मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

कबीर की आंखें और आलोचना की रपटन

   कबीर पर पुरूषोत्तम अग्रवाल की किताब ‘अकथ कहानी प्रेम कीः कबीर की कविता और उनका समय’ (2009)निस्संदेह सुंदर किताब है। इस किताब में कबीर की कविता की तरह ही आधुनिक विषयों का रहस्यात्मक वर्णन है।
    कबीर बड़े लेखक हैं और कबीर पर लिखना मुश्किल काम है। पुरूषोत्तम अग्रवाल ने यह काम बहुत ही सुंदर ढ़ंग से किया है। लेकिन इस किताब को कबीर का रपटनभरा उत्तर आधुनिक पाठ कहें तो ज्यादा अच्छा होगा। लेखक की मुश्किल यह है कि वह बताना चाहता है कबीर के बारे में लेकिन चला कहीं और जाता है। विषय विशेष पर स्थिर होकर फोकस करने में यह किताब असफल रही है। कहने को कबीर के कवि की खोज करना और उसे प्रतिष्ठित करना लक्ष्य था लेकिन वह काम बहुत कम जगह पाता है। पहले पुरूषोत्तम अग्रवाल की पद्धति को ही देखें।
    कबीर को एक परिप्रेक्ष्य में समग्रता में देखने की बजाय विभिन्न परिप्रेक्ष्यों में एक ही साथ देखने की कोशिश की गयी है। ज्यादा से ज्यादा विषयों पर फोकस करने के चक्कर में समूची किताब उप-पाठों का पिटारा बनकर रह गयी है। और उप-पाठ भी विखंडित हैं। अधूरे हैं । और चलताऊ भाव से लिखे गए हैं। इस किताब में विलक्षण पद्धति का इस्तेमाल किया है। पाठक को यह समझने में कठिनाई आ सकती है कि लेखक आखिर किस नजरिए से देखना चाहता है ? लेखक का आलोचना की रपटन पर सरपट दौड़ने का प्रयास करना  और फिर रपटकर गिरना खटकता है। मूलतः इस किताब में कबीर संबंधी विभिन्न विषयों पर लिखे लेख हैं इनमें कबीर का युग कम आधुनिक युग ज्यादा व्यक्त हुआ है। कबीर के विद्वानों की बजाय आधुनिकशास्त्रों के विद्वानों और आधुनिक विषयों पर शब्द खर्च ज्यादा किए गए हैं। प्रत्येक अध्याय के आरंभ में उन उप पाठों की सूची दे दी गयी है जो अध्याय में समायोजित हैं। यह किताब संचार के तत्कालीन संदर्भ को एकदम स्पर्श नहीं करती।
    पुरूषोत्तम अग्रवाल की पद्धति है कि वे पहले समस्या बनाते हैं। फिर उसे रहस्य के आवरण से बाहर करते हैं,स्वाभाविक बनाते हैं,हठात उन्हें ख्याल आता है और विधा की ओर चले जाते हैं ,उन्हें कबीर की कविता की याद आ जाती है, साथ ही मूल्यविशेष को उठाते हैं,उसे समस्या बनाते हैं,फिर इतिहास में चले जाते हैं। इतिहास के द्वंद्व और बिडम्बनाओं में रपटते रहते हैं।उनके तरह-तरह के उदाहरण देते हैं। उनके लेखन में रपटन ज्यादा है स्थिर होकर सोचने का भाव कम है। इस समूची प्रक्रिया में लेखक ने सामाजिक समस्याओं की जटिलता की ओर ध्यान खींचा है साथ ही कविता,विचारधारा और कबीर के वि-रहस्यीकरण का काम किया है। वे कबीर के समाज की समस्याओं के बहाने आज के समाज की समस्याओं पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित करते हैं।
   पुरूषोतम अग्रवाल  ने कबीर के आलोचकों को निशाने पर रखा है,उनकी आलोचना की है लेकिन अंत में उसी आलोचना दृष्टि को घुमा-फिराकर वैधता प्रदान की है। कबीर को पढ़ने का पुरूषोत्तम अग्रवाल का तरीका उत्तर आधुनिक है। वह उत्तर आधुनिकों की तरह उन बिंदुओं पर जाते हैं जहां पहले वाले आलोचक गए थे। वे बार-बार बताते हैं कि कबीर के फलां आलोचक या मध्यकाल के फलां आलोचक ने ऐसा लिखा है।  फलां ने कबीर के जमाने पर ऐसा लिखा है। इस क्रम में कबीर के भक्त समीक्षकों की समीक्षा सुंदर ढ़ंग से करते हैं। इस क्रम में वे कबीर को भगवान और अध्यात्म के चंगुल से छुड़ाने का प्रयास करते हैं। वे कबीर के पाठ को भक्ति का पाठ नहीं मानते,भगवान का पाठ नहीं मानते। वे कबीर का विश्लेषण करते हैं। उसे यथाशक्ति वस्तुगत बनाने की कोशिश करते हैं।
       कबीर की कविता महज कविता नहीं है। वह शब्दों का खेलमात्र नहीं है। बल्कि शब्दों में सांस्कृतिक पावरगेम चल रहा है। कबीर ने काव्यरचना महज स्वतःस्फूर्त्त भाव से नहीं की बल्कि उनकी कविता तत्कालीन पावरगेम का हिस्सा है। इस अर्थ में उसे महज शब्दार्थ वाली पद्धति से समझने में दिक्कत आती है। यही स्थिति अन्य भक्त कवियों की है। पुरूषोत्तम अग्रवाल की दिक्कतें यहीं पर हैं। कबीर और उनके समकालीनों के यहां आत्मगत भावों की अभिव्यक्ति के साथ-साथ पावरगेम का तानाबाना भी है। समस्या यह है कि क्या सामयिक पावरगेम से निकालकर किसी भी भक्त कवि को पढ़ा जा सकता है,किसी भी मध्यकालीन या प्राचीनयुगीन पाठ को पढ़ा जा सकता है ?
