शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

जॉर्ज सिंपसन- उसने अपनी जान क्यों ली ? - 2-

  आत्महत्या पर दुर्खीम के काम के बाद से इस विषय में हमारी जानकारी बीमा संबंधी आंकड़ों और मनोविश्लेषक मनोविकृति विज्ञान से आई है। दुर्खीम के अपने दृष्टिकोण को उसके छात्र और मित्र मोरिस हल्बवाच्स ने अपनी लेस कॉजिज डु सुइसाइड में आगे बढ़ाया है, उसकी जांच की है और उसे लागू किया है। यहां खुलासे के लिए नोट किया जाना चाहिए (जैसा कि पार्सन्स ने जिक्र किया है) कि हल्बवाच्स के अनुसार आत्महत्या के सामाजिक और मनोविकृति वैज्ञानिक स्पष्टीकरण में ऐसा कोई विरोध नहीं है जैसा कि दुर्खीम ने देखा है, बल्कि ये तो एक दूसरे के पूरक हैं।
बीमाविदों ने आत्महत्या के सकल विस्तार प्रवृत्तियों का अध्ययन किया है और उसे प्रजाति और रंग प्रभाव, उम्र और लिंग विभाजन, शहरी और ग्रामीण क्षेत्र, मौसम स्वरूप (इन्हें दुर्खीम ने कॉस्मिक तत्व कहा है), आर्थिक स्थितियों, धार्मिक संबध्दता, वैवाहिक स्थिति से जोड़ा है। लेकिन बीमाविदों ने आत्महत्या के कारणों की कोई पक्की, सुसंगत और व्यवस्थित परिकल्पना विकसित नहीं की। दुर्खीम इसी तरह की परिकल्पना विकसित करना चाहते थे। इस बारे में बीमाई काम का गंभीर संग्रह लुईस आई. डबलिन और बैसी बनजेल की पुस्तक टु बी ऑर नॉट टु बी  में मिलता है। लेकिन अपनी व्याख्याओं के लिए डबलिन और बनजेल को मनोविकृति विज्ञान और मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान में आधुनिक प्रगति का सहारा लेना पड़ा है।
दुर्खीम अभिप्रेरणाओं को लेकर आत्महत्या संबंधी आंकड़ों के बारे में इस आधार पर संदेह व्यक्त करते हैं कि महत्वपूर्णसांख्यिकीय कार्यालयों में ये आंकड़े अप्रशिक्षित परिगणकों द्वारा तैयार किए जाते हैं और आत्मघातकों द्वारा अपने कृत्यों के जो कारण बताए जाते हैं वे अविश्वनीय होते हैं। लेकिन सामान्य रूप में आत्महत्या पर आंकड़ों की अपर्याप्तता को मनोविश्लेषकों ने बड़े प्रभावी ढंग से व्यक्त किया है। ग्रेगरी जिलबुर्ग का यह कहना है : '...आत्महत्या के बारे में आंकड़े जिस ढंग से एकत्रित किए जाते हैं उनकी विश्वसनीयता, यदि कोई है तो, बहुत कम है। इस समस्या को वैज्ञानिक छात्रों ने बार-बार कहा है कि आत्महत्या का सांख्यिकीय मूल्यांकन नहीं किया जा सकता क्योंकि बहुत सी आत्महत्याओं की सूचना ही नहीं दी जाती। जो लोग सड़क दुर्घटना द्वारा स्वयं को मारते हैं उन्हें कभी आत्महत्या नहीं बताया जाता। आत्महत्या के प्रयास के दौरान जिन लोगों को गंभीर चोटें पहुंचती हैं और जो इन चोटों या इनफेक्शन से सप्ताहों या महीनों बाद मरते हैं, उन्हें कभी आत्महत्या के रूप में पंजीकृत नहीं किया जाता। बहुत सी वास्तविक आत्महत्याएं परिवार द्वारा छिपा ली जाती है। और आत्महत्या के प्रयास चाहे कितने भी गंभीर क्यों न हों, उन्हें महत्वपूर्ण सांख्यिकीय तालिकाओं में शामिल नहीं किया जाता। जाहिर है कि इन परिस्थितियों में उपलब्ध सांख्यिकीय आंकड़ों में बहुत कम और संभवत: अत्यधिक कम प्रातिनिधिक आत्महत्याओं को शामिल किया जाता है। इसलिए समस्या के वैज्ञानिक मूल्यांकन में इन्हें लगभग व्यर्थ मानकर छोड़ देना उचित है।'
