यहां हम एक ध्यान देने योग्य बहस तथा विभिन्न विचारों को सुनने के लिए इकट्ठा हुए हैं। प्रतिष्ठित और संवेदनशील विचारकों ने यहां आकर हमारा मान बढ़ाया है। लेकिन हम कोई शिकायत नहीं कर सकते। हम ऐसे युग में रह रहे हैं जिसे मानव इतिहास में अत्यधिक असाधारण और निर्णायक युग कहा जा सकता है। कोलंबिया विश्वविद्यालय के अमरीकी प्रोफेसर एडमेंड फेप्स जिस आर्थिक विषय पर बोल रहे थे, उससे अलग मुद्दा छेड़े जाने पर उन्होंने कहा, 'यह मेरा और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के प्रतिनिधियों का मुद्दा नहीं है। इन्होंने यह जानते हुए भी यहां आने का आमंत्रण कृपापूर्वक स्वीकार किया है कि इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने वाले अधिकांश लोगों के विचार उनकी संस्थाओं द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियों के काफी उलट हैं। आतिथ्य सत्कार और अलग मन रखने वालों के प्रति सम्मान इस तरह की बैठकों की परंपरा बन गई है। व्यक्त विचारों का मुकाबला यदि दुनिया के बारे में भिन्न दृष्टिकोण रखने वाले लोगों के बिलकुल उलट लेकिन बहादुरी के साथ संजोए गए विचारों से नहीं किया गया तो हमारे विश्लेषण का क्या अर्थ रह जाएगा?'
हममें से जो विद्वान नहीं हैं उनको भी साहस की खुराक चाहिए। दुनिया में जो कुछ हो रहा है उसे अधिकाधिक जान लेने की कोशिश के बावजूद कभी-कभी हमारे पास यह जानने के लिए समय नहीं होता कि हम जिस अद्वितीय इतिहास प्रक्रिया से गुजर रहे हैं उसके बारे में क्या नए तथ्य और विचार उभरकर सामने आ रहे हैं और हमारे सामने खड़ा अनिश्चित भविष्य कैसा होगा? मैं पहले ही बता दूं कि आज मेरा विषय अर्थशास्त्र नहीं है। आज मेरा विषय राजनीति शास्त्र है। हालांकि राजनीतिशास्त्र के बगैर अर्थशास्त्र या अर्थशास्त्र के बगैर राजनीतिशास्त्र जैसी कोई चीज नहीं होती।
पहले जो चीज थी या आज जो है वह मानवता पर थोपी गई है। मानव जाति को विकसित करके विवेकशील हस्ती बना देने वाले प्राकृतिक नियमों से लेकर जाति मूल, चमड़ी के रंग तक; वनों में फल तथा कंदमूल बटोरने, शिकार करने या मछली पकड़ने वाले व्यक्तियों से लेकर ऐसे पूंजीवादी उपभोक्ता समाजों तक यही बात लागू होती है जिनसे धनी राष्ट्रों का एक समूह आज धरती को लहूलुहान कर रहा है।
विकसित पूंजीवाद, आधुनिक साम्राज्यवाद और नव उदार भूमंडलीकरण विश्व शोषण की प्रणालियों के रूप में दुनिया पर थोपे गए हैं। दूसरी ओर सभी मानवों के लिए विचारकों और दार्शनिकों द्वारा शताब्दियों से मांगे जा रहे न्याय के सिद्धांत धरती पर वास्तविकता नहीं बने हैं। यहां तक कि जिन्होंने 1776 में उत्तरी अमरीका के 13 ब्रिटिश उपनिवेशों को यह 'स्वत:स्पष्ट' घोषणा करते हुए स्वतंत्र कराया था कि सभी मनुष्य एक जैसे बनाए गए और विधाता ने सभी को कुछ अभिन्न अधिकार दिए हैं, जैसे कि जीवन, स्वतंत्रता, खुशी की तलाश, वे भी दासों को स्वतंत्र नहीं करा सके। इसके विपरीत यह विकराल प्रथा लगभग पूरी एक शताब्दी पर्यंत उस समय तक चलती रही जब तक कि वह पुरानी और अटिकाऊ नहीं हो गई और इसका स्थान एक ऐसे वहशी और खूनी युद्ध ने न ले लिया जिसमें शोषण और प्रजातीय भेदभाव के सूक्ष्म और आधुनिक तरीकों का प्रयोग किया जाता है। 