(आज के ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ के कोलकाता संस्करण में आत्महत्या की दो खबरें छपी हैं। इस तरह की खबरें आए दिन मीडिया में आती रहती हैं। लोग आत्महत्या क्यों करते हैं और इससे कैसे बचा जाए इस पर हमारे पास बहुत कम जानकारी है। सामान्य रूप में आंध्र और महाराष्ट्र के किसानों ने कर्ज के कारण जब आत्महत्याएं कीं तो आम लोगों का इस समस्या की ओर ध्यान गया और हमारे मीडिया विशेषज्ञों ने इस पर कुछ लिखा भी। लेकिन आत्महत्या एक गंभीर सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक समस्या है। यहां पर हम महान प्रसिद्ध समाजशास्त्री एमिल दुर्खीम की महान कृति ‘आत्महत्या’ के कुछ अंश प्रकाशित कर रहे हैं,जिससे इस फिनोमिना को समझने में मदद मिले। एमिल दुर्खींम की इस महान किताब को ग्रंथशिल्पी ने छापा है। इसका अनुवाद रामकिशन गुप्ता ने किया है। इस किताब की भूमिका जॉर्ज सिंपसन ने लिखी है,पेश है,वह भूमिका)
सामाजिक और प्राकृतिक तत्व के साथ आत्महत्या के अंतर्संबंध का एमिल दुर्खीम का फलक इतना व्यापक और विविध है कि इसके सभी मार्गों और उन मार्गों को इस छोटे से परिचय में शामिल करना संभव नहीं है। एक नातिदीर्घ वॉल्यूम में दुर्खीम ने सामान्य और असामान्य मनोविज्ञान, सामाजिक मनोविज्ञान, मानवशास्त्र (विशेष रूप में प्रजाति की अवधारणा), मौसमी और अन्य 'अंतरीक्षी' तत्वों, धर्म, विवाह, परिवार, तलाक, प्राचीन अनुष्ठानों और रिवाजों, सामाजिक और आर्थिक संकटों, अपराध (विशेषकर नरहत्या) और कानून और कानूनशास्त्र, इतिहास, शिक्षा और व्यावसायिक समूहों पर विचार किया है या उन्हें स्पर्श किया है। लेकिन इसके बावजूद एक अल्प मूल्यांकन संभव है क्योंकि आत्महत्या के इन सभी सहायक विषयों पर काम करते समय दुर्खीम की यह मान्यता रही है कि आत्महत्या, जो कि व्यक्ति से जुड़ा तत्व लगती है, का वास्तव में कारण सामाजिक ढांचे और उसके कार्यकरण में देखा जा सकता है।
दुर्खीम की पुस्तक के शुरुआती अध्यायों में उन सिध्दांतों का खंडन किया गया है जिनमें आत्महत्या के कारणों को समाजेतर बताया गया है जैसे कि मानसिक परायापन, मानवशास्त्रीय अध्ययन के अनुसार प्रजातीय विशेषताएं, आनुवंशिकता, जलवायु तापमान। अंत में उन्होंने 'अनुकरण' के सिध्दांत को नकारा है, विशेष रूप में गैब्रिएल टोर्ड के सिध्दांत को जिसके उस समय फ्रांस में बहुत अनुयायी थे और जिसके खिलाफ दुर्खीम ने शिष्टता के दायरे में जबर्दस्त अभियान छेड़ा हुआ था। इन प्रारंभिक अध्यायों में दुर्खीम दरकिनार करने की प्रक्रिया में लगे हुए हैं। जो सिध्दांत आत्महत्या के लिए व्यक्तिगत या अन्य समाजेतर कारणों का सहारा लेते हैं उन्हें निरस्त कर दिया जाता है। केवल सामाजिक कारणों को विचार के लिए छोड़ दिया जाता है। इसके आधार पर उस सिध्दांत की स्थापना की जाती है जिसका जिक्र उन्होंने अपने परिचय में किया है और वह यह कि आत्महत्या दर अद्वितीय तत्व है अर्थात किसी भी समाज में आत्महत्याओं की समग्रता एक अलग, विशिष्ट तथ्य है जिसका अध्ययन उसकी अपनी स्थितियों के अनुसार किया जा सकता है।
