थी।
    चतुर्वर्ण की उत्पत्ति के संबंध में सबसे प्राचीनतम उल्लेख ऋग्वेद के पुरूषसूक्त में मिलता है। अनुमान है कि इसे संहिता के दशम मण्डल में बाद में जोड़ा गया था। बाद में इसे वैदिक साहित्य,गाथाकाव्य,पुराण और धर्मशास्त्र में अनुश्रुतियों के आधार पर कुछ हेर-फेर के साथ पेश किया गया। इसमें कहा गया है कि ब्राह्मण की उत्पत्ति आदिमानव (ब्रहमा) के मुँह से,क्षत्रिय की उनकी भुजाओं से,वैश्य की उनकी जांघों से, और शूद्र की उनके पैरों से हुई थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि शूद्र और अन्य तीनों वर्ण एक ही वंश के थे और इसके फलस्वरूप वे आर्य समुदाय के अंग थे।
     शूद्रों के प्रति भेदभाव और घृणा सामाजिक विकास के क्रम में बहुत बाद पैदा हुई है। कायदे से हम सब एक हैं हममें और शूद्रों में बुनियादी तौर पर कोई अंतर नहीं है। कालांतर में श्रम और श्रम विभाजन की प्रक्रिया में हमने शूद्रों को अलग करने की आदत डाली,उनसे भेदभावपूर्ण व्यवहार आरंभ किया। उनके साथ उत्पीड़क का व्यवहार करने लगे और एक अवस्था ऐसी भी आयी कि हमने उनके सांस्कृतिक-सामाजिक उत्पीड़न को वैधता प्रदान करने वाला समूचा तर्कशास्त्र ही रच डाला।
    सवाल उठता है कि शूद्र पदबंध आया कहां से ? रामशरण शर्मा ने लिखा है कि जिस प्रकार सामान्य यूरोपीय शब्द ‘स्लेव’ और संस्कृत शब्द ‘दास’ विजित जनों के नाम पर बने थे, उसी प्रकार शूद्र शब्द उक्त नामधारी पराजित जनजाति के नाम पर बना था। ईसापूर्व चौथी शताब्दी में शूद्र नामक जनजाति थी। क्योंकि डियोडोरस ने लिखा है कि सिकंदर ने आधुनिक सिंध के कुछ इलाकों में रहने वाली सोद्रई नामक जनजाति पर चढ़ाई की थी। इतिहासकार टालमी ने लिखा है सिद्रोई आर्केसिया के मध्यभाग में रहते थे जिनके अंतर्गत पूर्वी अफगानिस्तान का बहुत बड़ा हिस्सा पड़ता है और इसकी पूर्वी सीमा पर सिन्धु है।
  सवाल यह है शूद्र हमारे आदिम बंधु हैं। क्या उन्हें हम आधुनिककाल में समस्त भेदभाव त्यागकर अपना मित्र नहीं बना सकते ? अपना पड़ोसी,अपना रिश्तेदार,अपना भाई, अपना जमाई,अपना बेटा नहीं बना सकते ?
     हमें गंभीरता के साथ उन कारणों की तलाश करनी चाहिए जिनके कारण शूद्र हमसे दूर चले गए और आज भी हमसे कोसों दूर हैं। हम सांस्कृतिक तौर पर पहले एक-दूसरे के साथ घुले मिले थे लेकिन अब एक-दूसरे के लिए पराए हैं,शत्रु हैं।
    पहले शूद्र एक ही शरीर और एक ही समाज का अनिवार्य अंग थे। आज एक-दूसरे से अलग हैं,एक-दूसरे के बारे में कम से कम जानते हैं,एक-दूसरे बीच में रोटी-बेटी-खान-पान-पूजा-अर्चना के संबंध टूट गए हैं। यह विभाजन हम जितनी जल्दी खत्म करेंगे उतना ही जल्दी सुंदर भारत बना लेंगे। भारत की कुरूपता का कारण है जातिभेद और शूद्रों के प्रति अकारण घृणा।
   भारत सत्ता,संपदा,तकनीक,इमारत,इंफ्रास्ट्रक्चर,उद्योग-धंधे,आरक्षण आदि में कितनी ही तरक्की कर ले, कितना ही बड़ा उपभोक्ता बाजार खड़ा कर ले हम जब तक शूद्रों के साथ सांस्कृतिक संबंध सामान्य नहीं बनाते सारी दुनिया में हमारा नाम पिछड़े देशों में बना रहेगा। समाज में  सामाजिक तनाव बना रहेगा।
    कुछ अमरीकीपंथी दलित विचारक हैं जो यह मानकर चल रहे हैं कि दलितों की आर्थिक स्थिति सुधर जाएगी तो दलितों की मुक्ति हो जाएगी। दलितों के पास दौलत आने ,उनके उपभोक्ता बनने से जातिभेद की दीवार नहीं गिरेगी बल्कि जातिभेद और बढ़ेगा। उपभोक्तावाद भेदभाव खत्म नहीं करता बल्कि भेदभाव बढ़ाता है।
    वस्तुओं के समान उपभोग से सांस्कृतिक भेदभाव की दीवारें गिरती नहीं हैं उलटे सांस्कृतिक भेदभाव की दीवारें मजबूत होती हैं। उपभोक्तावाद को भेदभाव से मदद मिलती है वह बुनियादी सामाजिक भेदभाव को बनाए रखता है।
उपभोक्तावाद में यदि भेदभाव की दीवार गिरा देने की ताकत होती तो अमेरिका और ब्रिटेन में नस्लीय भेदभाव की समाप्ति कभी की हो गयी होती। वस्तुओं का उपभोग भेद की दीवारें नहीं गिराता। वस्तुएं सांस्कृतिक मूल्यों को अपदस्थ नहीं करतीं। जातिभेद के सांस्कृतिक मूल्यों को अपदस्थ करने वाले नए मूल्यों को बनाने की पूंजीपति वर्ग में क्षमता ही नहीं है यदि ऐसा ही होता तो काले लोगों को विकसित पूंजीवादी मुल्कों में भयानक नस्लीय भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता।   

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