‘बिजनेस स्टैण्डर्ड’ अखबार ने भारत की अमीरी और गरीबी का बड़ा ही चुभता हुआ पहलू उजागर किया है। इससे यह भी पता चलता है कि मनमोहन सिंह -सोनिया गांधी की नव्य-उदार आर्थिक नीतियां हमारे देश को किस तरह के संकट की ओर ले जा रही हैं। यहां हम इन दोनों खबरों को साभार दे रहे हैं- पहली खबर करोड़पतियों की संख्या में हुई बेतहाशा वृद्धि से जुड़ी है। अखबार ने लिखा है-
‘‘शानदार आर्थिक वृद्धि और शेर बने शेयरों की सवारी पर भारतीय कारोबारी नित नई बुलंदियों को छू रहे हैं।देश में करोड़पतियों की बढ़ती तादाद इसकी एक और मिसाल है। करीब 42,700 भारतीय कारोबारी करोड़पतियों के क्लब में शामिल हो गए हैं। मुंबई में बुधवार को जारी हुई कैपजेमिनाई और मेरिल लिंच की विश्व संपत्ति रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ। इसमें भारतीय करोडपतियों की संख्या बढ़कर 1,26,700 हो गई।
भारतीय करोड़पतियों की संख्या में 51 फीसदी का इजाफा हुआ है। एशिया प्रशांत क्षेत्र में हॉन्ग कॉन्ग के बाद करोड़पतियों के उभार के बाद भारत दूसरे पायदान पर मौजूद है। रिपोर्ट के मुताबिक हांगकांग में करोड़पतियों की संख्या में 104 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। भारत में करोड़पतियों के आंकड़े ने वर्ष 2007 के आंकड़े को भी पीछे छोड़ दिया है। वर्ष 2007 में भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत उफान पर थी और शेयर बाजार अपने चरम पर था। उस साल देश में करोड़पतियों की संख्या 1,23,000 थी। इस साल भी देश की अर्थव्यवस्था के 8.5 फीसदी की दर से वृद्धि करने का अनुमान लगाया जा रहा है।
रिपोर्ट का कहना है कि भारत और चीन में आर्थिक विकास की रफ्तार करोड़पतियों की संख्या और बढ़ा सकती और एशिया प्रशांत क्षेत्र में इनका दबदबा हो जाएगा। एशियाई दिग्गज चीन में भी करोड़पतियों की संख्या में 31 फीसदी का इजाफा हुआ।
चीन में करोड़पतियों की संख्या बढ़कर 4,77,000 हो गई। चीन की अर्थव्यवस्था वर्ष 2009 में 8.7 फीसदी की दर से बढ़ी और शेयर बाजार भी तेजी पर सवार रहे। रिपोर्ट के मुताबिक करीब 30-30 लाख करोड़पतियों के साथ एशिया और यूरोप इस मामले में बराबरी पर बने हुए हैं जबकि 31 लाख करोड़पतियों के साथ उत्तरी अमेरिका इस मोर्चे पर सिरमौर बना हुआ है।’’ तस्वीर दूसरा रुख बड़ा भयानक है । बिजनेस स्टैंडर्ड ने अपने एक संपादकीय में लिखा है- ‘‘भारत में चीन से ज्यादा अरबपति हैं, लेकिन वैश्विक भूख सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) के मामले में चीन के मुकाबले उसकी स्थिति बदतर है। हालांकि सभी वैश्विक सूचकांकों में कुछ न कुछ त्रुटियां होती हैं और यह जरूरी नहीं है कि ये सूचकांक वास्तविकता को दर्शाते हों। बहरहाल यह भारत के लिए शर्म की बात है क्योंकि वह 25 देशों के समूह में शामिल है जिसमें सब-सहारा अफ्रीका का इलाका भी है, जहां भूख का स्तर खतरनाक स्थिति में है। सूचकांक में भारत 67वें, नेपाल 56वें, पाकिस्तान 52वें और श्रीलंका 39वें पायदान पर है। दक्षिण एशिया में सिर्फ बांग्लादेश ही भारत से ऊपर 68वें स्थान पर है। इंटरनैशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट््यूट (आईएफपीआरआई) ने दो वैश्विक गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) वेल्थहंगरहिल्फ व कंसर्न वल्र्डवाइड के सहयोग से यह सूचकांक तैयार किया है। यह भूख के तीन महत्त्वपूर्ण संकेतकों पर आधारित है और हर संकेतक का समान भार है, 1. अल्पपोषित आबादी का प्रतिशत, 2. पांच वर्ष से कम उम्र के सामान्य से कम वजन वाले बच्चों का अनुपात, 3. शिशु मृत्यु दर। यहां सामान्य से कम वजन वाले 43.5 फीसदी बच्चे हैं, जो भारत के सूचकांक को नीचे ले जाता है। यह दुखद है कि भारत सामान्य से कम वजन वाले दुनिया के कुल बच्चों में से 42 फीसदी का घर है और 31 फीसदी बच्चों का विकास अवरुद्ध है।
