मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010

आलोचना का पराभव और नामवर सिंह-1-

                                           (नामवर सिंह)
    हाल ही में राजकमल प्रकाशन के द्वारा नामवर सिंह के विचारों,आलोचना निबंधों ,व्याख्यानों और साक्षात्कारों पर केन्द्रित 4 किताबें आयी हैं। चार और आनी बाकी हैं। इन किताबों का ‘कुशल’ संपादन आशीष त्रिपाठी ने किया है।
   ये किताबें आधुनिक युग में विचारों की भिड़ंत के सैलीबरेटी रूप का आदर्श नमूना है।  सैलीबरेटी आलोचना चमकती है और प्रभावहीन होती है। ये किताबें ऐसे समय में आई हैं जब विचारों से हिन्दी की आलोचना भाग रही है। नामवर सिंह ने आलोचना लिखना बंद कर दिया हैं। उन्हें कम लिखने का आदर्श बना दिया गया है।
      यह मिथ है वे कम लिखते हैं और कम लिखने वाला महान होता है,विद्वान होता है। यह मिथ इन किताबों के आने से टूटा है। यह भी पता चलता है कि कई साल पहले आलोचना की विदाई हो चुकी है। नामवर सिंह के हाथों आलोचना का अंत अनिवार्य परिघटना है। मौटे तौर पर 1984-85 के बाद से आलोचना का नामवर सिंह के लेखन में समापन हो चुका है। यही वह दौर है जब कम्प्यूटर क्रांति का जन्म होता है और नामवर सिंह साहित्य से गैर-साहित्यिक विषयों की ओर प्रस्थान करते हैं। इसके पहले वे गैर-साहित्यिक विषयों पर कम लिखते थे।
        देश में जब सत्ता का फासिज्म आपात्काल में जनता पर हमले कर रहा था नामवर सिंह कुछ नहीं बोले,लेकिन रामजन्मभूमि आंदोलन के बाद संघ परिवार के फासीवाद पर ‘आलोचना’ पत्रिका का पूरा विशेषांक ही निकाल दिया। नामवर सिंह में चेतना के स्तर पर आए ये परिवर्तन संचार क्रांति और ‘पावरगेम’ की देन हैं।
      संचार क्रांति के बाद उन्होंने राजनीतिक और सांस्कृतिक विषयों पर खूब लिखा और बोला है। इस बदलाव को नामवर सिंह या उनके भक्तों को विश्लेषित करना चाहिए और बताना चाहिए कि नामवर सिंह जैसा महापंड़ित साहित्य से भागकर राजनीति में क्यों चला आया ? मार्क्सवाद से उत्तर आधुनिकता की गोद में कैसे चला आया ? पहले वे उत्तर आधुनिकता को लेकर जो सोचते थे वही समझ उन्होंने बड़ी चालाकी से क्यों छोड़ दी ? नामवर सिंह के उत्तर आधुनिक परिवर्तनों और ‘पावरगेम’ की वैचारिक कलाबाजियां इन किताबों के निबंधों में आसानी से देख सकते हैं।
      सवाल उठता है साहित्य की दुनिया से निकलकर फासीवाद,भूमंडलीकरण, साम्प्रदायिकता, बहुलतावाद,भारतीयता,अस्मिता, बीसवीं सदी का मूल्यांकन, दुनिया की बहुध्रुवीयता, उत्तर आधुनिकता और मार्क्सवाद आदि विषयों पर वे उत्तर आधुनिकता के आने के बाद ही मुठभेड़ क्यों करते हैं ? इन विषयों पर पहले क्यों नहीं लिखा ? कम्प्यूटर क्रांति के बाद ही उनकी नजर इन विषयों की ओर क्यों गयी ? इस क्रम में नामवर सिंह के विचारों में सबसे ज्यादा चंचलता, विचारहीनता और चलताऊढ़ंग नजर आता है। उनके विचारो में सबसे ज्यादा लोच इसी दौर में उभरकर आती है। यह सब नामवर सिंह के आलोचक की विदाई का पुख्ता सबूत है। नामवर सिंह से पहले रामविलास शर्मा साहित्य और मार्क्सवाद का मैदान छोड़ चुके थे।
      नामवर सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व में सबसे ज्यादा बदलाव 1980-81 के बाद ही आता है। उनके कृतित्व में उत्तर आधुनिक शब्दावली नहीं मिलेगी लेकिन उत्तर आधुनिक वैचारिक रपटन मिलेगी जिस पर वे बार-बार फिसलते हैं। वे व्यक्तिगत और सार्वजनिक तौर पर उत्तर आधुनिक शब्दावली का उपहास उड़ाते हैं लेकिन लेखन में सारे उत्तर आधुनिक पैंतरों और रणनीतियों का इस्तेमाल करते हैं। यह तो वैसे ही हुआ कि गुड़ खाएं गुलगुलों से बैर।
     नामवर सिंह की आलोचना शैली का सबसे खतरनाक पहलू वह है जिसे वे व्यक्तिगत बातचीत में इस्तेमाल करते हैं। किसी भी लेखक या व्यक्ति का भविष्य खराब करने में उनकी यह निजी बातचीत बर्बादी करती रही है। इस कला के आधार पर वे अनेक प्रतिभाओं को गुमनामी की गुफाओं में ले जा चुके हैं।