दुर्खीम के अनुसार आत्महत्या की व्याख्या उसके वैयक्तिक रूपों में नहीं की जा सकती और आत्महत्या दर अपने आप में एक विशिष्ट तत्व है। इसलिए वह आत्महत्या के प्रवाहों को सामाजिक सहचर तत्वों से जोड़ते हैं। दुर्खीम के अनुसार किसी भी वैयक्तिक आत्महत्या के कारणों का इन सामाजिक सहचर तत्वों के आलोक में ही पता लगाया जा सकता है।
धार्मिक संबध्दता, विवाह और परिवार और राजनीतिक और राष्ट्रीय समुदायों का अध्ययन करते हुए दुर्खीम आत्महत्या की अपनी तीन श्रेणियों में से पहली अर्थात अहंकारी आत्महत्या के निष्कर्ष तक पहुंचते हैं। इस तरह की आत्महत्या व्यक्ति के समाज से न जुड़ पाने के कारण होती है। किसी समाज में व्यक्ति को अपनी हालत पर छोड़ देने की प्रवृत्ति जितनी अधिक बलवती होगी उसमें आत्महत्या दर उतनी ही अधिक होगी। धार्मिक समाज के मामले में आत्महत्या दर कैथोलिकों में सबसे कम है। ये लोग उस धर्म के अनुयायी हैं जो व्यक्ति को बहुत नजदीक से सामूहिक जीवन के साथ जोड़ता है। प्रोटेस्टेंटवाद की दर अधिक है और इसका ताल्लुक वहां मौजूद अत्यधिक व्यक्तिवाद से है। वास्तव में विज्ञान और ज्ञान में प्रगति, जो कि प्रोटेस्टेंटवाद के अंतर्गत लौकिकीकरण का हिस्सा है, ने मनुष्य के सामने संसार की परतें खोलने के साथ-साथ समूह से व्यक्ति की संबध्दता को विखंडित किया। यह स्थिति उच्च आत्महत्या दर के रूप में प्रकट होती है।
दुर्खीम के अनुसार अहंकारी आत्महत्या उस अवस्था में भी देखी जा सकती है जहां व्यक्ति का परिवार जीवन के साथ कम एकीकरण है। परिवार में जितनी अधिक सघनता होगी व्यक्तियों की आत्महत्या से निरापदता उतनी ही अधिक होगी। आत्महत्या दर के स्पष्टीकरण में जीवनसाथी की व्यक्तिगत विशेषताओं का कोई महत्व नहीं है। यह परिवार की संरचना और इसके सदस्यों द्वारा अदा की गई भूमिका पर आधारित है। राजनीतिक और राष्ट्रीय समुदायों के मामले में दुर्खीम की स्थापना है कि बड़े संकटों के दौरान आत्महत्या दर गिर जाती है क्योंकि उस समय समाज अधिक जुड़ा होता है और व्यक्ति अधिक सक्रिय रूप से सामाजिक जीवन में हिस्सा लेता है। उसका अहं कम हो जाता है और जीने की इच्छा मजबूत हो जाती है।
सामाजिक समूहों ने एकीकरण की मात्रा के अनुरूप आत्महत्या दर में परिवर्तन की स्थापना के बाद दुर्खीम उन समाज-समूहों में आत्महत्या के तथ्य पर विचार करते हैं जहां व्यक्ति का अपेक्षाकृत अधिक एकीकरण है जैसे कि निचले समाज में। यहां व्यक्ति के जीवन पर रिवाजों और आदतों का कड़ा शासन होता है। ऐसे समाज में होनेवाली आत्महत्या को दुर्खीम परार्थवादी बताते हैं। यहां व्यक्ति धार्मिक बलिदान या विवेकहीन राजनीतिक निष्ठा से जुड़े उच्च आदेशों के कारण अपनी जान लेता है। आधुनिक समाज में इस तरह की आत्महत्या दुर्खीम सेना में पाते हैं जहां आज्ञाकारिता के प्राचीन रूप आज भी प्रचुर रूप में मौजूद हैं।