इसके अलावा ब्रिल और मैनिंगर का अनुसरण करते हुए फ्रेनिचेल ने 'आंशिक आत्महत्याओं' के प्रचलन की बात की है जिसमें मृत्यु तो नहीं होती लेकिन 'जो विषादपूर्ण अवस्थाओं में स्वयं सजा के रूप में और विभ्रम की अभिव्यक्ति करने वाले या विवेकहीन आत्म विनाशक कृत्य होते हैं।' फ्रेनिचेल के अनुसार, 'आंशिक आत्महत्या की बात बिलकुल सही है क्योंकि इसके पीछे काम करने वाला अचेतन तंत्र आत्महत्या के तंत्र जैसा है।स्पष्ट है कि इन 'आंशिक आत्महत्याओं' को आत्महत्या संबंधी आंकड़ों में कभी शामिल नहीं किया जाता। कारण, विज्ञान की दृष्टि से ये सफल आत्महत्याओं जैसे हैं; लेकिन उन सबके बारे में फ्रेनिचेल का कथन है : 'ये तत्व निश्चित रूप में मात्रात्मक हैं और इस बात को तय करते हैं कि क्या और कब इनकी परिणति आत्महत्या के रूप में होगी, किसी उन्मादी हमले के रूप में या स्वास्थ्य लाभ के रूप में। लेकिन ये तत्व अभी भी अज्ञात हैं।'
जिन अवस्थाओं में सांख्यिकीय नियमितता निश्चित लगती है, उनके बारे में भी प्रणाली विज्ञानी यह लिखता है : 'दीर्घकालिक मानव आचरण में सांख्यिकीय नियमितता इसलिए असाधारण होती है क्योंकि यह ऐसे कृत्यों में अभिव्यक्त होती है जो कुछ यांत्रिक ताकतों के परिणाम नहीं होते हैं जैसे कि घूमते हुए सिक्के का इधर-उधर जाना बल्कि जो बहुत जटिल किस्म के सघन निर्णय होते हैं।' इसके बाद वह न्यूयार्क शहर में स्त्री आत्महत्या संबंधी आंकड़े देता है।
मानना पड़ेगा कि जब तक हमारे पास मनोविकार संबंधी बेहतर रिकार्ड और अधिक गंभीर सांख्यिकीय वर्गीकरण नहीं होगा तब तक हम आयु, जातीय समूह, सामाजिक हैसियत आदि की नियमितता के बारे में कोई पक्का निष्कर्ष नहीं निकाल सकते। एक उदाहरण के तौर पर हम बता सकते हैं कि दुर्खीम, डबलिन और बनजेल और अन्य बाल आत्महत्या के बारे में कुछ खास बात नहीं करते जबकि जिलबुर्ग इसे विशेष अध्ययन का विषय मानते हैं।
आंकड़ों की अविश्सनीयता का एक और परिणाम यह है कि इसने इस काफी व्यापक निष्कर्ष को जन्म दिया है कि सभ्यता के विकास के साथ आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती है। इस स्थापना का जिलबुर्ग ने गंभीर विरोध किया है। उसका निष्कर्ष है कि स्पष्ट तौर पर आत्महत्या 'उतनी ही पुरानी है जितनी कि मानव जाति, यह संभवत: उतनी पुरानी है जितनी कि हत्या और निश्चित रूप में उतनी पुरानी है जितनी कि स्वाभाविक मृत्यु। जाति का सांस्कृतिक जुड़ाव जितना कम है इसमें आत्महत्या का मनोवेग उतना ही गहरा होता है (इटेलिक्स मूल में नहीं) ... आत्महत्या का जहां तक प्रश्न है आज का मनुष्य अपने पूर्वजों के मुकाबले अधिक अपूर्ण है। उनके पास आत्महत्या संबंधी विचारधारा थी, मिथक शास्त्र और श्रेष्ठ तकनीक थी।' जिलबुर्ग ने एक परंपरागत, लगभग सहज पूर्वग्रह की बात की है जिसके दो प्रमुख तत्वों में से एक यह 'भ्रांति है कि हमारी सभ्यता के विकास के साथ आत्महत्या दर बढ़ती है, कुछ अज्ञात तरीके से सभ्यता हमारे भीतर आत्महत्या प्रवृत्तियों का पोषण करती है।'
