शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

भारतीय सभ्यता का परमानंद है दुर्गापूजा

        आज दुर्गा अष्टमी है और पश्चिम बंगाल का माहौल एकदम भिन्न है। समूचा प्रांत दुर्गा में डूबा है। जगह-जगह मंडपों में लाखों लोगों की भीड़ लगी है। लोगों की उत्सवधर्मिता का आलम यह है कि कल शाम को अचानक तेज बारिश हो गयी तो कुछ देर के लिए लगा कि अब लोग नहीं निकलेंगे। लेकिन बारिश थमते ही लोगों की भीड़ का रेला सारे पंडालों में उमड़ पड़ा।
      दुर्गा के नाम पर जनोन्माद और जनोत्सव विलक्षण चीज है। दुर्गापूजा की इस जनधर्मिता पर लोग तरह-तरह से आनंद मना रहे हैं। पूजामंडपों को शानदार तरीकों से सजाया गया है। मंडपों के आसपास बाजार-दुकानें-स्टॉल आदि भी हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं राजनीतिक दलों के साहित्य की दुकानें इनसे लोग किताबें बगैरह भी खरीद रहे हैं। तकरीबन प्रत्येक मंडप के आसपास मार्क्सवादी साहित्य की बिक्री की दुकानें लगी हैं। विभिन्न दलों के स्टॉल भी हैं जिनमें इन दलों के नेता स्थानीय जनता के साथ संपर्क-संबंध बनाने का काम कर रहे हैं। इस आयोजन में कम्युनिस्टों से लेकर कांग्रेसियों की शिरकत सहज देखी जा सकती है। जो लोग कहते हैं कि कम्युनिस्ट धर्म नहीं मानते उनकी धारणा को बंगाल के कम्युनिस्टों की इस महापर्व में सक्रिय हिस्सेदारी खंडित करती है। 
       दुर्गापूजा की सांस्कृतिक विविधता,तरह-तरह के रंगारंग कार्यक्रम और देर रात तक चलने वाली सांस्कृतिक प्रतियोगिताएं बेहद रोचक और जनशिरकत पर आधारित होती हैं और वे मुझे बेहद आकर्षित करती हैं। इस तरह की प्रतियोगिताएं प्रत्येक मंडप के पास हो रही हैं। इनमें घरेलू स्त्रियों से लेकर युवा और बूढ़ों तक की भागीदारी आनंद में कई गुना वृद्धि करती है।
   एक तरह से देखें तो दुर्गापूजा जनोत्सव है। इसमें राज्य का प्रत्येक परिवार आर्थिक चंदा देता है। कोई भी ऐसा परिवार नहीं है जो पूजामंडप सजाने के लिए चंदा न देता हो। कईबार चंदा देने न देने पर पंगा भी हो जाता है। लेकिन कमोबेश सभी चंदा देते हैं। भारत में कहीं पर भी दुर्गापूजा या अन्य किसी देवता की पूजा के लिए समूचे राज्य की जनता से चंदा एकत्रित नहीं किया जाता। घर-घर जाकर चंदा एकत्रित नहीं किया जाता।   
      दुर्गापूजा का चंदा महज चंदा नहीं होता बल्कि यह प्रतीकात्मक तौर पर जनशिरकत है। हिस्सेदारी है,पूजा की सामाजिक-आर्थिक जिम्मेदारी में हाथ बटाना है। दुर्गापूजा जितनी धर्म और संस्कृति के लिए महत्वपूर्ण है वैसे ही बाजार के लिए भी महत्वपूर्ण और निर्णायक है। दुर्गापूजा के मौके पर की गयी खरीददारी पर पश्चिम बंगाल का समूचा बाजार टिका है। अरबों-खरबों रूपयों की आम जनता खरीददारी करती है। किसी भी दुकान में कुछ भी नहीं बचता। सभी दुकानों का अधिकांश सामान बिक जाता है। गरीब से लेकर अमीर तक पूजा के मौके पर बाजार में खरीददारी के लिए जरूर जाते हैं। इस अर्थ में दुर्गापूजा संस्कृति,सभ्यता और बाजार का परमानंद है।