यह गौरतलब है कि अल्पपोषण की समस्या खाद्यान्न की कमी की वजह से नहीं है बल्कि इसलिए है क्योंकि उपलब्ध स्टॉक जरूरतमंदों तक या तो नहीं पहुंच रहा है (खास तौर से बच्चों व गर्भवती महिलाओं और दूध पिलाने वाली माताओं) या फिर इसे उन कीमतों पर नहीं बेचा जा सकता जिन पर वे इसे खरीद सकते हैं। चिकित्सीय सबूत बताते हैं कि सबसे महत्त्वपूर्ण चरण तब आता है जब जीवन के पहले 1000 दिन में पोषण अनिवार्य होता है, गर्भधारण और बच्चे केजन्म के बीच। दो साल की उम्र के बाद अल्पपोषण का बुरा प्रभाव स्थायी होता है। दुर्भाग्य से खाद्य नीतियां बनाने के दौरान इस पहलू पर ध्यान नहीं दिया जाता रहा है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि पिछले दशक में भूख को समाप्त करने में भारत ने काफी प्रगति की है। लेकिन यह देखते हुए कि कुछ गरीब देशों ने उससे बेहतर काम किया है, प्रगति संतोषजनक स्तर से काफी दूर है। ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि बीते दशक में प्रति व्यक्ति आय में उत्साहजनक बढ़ोतरी व गरीबी में कमी लाने का भूख पर बहुत ज्यादा असर नहीं दिख रहा है। आर्थिक व सामाजिक असमानता और गरीबों के पास खरीदने की क्षमता के अभाव के अलावा खाद्यान्न के मौजूदा भंडार के कमजोर प्रबंधन ने इस समस्या को बढ़ाने में योगदान दिया है। इन सब खामियों पर सरकार का प्रत्युत्तर यही हो सकता है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि गरीबों, खास तौर से महिलाओं व बच्चों की पहुंच खाद्यान्न तक हो। ब्राजील ने यही रास्ता अपनाया है और अविकसित बच्चों की बड़ी संख्या को नगण्य स्तर पर ला दिया है। भारत को उससे सबक लेने की दरकार है। नई दिल्ली से महज खाद्यान्न का अधिकार कानून बनाने से, जब देश के ज्यादातर इलाकों में प्रभावी जनवितरण प्रणाली न हो, बहुत ज्यादा मकसद पूरा नहीं हो पाएगा। उम्मीद है कि इस खबर पर राजनीतिक व्यवस्था का प्रत्युत्तर महज विधायी नहीं होगा बल्कि वास्तविकता में अनिवार्य रूप से प्रशासनिक होगा। खाना उपलब्ध कराने के कर्तव्य को पूरा करने के लिए खाद्यान्न का अधिकार कानून का इंतजार नहीं किया जाना चाहिए।’’
यह गौरतलब है कि अल्पपोषण की समस्या खाद्यान्न की कमी की वजह से नहीं है बल्कि इसलिए है क्योंकि उपलब्ध स्टॉक जरूरतमंदों तक या तो नहीं पहुंच रहा है (खास तौर से बच्चों व गर्भवती महिलाओं और दूध पिलाने वाली माताओं) या फिर इसे उन कीमतों पर नहीं बेचा जा सकता जिन पर वे इसे खरीद सकते हैं। चिकित्सीय सबूत बताते हैं कि सबसे महत्त्वपूर्ण चरण तब आता है जब जीवन के पहले 1000 दिन में पोषण अनिवार्य होता है, गर्भधारण और बच्चे केजन्म के बीच। दो साल की उम्र के बाद अल्पपोषण का बुरा प्रभाव स्थायी होता है। दुर्भाग्य से खाद्य नीतियां बनाने के दौरान इस पहलू पर ध्यान नहीं दिया जाता रहा है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि पिछले दशक में भूख को समाप्त करने में भारत ने काफी प्रगति की है। लेकिन यह देखते हुए कि कुछ गरीब देशों ने उससे बेहतर काम किया है, प्रगति संतोषजनक स्तर से काफी दूर है। ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि बीते दशक में प्रति व्यक्ति आय में उत्साहजनक बढ़ोतरी व गरीबी में कमी लाने का भूख पर बहुत ज्यादा असर नहीं दिख रहा है। आर्थिक व सामाजिक असमानता और गरीबों के पास खरीदने की क्षमता के अभाव के अलावा खाद्यान्न के मौजूदा भंडार के कमजोर प्रबंधन ने इस समस्या को बढ़ाने में योगदान दिया है। इन सब खामियों पर सरकार का प्रत्युत्तर यही हो सकता है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि गरीबों, खास तौर से महिलाओं व बच्चों की पहुंच खाद्यान्न तक हो। ब्राजील ने यही रास्ता अपनाया है और अविकसित बच्चों की बड़ी संख्या को नगण्य स्तर पर ला दिया है। भारत को उससे सबक लेने की दरकार है। नई दिल्ली से महज खाद्यान्न का अधिकार कानून बनाने से, जब देश के ज्यादातर इलाकों में प्रभावी जनवितरण प्रणाली न हो, बहुत ज्यादा मकसद पूरा नहीं हो पाएगा। उम्मीद है कि इस खबर पर राजनीतिक व्यवस्था का प्रत्युत्तर महज विधायी नहीं होगा बल्कि वास्तविकता में अनिवार्य रूप से प्रशासनिक होगा। खाना उपलब्ध कराने के कर्तव्य को पूरा करने के लिए खाद्यान्न का अधिकार कानून का इंतजार नहीं किया जाना चाहिए।’’
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