1789 में फ्रांसीसी क्रांति करने वालों के बारे में भी यही कहा जा सकता है। उन्होंने स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की घोषणा की लेकिन हैती में अपने गुलामों की आजादी और इस लाभप्रद उपनिवेश की स्वतंत्रता की बात नहीं मानी। इसके विपरीत उनके दमन के असफल प्रयास के रूप में उन्होंने 30000 सैनिक भेजे। प्रबोधन के हामीदार लोगों की इच्छाओं या मंशाओं के बावजूद वास्तव में उपनिवेशवादी युग शुरू हुआ। शताब्दियों तक चला यह उपनिवेशीकरण अफ्रीका, ओशनिया और लगभग पूरे एशिया में फैल गया और इसने इंडोनेशिया, भारत और चीन जैसे विशाल देशों को भी अपने घेरे में ले लिया।
जापान के साथ व्यापार के दरवाजे बम गिराकर करके खोले गए। आज लोकतंत्र, स्वतंत्रता और देशों की आजादी के नाम पर 5 करोड़ लोगों की जान लेने वाले युध्द के बाद उसी तरह से विश्व व्यापार संगठन तथा बहुपक्षीय निवेश करार के लिए, दुनिया के वित्तीय संसाधनों पर नियंत्रण, विकासशील देशों में सरकारी कंपनियों के निजीकरण, पेटेंटों और टेक्नोलोजी पर एकाधिकार के लिए दरवाजे धमाका करके खोले जा रहे हैं। खरबों डालर का कर्ज चुकाने की मांग की जा रही है जिसे न तो कर्जदाता वसूल कर सकते हैं और न कर्जदार अदा कर सकते हैं क्योंकि ये कर्जदार अधिकाधिक गरीब तथा भूखे होते जा रहे हैं। उनका जीवन स्तर उन लोगों के जीवन स्तर से अधिकाधिक कम होता जा रहा है जो शताब्दियों तक उसके उपनिवेशवादी मालिक थे और जिन्होंने उनके बेटों और बेटियों को गुलामों के रूप में बेचा या मौत के कगार तक शोषण किया, बिलकुल उसी तरह से जैसे उन्होंने इस गोलार्ध के मूल निवासियों के साथ किया था।
यह नहीं कहा जा सकता कि 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दुनिया को फिर से उसी तरह बांटा जा रहा है जैसे कि 19वीं शताब्दी के अंत या 20वीं शताब्दी के शुरू में बांटा गया था। आज दुनिया को बांटा नहीं जा सकता क्योंकि अब वह पूरी तरह से एक राष्ट्र के कब्जे में है जो उथल-पुथल के इस इतिहास के बाद एकमात्र महाशक्ति तथा सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में उभरा है। यही कारण है कि वाशिंगटन में आखिरी शब्द या बयान की घोषणा किए जाने से पहले या इस तरह की घोषणा के समय दुनिया के लगभग सभी देशों की राजधानियां कांपने लगती हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के बारे में यदि कोई भ्रम था तो वह मुश्किल से 17 महीने पहले विनाशकारी 11 सितंबर को खत्म हो गया तथा उसकी जगह भयंकर तथा अभूतपूर्व एकतरफावाद ने ले ली है।