    दुर्गापूजा में आम लोगों में जिस तरह का उत्सवधर्मीभाव रहता है वह हमारे लिए महत्वपूर्ण है। इस मौके पर अधिकांश लोग कुछ दिन के लिए सारे दुख भूलकर आनंद मनाते हैं और यही इस उत्सव की सबसे विलक्षण चीज है। पूजा के चार-पांच दिन यहां पूजा,आनंद और प्रेम के अलावा और किसी विषय पर बात नहीं कर सकते। सबकी पूजा और सिर्फ पूजा में दिलचल्पी होती है।
     विभिन्न बांग्ला चैनलों में इस अवसर पर सारे दिन चलने वाले कार्यक्रमों से लेकर पंड़ालों से लाइव प्रसारण तक की व्यवस्था की गई है। अखबारों के द्वारा परिशिष्ट निकाले जाते हैं और विज्ञापन उद्योग को इस मौके पर सबसे मोटा फायदा होता है। आम लोगों को आनंद और उद्योग जगत के लिए मोटा मुनाफा मिलता है।  
     यह ऐसा अवसर है जिस पर आपको लगेगा कि पश्चिम बंगाल एक राजनीतिक चेतना सम्पन्न राज्य नहीं है बल्कि संस्कृति सम्पन्न राज्य है। संस्कृति का जितना बड़ा उल्लास इस मौके पर दिखाई देता है वैसा और किसी मौके पर और भारत में कहीं पर भी दिखाई नहीं देता। मसलन आज अधिकतर लोग नए कपड़े पहनेंगे। पूजामंडप में जाएंगे। सुंदर-सुंदर खाना खाएंगे। घरों में इस मौके पर खास किस्म के खान-पान की व्यवस्था रहती है। आम लोगों के पास खाना,सुंदर सजना,पूजा की रोशनी देखना और आनंद की चर्चा करने के अलावा और कोई काम नहीं होता।
     मुझे लगता है दुर्गापूजा का एक और बड़ा महत्व यह है कि इसने मानवीय जीवन में आनंद और प्रेम की प्रतिष्ठा की है। खासकर युवाओं के लिए तो यह मिलनोत्सव है। जाति,धर्म,गोत्र आदि की सभी किस्म की दीवारों को दुर्गापूजा एक ही झटके में गिरा देती है।
     इस मौके पर साम्प्रदायिक सौहार्द देखने लायक होता है। एक जगह दुर्गापूजा के मौके पर एक मुसलमान को दुर्गापूजा की जिम्मेदारी सौंप दी गयी है। इस मुस्लिम दुर्गापूजक का नाम है शाहिद अली। कोलकाता के मुस्लिम बहुल इलाके खिदिरपुर में मुंशीगंज नामक मुहल्ले में ये जनाब रहते हैं और इनको दुर्गापूजा के अर्चक का दायित्व दिया गया है और इन्होंने इसे खुशी-खुशी स्वीकार भी किया है।
    शाहिदभाई विगत सात सालों से दुर्गापूजा के अर्चक की दिम्मेदारी निभा रहे हैं। वे जिस क्लब के मंडप में अर्चक की भूमिका निभा रहे हैं वह है ‘स्टार क्लब’। यह 71 साल पुरानी दुर्गापूजा है जिसे मुसलमान आयोजित करते हैं। मजेदार बात यह है शाहिद भाई षष्ठी से नवमी तक चारों दिन दुर्गापूजा के मौके पर व्रत रखते हैं। साथ ही हिन्दू मंत्रों और हिन्दूशास्त्र के आधार पर पूजा करते-कराते हैं। ऐसा नहीं है शाहिद भाई ने धर्म परिवर्तन कर लिया है। वे मुसलमान हैं और 30 दिन नियमित रोजे भी रखते हैं।     


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