इन दिनों लालगढ़ से लेकर छत्तीसगढ़ तक माओवादियों का भूत मंडरा रहा है। केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों तक सभी परेशान हैं कि हम क्या करें ? प्रशासन में बैठे अधिकारियों से लेकर नेताओं तक किसी को समझ में नहीं आ रहा कि आखिर माओवादी भूत को कैसे वश में करें ?
माओवादी भूत हमारे समाज के अलगाव के गर्भ से पैदा हुआ है। विगत 60 सालों में आदिवासी जीवन से मुख्यधारा के महानगरों और शहरों में रहने वालों का अलगाव बढ़ा है.अपरिचय बढ़ा है। अपरिचय और अलगाव ही है जो हमें आज इस अवस्था तक ले आया है कि जिन पुलिस वालों को इलाके का ज्ञान होना चाहिए वे आदिवासी इलाकों,उनकी संस्कृति,खान-पान,जीवनशैली आदि के बारे में एकदम अनभिज्ञ हैं। यहां तक कि जिले के कलेक्टर को नहीं पता है कि आदिवासी कैसे रहते हैं। उनके जेहन में स्टीरियोटाइप समझ रही है आदिवास्यों की। आप सर्वे करके देख लें कि शहर के पढ़े-लिखे कितने बुद्धिजीवी हैं जो विरसा मुण्डा के बारे में जानते हैं। हम उन किस्सों और किंवदंतियों से वाकिफ नहीं हैं जो आदिवासी जीवन में प्रचलित हैं। मुझे संदेह है कि नया आदिवासी युवा अपनी संस्कृति और परंपरा को भी ठीक ढ़ंग से जानता होगा ! बाबा ने आदिवासियों पर कई कविताएं लिखी हैं और अनेक आदिवासी नेताओं पर भी लिखा है। ऐसी ही उनकी एक कविता है ‘हवन-काष्ठ...’,इसमें आदिवासी जीवन के साथ अपरिचय की स्थिति का रूपायन किया गया है। लिखा है-‘‘ क्या उससे भी कभी मिलोगे ? / मुण्डा -जन-जाति के उस पुरूषोत्तम से ? / सौ-सौ किवदंतियों का नायक था वो /गिरिजन उसे कहते हैं ‘विरसा भगवान!’’
माओवादी आज जिस तरह की हिंसा कर रहे हैं। इस तरह की परिस्थितियों और हिंसा के पुजारियों पर व्यंग्य कसते हुए बाबा ने लिखा- ‘‘ यही धुँआ मैं खोज रहा था/ यही आग में खोज रहा था/यही गन्ध थी मुझे चाहिए/बारूदी छर्रे की खुशबू!.../ठहरो-ठहरो इन नथनों में इसको भर लूँ.../बारूदी छर्रे की खुशबू !’’ आगे लिखा ‘‘ यहाँ अहिंसा की समाधि है/ यहाँ कब्र है पार्लमेंट की।’’
माओवादी जिस तरह का हिंसाचार रहे हैं ,वैसी ही अवस्था को ध्यान में रखकर ‘‘प्रतिहिंसा का महारूद्र’’ शीर्षक कविता लिखी। लिखा-‘‘फिलहाल,/तुम्हारा यह मारक खेल/ अभी कुछ और चलेगा/लेकिन याद रखो -हम तुम्हारी बिरादरी के एक-एक सदस्य का वध करेंगे।’’
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