पिछले कुछ दिनों में मैंने यहां अपने विशिष्ट अतिथियों को विभिन्न मुद्दों पर बहुत तीखे तर्क देते हुए सुना मसलन विश्व आर्थिक संकट विशेष रूप से लैटिन अमरीका में स्थिति, एफ.टी.ए.ए., वर्तमान दुनिया में गरीब देशों के विकास में बाधाएं, सामाजिक नीतियों की भूमिका तथा इतनी अधिक और ऐसी गंभीर त्रासदियों के कारणों के बारे में इन मुद्दों द्वारा प्रकाश में लाए गए विस्तृत तथ्य। जब मैं यह सुनता हूं कि सकल घरेलू उत्पाद बढ़ा या गिरा, लगातार वृध्दि हुई और फिर रुक गई, घाटे को कम करने, संतुलन बहाल करने, नौकरियां पैदा करने, गरीबी कम करने, विकास को बढ़ावा देने, दायित्व पूरे करने के लिए निर्यात जरूरी है और जब यह कहा जाता है कि निजीकरण बहुत उपयोगी हो सकता है, विश्वास पैदा कर सकता है, किसी भी कीमत पर निवेश आकर्षित कर सकता है, प्रतिस्पर्धा पैदा कर सकता है, इत्यादि तो मेरा मन इस बात की प्रशंसा किए बगैर नहीं रहता कि किस प्रकार आधी शताब्दी से ये लोग अल्पविकास और गरीबी को दूर करने के उपाय सुझा रहे हैं।
मैंने पहले कहा था कि सभी मतों का सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन इसी तरह से हमारे दिमागों में उठने वाले सवालों और संदेहों का भी सम्मान किया जाना चाहिए। हम किस तरह की रमणीय दुनिया में जी रहे हैं? न्यूनतम समानता की ऐसी स्थितियां कहां है जहां से हमें अर्थशास्त्र के स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले समाधान मिल सकें और जिनसे तीसरी दुनिया के देशों का विकास हो सके? क्या वास्तव में मुक्त स्पर्धा, संसाधनों की समान उपलब्धता या संबंधित शिल्प विज्ञानों तक सबकी पहुंच है? इन पर तो उन लोगों का एकाधिकार है जो न केवल अपनी प्रतिभाओं का फल खाते हैं बल्कि दूसरों की अर्थात ऐसे अल्पविकसित देशों से छीनी गई प्रतिभाओं का फल भी खाते हैं जिन्होंने उनके प्रशिक्षण पर अपने सीमित संसाधन लगाए हैं तथा जिन्हें इसके बदले में एक कौड़ी भी नहीं मिलती।
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं और भारी मात्रों में फालतू निधियां किसके हाथों में हैं? बड़े बैंकों के मालिक कौन हैं? वित्तीय सट्टेबाजी, कर चोरी, बड़े पैमाने पर नशे के पदार्थों के व्यापार, भारी गबन से कमाई गई मोटी रकमें कहां कैसे और किसके द्वारा जमा कराई जाती हैं? मोबुतु तथा सरकारी धन के अन्य दर्जनों गबनकर्ताओं की निधियां कहां हैं जिन्होंने अपने पश्चिमी अभिभावकों के आशीर्वाद से अपने संसाधन और अपनी प्रभुसत्ता विदेशियों को सौंप दी? पूर्व सोवियत संघ और रूस से सैकड़ों अरब डालर कहां गायब हो गए और ऐसा उस समय कैसे हुआ जब यूरोप और अमरीका से आए सलाहकार, विशेषज्ञ और विचारक उसे पूंजीवाद का शानदार और सौभाग्यशाली मार्ग दिखा रहे थे और हर दिशा से गिध्द देश के प्राकृतिक और आर्थिक संसाधनों पर टूट रहे थे? इस तथ्य के लिए कौन जिम्मेदार है कि आज उसकी जनसंख्या घट रही है और उसकी स्वास्थ्य स्थितियोंशिशुतथा माता मृत्यु सहित की हालत खराब हो रही है तथा फासिज्म के खिलाफ लड़ने वाले इसके वृध्द स्त्री-पुरुषों सहित सभी लोग भूख तथा अत्यधिक गरीबी से ग्रस्त हैं? (क्रमशः)
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