   एक अन्य समस्या है कबीर में व्यक्तिगत और आधुनिकभावबोध को खोजने की। इस मामले में कम्युनिकेशन के विकास की प्रक्रिया का सही ज्ञान ही हमें मदद कर सकता है। शब्दों के लिखने की कला के विकसित हो जाने के बाद लिखित शब्द व्यक्तिगत की अभिव्यक्ति करना बंद कर देते हैं। लेखक जब अपने युग के साथ मुठभेड़ करता है,संवाद करता है और शब्दों में लिखता है तो उसके निजी की अभिव्यक्ति नहीं होती,वह सामाजिक की अभिव्यक्ति करता है। वह अपने निजी को सामाजिक में स्थानान्तरित कर देता है। हमारे हिन्दी के अधिकांश आलोचक यह मानते हैं कि भक्ति आंदोलन के कवियों के यहां व्यक्तिगत बड़ी मात्रा में है। वे लेखन के युग के आने के साथ ही शब्द में से निज के सामाजिक हो जाने की प्रक्रिया की अनदेखी करते हैं और यह कमजोरी पुरूषोत्तम अग्रवाल की किताब में भी है।
वाचिक युग में शब्द अपनी मनमानी क्रीड़ा करते हैं लेकिन लेखन के युग में वे ऐसा नहीं कर पाते। कबीर का युग लेखन का युग है वाचन का युग नहीं है। इस दौर में कवि लिखता था। लिपिबद्ध करने की कला का विकास हो चुका था। अतः इस दौर की कविता में व्यक्त भावों को निजता के दायरे में नहीं रख सकते। वाचन के युग में शब्दों का अनियंत्रित खेल था, मनमानापन था। लेकिन लेखन के युग के आने के साथ यह मनमानापन खत्म हो जाता है। पहले विषय के अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों की जरूरत होती थी लेकिन लेखन के युग में आने के बाद शब्द ही विषय बन गए। यही वजह है कबीर और अन्य कवियों के भाषिक प्रयोगों और उनकी व्याख्याओं पर बेशुमार ऊर्जा खर्च की गई है। वाचिक शब्द हमेशा जनता और यथार्थ से जुड़े रहते हैं। लेकिन लिखित शब्द के साथ ऐसा नहीं होता वहां अमूर्त्तन की स्थिति होती है। कबीर के यहां जिन्हें हम रहस्यपरक भाषिक प्रयोग मानते हैं उनका बुनियादी कारण है इस युग के कवियों का वाचन से लेखन के युग में पदार्पण। लिखित भाव में आते ही शब्दों के तर्कशास्त्र ,सिद्धांत और विश्लेषण का सिलसिला चल पड़ता है।
   कबीर की कविता की खूबी है कि वे शब्दों को सुनते नहीं हैं बल्कि देखते हैं। संस्कृति को सुनते नहीं  देखते हैं। इसके कारण ही वे कविता में मात्र भावों की अभिव्यक्ति नहीं करते बल्कि संस्कृति का विश्लेषण करते हैं । क्योंकि वे संस्कृति को सुनते नहीं हैं ,देखते हैं। इस क्रम में वे भाषा की त्रुटियों या भदेसभाषा में भी सहज रूप में चले जाते हैं कबीर के लिए संस्कृति की भाषा शिष्टभाषा नहीं है बल्कि वे जिस भाषा को देख रहे हैं वही है।
   कबीर की कविता की भाषा में विषय और व्यक्ति,शब्द, अर्थ और सामाजिक भूमिका और इससे भी ऊपर सामयिक जिंदगी की धुन का छंद हावी है। भक्ति आंदोलन के अधिकतर कवियों को भक्त कवि कहा जाता है वे कवि हैं ,भक्तकवि नहीं हैं। भक्त का संसार अलग है,कवि का संसार अलग है। ये दार्शनिक नहीं हैं, कवि हैं। भक्त भगवान की सुनता है कवि भगवान की नहीं सुनता। उपदेशक भगवान की सुनता है कवि नहीं सुनता। भक्ति आंदोलन के कवियों ने कानों से संस्कृति को नहीं सुना था आंखों से देखा था।
     संस्कृति को सुनना और देखना इन दोनों में बुनियादी अंतर होता है। संस्कृति को कानों से सुनने का अर्थ अनुकरण करना और संस्कृति को आंखों से देखने का अर्थ है अपने को अलग करना,पृथक करना। भक्ति आंदोलन के कवियों के द्वारा संस्कृति,जातिप्रथा,भेदभाव आदि बातों की जो काव्यालोचना मिलती है उसका कारण यह नहीं है उनके पास आधुनिकभावबोध था,बल्कि उसका प्रधान कारण है इन कवियों का संस्कृति को देखना। वे संस्कृति को आंखों से देख रहे थे। आंखों से देखने के कारण ही वे अपनी कविता में तमाम किस्म की सांस्कृतिक रूढ़ियों को आलोचनात्मक नजरिए से देखने में सफल रहते हैं। पुरूषोत्तम अग्रवाल के नजरिए की यही बुनियादी कमजोरी है कि वह लेखन के युग में शब्द और संस्कृति की प्रक्रिया में आए बुनियादी बदलावों को पकड़ने में असमर्थ रहे हैं।
    भक्ति आंदोलन के कवि सुनते नहीं हैं आंखों से देखते हैं। वे वाचिकयुग में नहीं हैं बल्कि लेखन के युग में आ गए हैं। यह प्रक्रिया आधुनिककाल और भक्तिकाल के बहुत पहले से भारत मे आरंभ हो गयी थी। भक्ति आंदोलन के कवि उस परंपरा का हिस्सा है। वे संस्कृति को आंखों से देखते हैं। हम भी संस्कृति को आंखों से देखें।
 
