गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

नागार्जुन की जन्मशती पर विशेष- प्रतिवादी लोकतंत्र के जनकवि नागार्जुन

                     ( मध्य में टोपा लगाए बाबा नागार्जुन)
             हिन्दी में बाबा नागार्जुन को पूज्यनीय बनाने और शब्दों की जुगाली करके ठिकाने लगाने की मित्र क्रियाएं आरंभ हो गयी हैं। बाबा पर इन दिनों जितनी चर्चाएं हो रही हैं उनमें बुर्जुआ लोकतंत्र और प्रतिवादी लोकतंत्र के बीच के अंतर पर बातें कम हो रही हैं। बाबा की कविता में बुर्जुआ लोकतंत्र की गंभीर आलोचना व्यक्त हुई है। बाबा पर बातें करते समय आमतौर पर अवधारणाओं को अमूर्त्त बनाकर देखने और चित्रित करने का रिवाज रहा है।
    मसलन नागार्जुन की कविता की रोशनी में हिन्दी समीक्षक उन्हें लोकतंत्र विरोधी के रूप में चित्रित करते रहे हैं और समाजवादी बनाते रहे हैं। नागार्जुन की कविता की खूबी है कि वह राजनीतिक और लोकतांक्षिक कविता है। यह बुर्जुआ लोकतंत्र की समीक्षा की कविता है। यह ऐसी कविता है जो बुर्जुआ लोकतंत्र की दमनात्मकता का उदघाटन करती है। इस कविता ने परंपरागत कविता के फॉर्म को तोड़ा है। उसकी जगह कविता के लोकतांत्रिक ढ़ांचे को बनाया है। कविता में लोकतांत्रिक संरचनाओं के निर्माण की प्रक्रिया का लोकतंत्र की समीक्षा के साथ गहरा संबंध है।
    अभी हम जिस लोकतंत्र में रह रहे हैं उसमें हेज़ेमनी है और व्यक्ति के द्वारा व्यक्ति का शोषण चरम पर है। इस वातावरण में रूपकों-मिथकों और राजनीतिक मुहावरों में सोचने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। जीवन की कठोर वास्तविकताओं की बजाय सॉफ्ट यथार्थ और निर्मित यथार्थ केन्द्र में आ जाता है। हिन्दी में इन दोनों ही किस्म के यथार्थ पर खूब लिखा जा रहा है। इसका महिमामंडन भी हो रहा है। इस क्रम में ठोस यथार्थ क्या होता है और उसके प्रमुख सवाल क्या हैं ,उन पर बातें बंद हैं। आज वोट से लेकर साहित्य तक जो चल रहा है उस पर नागार्जुन की दो पंक्तियां देखें-
 " सच-सच बतलाना
  तुमको केत्ता रुपया मिला है? "
( नागार्जुन की कविता- तुमको केत्ता मिला है , का अंश)







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