अहंकारी आत्महत्या और परार्थवादी आत्महत्या को समाज में व्यक्ति के एकीकरण की मात्रा का सूचक माना जा सकता है। पहले मामले में व्यक्ति पर्याप्त से कम रूप में और दूसरे मामले में पर्याप्त से अधिक रूप में एकीकृत होता है। दुर्खीम के विचार से एक अन्य प्रकार की आत्महत्या होती है जो समाज द्वारा व्यक्ति का विनियमन न किए जाने का परिणाम होती है। इसे उन्होंने एनोमिक आत्महत्या कहा है जो आधुनिक अर्थव्यवस्था के साथ आई। व्यक्ति की आवश्यकताएं और उनकी संतुष्टि समाज द्वारा विनियमित होती है। स्वयं द्वारा सीखे गए आम विश्वास और प्रथाएं उसे बकौल दुर्खीम सामूहिक चेतना का हिस्सा बना देते हैं। व्यक्ति के इस तरह विनियमन में जब गड़बड़ी पैदा होती है और उसका क्षितिज उसकी सहनशक्ति से अधिक विस्तृत हो जाता है या इसके विपरीत बेहद सिकुड़ जाता है तो एनोमिक आत्महत्याएं बहुत अधिक हो जाती हैं।
उदाहरण के लिए, दुर्खीम अचानक दौलत आ जाने को आत्महत्या के प्रेरक के रूप में देखते हैं और यह इस आधार पर कि नया दौलतमंद व्यक्ति स्वयं को मिले अवसरों के साथ गति नहीं रख पाता। उसकी इच्छाओं की उच्च और निम्न सीमाओं, उसके जीवन के पैमाने सब में गड़बड़ी पैदा हो जाती है। दुर्खीम के अनुसार तलाक के रूप में वैवाहिक एनोमी में भी इसी तरह की स्थिति पैदा होती है। जीवनसाथियों पर समाज का विनियमनकारी प्रभाव समाप्त हो जाता है। तलाकशुदाओं में आत्महत्या दर अपेक्षाकृत अधिक होती है। यह एनोमिक स्थिति तलाकशुदा स्त्रियों के बजाए तलाकशुदा पुरुषों में अधिक देखने को मिलती है क्योंकि दुर्खीम के अनुसार विवाह के विनियमनकारी प्रभाव से पुरुष अधिक लाभान्वित होता है।
अपने विश्लेषण में इस बिंदु पर पहुंचकर दुर्खीम दावा करते हैं कि आत्महत्या के वैयक्तिक रूपों का समुचित रूप में वर्गीकरण किया जा सकता है। कारण, विज्ञान के आधार पर तीन रूपोंअहंकारी, परार्थवादी और एनोमिक की स्थापना के बाद उनका कहना है कि इनमें से किसी रूप के अंतर्गत आने वाले व्यक्ति के व्यवहार पैटर्न का वर्णन किया जा सकता है। इसके विपरीत व्यक्ति टाइप का अन्वेषण करके आत्महत्या के कारणों का पता लगाना दुर्खीम के मूल दावे के अनुसार निरर्थक है। तीन अलग प्रकार के वैयक्तिक रूपों को तालिकाबध्द करने के बाद दुर्खीम यह स्थापित करते हैं कि आत्महत्या के ऐसे वैयक्तिक रूप भी मिलते हैं जो मिश्रित प्रकार के होते हैं जैसे कि अहंकारी एनोमिक, परार्थ एनोमिक और अहंकारी परार्थवादी।
इस प्रकार स्वयं को उपलब्ध आंकड़ों को दुर्खीम जैविक या कॉस्मिक नहीं बल्कि परिवार, राजनीतिक और आर्थिक समाज, धार्मिक समूहों जैसे सामाजिक तत्वों से संबध्द पाते हैं। उनका दावा है कि इस संबध्दता से निर्णायक रूप में यह संकेत मिलता है कि प्रत्येक समाज का आत्महत्या के प्रति सामूहिक झुकाव होता है और आत्महत्या की एक दर होती है। प्रत्येक समाज के लिए यह स्थिति काफी स्थिर होती है और तब तक चलती रहती है जब तक कि उसके अस्तित्व की बुनियादी स्थिति यथावत बनी रहती है। दुर्खीम का विश्वास है कि यह सामूहिक झुकाव उनकी पुस्तक दि रूल्स ऑफ सोशियोलॉजिकल मेथड में दी गई सामाजिक तथ्य की उनकी परिभाषा के अनुरूप है। अर्थात यह झुकाव व्यक्ति से परे अपने आप में एक सचाई है जो उस पर दबाव डालती है। संक्षेप में, आत्महत्या के प्रति वैयक्तिक झुकाव की वैज्ञानिक व्याख्या उसे सामूहिक झुकाव से जोड़ कर ही की जा सकती है और यह सामूहिक झुकाव अपने आप में समाज संरचना, जिसमें व्यक्ति रहता है, का निश्चित प्रतिबिंब है।