          





1 टिप्पणी:

  1. "भक्ति आंदोलन के अधिकतर कवियों को भक्त कवि कहा जाता है वे कवि हैं, भक्तकवि नहीं हैं। भक्त का संसार अलग है, कवि का संसार अलग है। ये दार्शनिक नहीं हैं, कवि हैं। भक्त भगवान की सुनता है कवि भगवान की नहीं सुनता। उपदेशक भगवान की सुनता है कवि नहीं सुनता। भक्ति आंदोलन के कवियों ने कानों से संस्कृति को नहीं सुना था आंखों से देखा था।
    संस्कृति को सुनना और देखना इन दोनों में बुनियादी अंतर होता है। संस्कृति को कानों से सुनने का अर्थ अनुकरण करना और संस्कृति को आंखों से देखने का अर्थ है अपने को अलग करना,पृथक करना। भक्ति आंदोलन के कवियों के द्वारा संस्कृति,जातिप्रथा,भेदभाव आदि बातों की जो काव्यालोचना मिलती है उसका कारण यह नहीं है उनके पास आधुनिकभावबोध था,बल्कि उसका प्रधान कारण है इन कवियों का संस्कृति को देखना।"
    भक्त, कवि, दार्शनिक, उपदेशक, श्रोता और दर्शक के संबंध और अंतरविरोध को आपने बखूबी व्याख्यायित किया है। आपकी समीक्षा पुनः पुस्तक की ओर बढने को प्रेरित करती है। सो अब तो पुस्तक पुनः पढनी ही होगी के लिए। सादर।

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