       नामवर सिंह की विश्वदृष्टि सभी किस्म की रूढ़िबद्धताओं और विचारधारा से भी मुक्त है, यह विश्वदृष्टि विश्वसनीय, गतिशील और अनिश्चित है। वे बार-बार भारतीय ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में विश्वदृष्टि के नए रूपों की तलाश में लौटते हैं। उनकी विश्वदृष्टि का आधार है भारतीय सत्ता के हित। वे इस चक्कर में वर्गीय,जातीय,जातिवादी और धार्मिक दायरे के परे जाकर देखते हैं। वे न तो मार्क्सवाद को विश्वदृष्टि का आधार बनाते हैं और ना ही किसी अन्य मार्क्सवाद विरोधी दृष्टिकोण को। बल्कि अमेरिकी उपयोगितावाद उनकी विश्वदृष्टि की धुरी है। हिन्दी में एक कहावत है जिसमें उनके उपयोगितावाद को बांध सकते हैं,गंगा गए गंगादास जमुना गए जमुनादास।
    वे दुनिया के साहित्य,दर्शन और समीक्षा को पढ़ते हैं,अपने को अपडेट रखते हैं, लेकिन उसमें बहते नहीं हैं। उपयोगितावादी कुशल तैराक की तरह उसमें तैरते रहते हैं लेकिन उनके विचारों को विश्राम हिन्दी साहित्य में मिलता है। इस अर्थ में वे ग्लोबल-लोकल एक साथ हैं।
     नामवर सिंह ने  अपनी उपयोगितावादी विश्वदृष्टि को सचेत रूप से विकसित किया हैं,सचेत रूप से ‘पावरगेम’ का उपकरण बनाया है,फलतः उनके पीछे सत्ताधारी वर्गों की समूची शक्ति काम करती रही है। इसके कारण वे कम्पलीट भारतीय बुद्धिजीवी नजर आते हैं। हिन्दी साहित्य में उनकी रमी हुई प्रतिभा के सब कायल हैं।
     एक जमाने में वे जनता के प्रगतिशील हितों से बंधे थे। साहित्यालोचना को उन्होंने प्रगतिशील शक्तियों के पक्ष में सृजनात्मक तौर पर विकसित किया था। उनके आपातकाल पूर्व के लेखन में यह नजरिया व्यक्त हुआ है। आपातकाल के पहले नामवर सिंह साहित्य के आलोचक थे। आपातकाल के बाद वे सत्ता के समर्थक और ‘पावरगेम’ का हिस्सा बन गए। इससे साहित्य ,समीक्षा और प्रगतिशील शक्तियों की व्यापक क्षति हुई है। आपातकाल के समय से नामवर सिंह ने लेखन में उन्हीं विषयों को उठाया है जो सत्ताविमर्श का हिस्सा हैं।
     नामवर सिंह के व्यक्तित्व के अनेक पहलू हैं जिनमें उनकी अस्मिता की दरारें साफ देखी जा सकती हैं। मसलन् उनके शिक्षक व्यक्तित्व, शिक्षा प्रशासक, पति, पिता, दोस्त,कॉमरेड, समीक्षक आदि रूपों पर आलोचनात्मक ढ़ंग से विचार किया जाना चाहिए और देखना चाहिए कि एक व्यक्ति के नाते नामवर सिंह किस तरह की सामाजिक भूमिका और व्यवहार का निर्वाह करते रहे हैं। इन सभी रूपों में नामवर सिंह एक जैसे नजर नहीं आते।
     नामवर सिंह के साहित्यिक जीवन की समीक्षा के साथ साथ सामाजिक-अकादमिक जीवन की भी समीक्षा की जानी चाहिए। हिन्दी में नामवर सिंह ने अभी तक अपनी अंशतः सामाजिक समीक्षा की है। जबकि मुक्तिबोध और रामविलास शर्मा यह काम कर चुके हैं। उनकी विभिन्न किस्म की इमेजों में गहरी दरारें हैं जहां पर उनके व्यक्तित्व के विघटन को साफतौर पर देखा जा सकता हैं। वे हमेशा ‘पावर’ और ‘साहित्य’ के बीच घूमते रहे हैं। उन्होंने अपने को ‘सत्ता के खेल’ और ‘पितृसत्ता’ का हिस्सा बनाया है।
        ‘पावरगेम’ के पैराडाइम में आलोचना और आलोचक का सामाजिक प्रभाव खत्म हो जाता है। यही वजह है कि नामवर सिंह हैं लेकिन सामाजिक प्रभाव के बिना। उनकी किताबें हैं लेकिन आलोचना पर कोई प्रभाव नहीं है। नामवर सिंह के पास सत्ता के खेल के सभी झुनझने हैं, लेकिन आलोचना नहीं हैं। सत्ता के खेल का अंग बनकर नामवर सिंह ने सब कुछ पाया लेकिन आलोचना उनके पास से चली गयी है। अब यह नामवर सिंह और उनकी भक्तमंडली तय करे कि सत्ता के खेल ने नामवर सिंह की आलोचना को महान बनाया या नपुंसक बनाया ?सत्ता के खेल ने  उनके आलोचक पद का अवमूल्यन किया है उन्हें आलोचक की बजाय सैलीबरेटी बनाया है। मीडिया प्रतीक बनाया है। आज नामवर सिंह जितने प्रभावहीन हैं उतने पहले कभी नहीं थे।       
   



1 टिप्पणी:

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...