दुर्खीम के विचार से जीवन के बारे में वैयक्तिक विचारों की समग्रता वैयक्तिक विचारों के जोड़ से अधिक है। इसका अपने आप में अस्तित्व है। इसे उन्होंने सामूहिक चेतना, विश्वासों और प्रथाओं, लोकमार्ग और लोकाचार की समग्रता कहा है। यह आम भावनाओं का भंडार है, एक जलस्रोत है जिससे व्यक्ति-चेतना को अपना नैतिक आहार मिलता है। जहां ये आम भावनाएं कठोरता के साथ व्यक्ति का मार्गदर्शन करती है, जैसा कि कैथोलिकवाद में, और अपना जीवन लेने की निंदा करती हैं, वहां आत्महत्या दर कम होती है; जहां ये सामान्य भावनाएं वैयक्तिकतावाद, नवोन्मेष और स्वच्छंद विचार पर बल देती हैं, वहां व्यक्ति पर नियंत्रण ढीला पड़ जाता है। वह समाज के साथ बहुत कमजोर रूप में बंधा होता है। उसे बहुत आसानी से आत्महत्या की ओर धकेला जा सकता है। बाद वाली स्थिति प्रोटेस्टेंटवाद में पाई जाती है। दुर्खीम के अनुसार, निम्न समाजों में सामूहिक चेतना में व्यक्ति जीवन का बहुत कम मूल्य होता है और आत्महत्या के रूप में आत्मदाह वास्तव में व्यक्ति में समाज के सक्रिय होने का प्रतिबिंब है और उच्च समाजों में जहां व्यक्ति सामान्य भावनाओं और विश्वासों के जरिए एक स्थिति का आदी हो जाता है वह स्थिति एक समय गड़बड़ा जाती है। फलस्वरूप एनोमी पैदा होती है जो बढ़ी हुई आत्महत्या दर में प्रकट होती है।
दुर्खीम के अनुसार आत्महत्या अपने आप में अपराध की तरह अनैतिकता की सूचक नहीं है। वास्तव में एक निश्चित समाज में आत्महत्याओं की एक निश्चित संख्या की अपेक्षा रहती है। यदि कहीं यह दर तेजी से बढ़ती है तो यह सामूहिक चेतना के ध्वस्त हो जाने और सामाजिक ताने-बाने में बुनियादी कमी का लक्षण है। जैसा कि कुछ अपराध विज्ञानियों ने दावा किया है, आत्महत्या और आपराधिकता सह-संबध्द नहीं हैं। हालांकि यदि दोनों बहुत ज्यादा हो जाएं तो यह इस बात का संकेत होगा कि सामाजिक संरचना ठीक से काम नहीं कर रही है।
दुर्खीम का मानना है कि उन्नीसवीं शताब्दी में आत्महत्या दर में जो तेजी से वृध्दि हुई उसे शिक्षा, उपदेशों या दमन से कम नहीं किया जा सकता। दुर्खीम के अनुसार, सभी सुधारात्मक उपायों का लक्ष्य सामाजिक संरचना होनी चाहिए। अहंकारी आत्महत्या को सामूहिक जीवन में व्यक्ति को फिर एकीकृत करके और मजबूत सामूहिक चेतना के जरिए उसमें दृढ़ निष्ठा पैदा करके कम किया जा सकता है। उनका विचार है कि यह काम कार्यहितों के आधार पर व्यवसाय समूह, ठोस स्वैच्छिक संघ फिर से स्थापित करके काफी हद तक पूरा किया जा सकता है। अपनी डिविजन ऑफ लेबर इन सोसाइटी के दूसरे संस्करण में भी उन्होंने यही अनुशंसा की। व्यवसाय समूह से एनोमिक आत्महत्याओं को कम करने में भी मदद मिलेगी। वैवाहिक एनोमी के मामले में उन्होंने स्त्रियों की अधिक आजादी और समानता की पैरवी की है।
इस प्रकार दुर्खीम के अनुसार आत्महत्या आधुनिक समाज में गहरे संकट की सूचक है। किसी भी अन्य सामाजिक तथ्य के बारे में यही बात कही जा सकती है। उनके अनुसार किसी भी सामाजिक तथ्य को अन्य सामाजिक तथ्यों के आलोक में और समाज की बुनियादी संरचना के संदर्भ में ही व्याख्यायित किया जा सकता है। (क्रमशः)
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