स्टीनमैज का कथन जिलबुर्ग के विचार को बल देता है। आदिवासी लोगों में आत्महत्या के अपने अध्ययन के आधार पर स्टीनमैज इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि 'मैं जो आंकड़े एकत्रित कर पाया हूं, उससे यह संभाव्य लगता है कि सभ्य आवामों के बनिस्वत असभ्य आवामों में आत्महत्या के प्रति अधिक झुकाव होता है।' आत्महत्या और आंशिक आत्महत्या के बारे में पर्याप्त आंकड़े मिल जाने के बाद भी स्टीनमैज का निष्कर्ष कायम रहेगा, यह उस समय तक अबूझी पहेली बना रहेगा तब तक कि हम अविश्वसनीय अभिलेखन और निराधार मान्यता के झाड़-झंखाड़ को नहीं हटा देंगे।
यह सही है कि प्रेरणा विश्लेषण और भावनात्मक जीवन की बुनियादी विशेषताओं को पकड़ने की दिशा में आधुनिक प्रगति से दुर्खीम नावाकिफ थे। जब लि सुइसाइड प्रकाशित हुई, उस समय मानव व्यवहार में 'अचेतन' के प्रेरणा बल का फ्रायड का अन्वेषण शुरू ही हुआ था। इसके चौथाई सदी बाद और लगातार नैदानिक पुष्टीकरण के पश्चात उसके विचारों को व्यापक मान्यता मिली। उस समय एमिल दुर्खीम हमारे बीच नहीं रहे। लेकिन लि सुइसाइड के आधी सदी बाद भी मनोविश्लेषक मनोविकृति विज्ञान ने मानक प्रेरणा संबंधी क्रांतिकारी निष्कर्षों को समाजविज्ञानिक खोजों के साथ जोड़ने की दिशा में कुछ खास नहीं किया (जिलबुर्ग के कुछ उत्तम उल्लेख इसके अपवाद हैं)। वास्तव में कुछ मनोविश्लेषक हैं जिनकी मान्यता लगती है कि शैशवकाल में बने व्यवहार के कुछ पैटर्नों पर सामाजिक तत्वों का बिलकुल भी गंभीर प्रभाव नहीं पड़ता और तंत्रिकाओं का सामाजिक विश्लेषण से उपचार नहीं किया जा सकता। यह विचार इस मान्यता पर आधारित लगता है कि चिकित्सा वैयक्तिक होती है और होनी चाहिए। मानसिक रुग्णता मानस के विकास से जुड़ी होती है इसलिए व्यक्ति की केस हिस्टरी का कोई सामाजिक कारण विज्ञान नहीं होता। कार्ल ए. मैनिंगर ने इस प्रवृत्ति का एक उदाहरण दिया। प्रचुर केस हिस्टरी आंकड़ों और अपने व्यापक और प्रामाणिक चिकित्सीय कार्य के बल पर मैनिंगर 'सोशल टेकनीक इन दि सर्किल ऑफ रिकंस्ट्रक्शन' शीर्षक अध्याय में कुछेक शब्द कह पाता है और ये कुछेक शब्द भी इस निष्कर्ष के साथ समाप्त होते हैं कि आत्महंता प्रेरणा बल पर मनुष्य द्वारा स्वयं नियंत्रण का आह्वान करके मृत्युवृत्ति का जीवनवृत्ति से विरोध कराया जाना चाहिए। लेकिन मैनिंगर इन आत्महंता प्रेरणा बलों और इन्हें उभारने वाले सामाजिक तत्वों के बीच संबंध का विश्लेषण नहीं कर पाता और यह भी नहीं बता पाता कि इन प्रेरणा बलों पर काबू पाने के लिए किन सामाजिक तत्वों को मजबूत किया जाना चाहिए या आगे लाया जाना चाहिए।
                                                     (क्रमशः)

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