आमतौर पर लोग पूछते हैं कि फासीवाद की भाषा का नमूना कैसा होता है ? फासीवाद पर जिन लोगों ने अकादमिक अध्ययन किया है और उसकी विभिन्न धारणाओं और पहलुओं की गंभीर मीमांसा की है उन विद्वानों को पढ़कर आप सहज ही पता कर सकते हैं कि फासीवाद की भाषा में सत्य की सबसे पहले हत्या की जाती है। सत्य की हत्या करने के लिए शब्दवीरों की सेना का इस्तेमाल किया जाता है। भाड़े पर शब्दवीर रखे जाते हैं ,ये शब्दवीर अहर्निश असत्य की उलटियां करते रहते हैं। गोयबेल्स और उनके भारतीय शिष्य भी यही काम कर रहे हैं। वे मीडिया के विभिन्न रूपों का असत्य के प्रचार-प्रसार के लिए दुरूपयोग कर रहे हैं।
इन दिनों वेबपत्रिकाओं में भी इन शब्दवीरों को टीका-टिप्पणी करते हुए सहज ही देख सकते हैं। हमारे ब्लॉग पर भी ऐसे शब्दवीर बीच बीच में आते हैं। असभ्य और गैर अकादमिक भाषा के प्रयोग का प्रयोग करते हैं। शब्द वमन करते हैं और चले जाते हैं।
प्रसिद्ध मार्क्सवादी सिद्धांतकार जार्ज लुकाच की एक शानदार किताब है ‘डिस्ट्रक्शन ऑफ रीजन’( बुद्धि का विध्वंस) इस किताब में लुकाच ने विस्तार के साथ उस सांस्कृतिक -बौद्धिक परंपरा को खोजने की कोशिश की है जिसके कारण फासीवाद के रूप में हिटलक का उदय हुआ था।
लुकाच ने यह जानने की कोशिश की है कि आखिर वे कौन से कारण थे जो जर्मनी में फासीवाद को जनप्रिय बनाने में सफल रहे और किस तरह हिटलर ने अपने प्रौपेगैण्डा से द्वितीय विश्वयुद्ध की सृष्टि की। इस किताब में लुकाच ने नीत्शे की तीखी आलोचना की है,वह खुलेआम हिटलर का पक्ष लेता था और कम्युनिस्टों पर हमले बोलता था। मार्क्स-एंगेल्स के नाम पर अनाप-शनाप लिखता था। नीत्शे की आलोचना में जो बातें कही हैं वे भारत में फासीवाद के पैरोकारों की भाषा को समझने में हमारी मदद हो सकती हैं।
नीत्शे के अंध कम्युनिस्ट विरोध की खूबी थी कि वह मार्क्स के नाम से कोई भी बात लिख देता था और कहता था यह मार्क्स ने लिखा है ,फिर उसकी आलोचना करता था,वह यह नहीं बताता था कि मार्क्स ने ऐसा कहां लिखा है।
इसी प्रसंग में जार्ज लुकाच ने लिखा है कि फासीवादियों की विशेषता है कि वे बगैर किसी प्रमाण के किसी के भी नाम से कुछ भी लिख देते हैं। पहले वे असत्य की सृष्टि करते हैं,फिर असत्य को सत्य के रूप में प्रसारित करते हैं। वे बिना संदर्भ बताए अपनी बात कहते हैं।
लुकाच ने विस्तार के साथ बताया है कि नीत्शे ने मार्क्स के नाम से जो कुछ लिखा था उसका उसने कभी प्रमाण नहीं दिया कि आखिर उसने मार्क्स का उद्धरण कहां से लिया है। भारत में भी फासीवाद के समर्थक ऐसा ही करते हैं। वे मनगढंत बातें लिखते हैं और फिर उनके ढिंढोरची पीछे से ढ़ोल बजाते रहते हैं कि क्या खूब लिखा-क्या खूब लिखा।
फासीवाद के ढ़िंढोरची अच्छी तरह जानते हैं कि वे असत्य बोल रहे हैं लेकिन वे शब्दवीर गोयबेल्स की तरह मीडिया में,ब्लॉग पर,वेबपत्रिकाओं में पत्र लेखक या टिप्पणीकार के रूप में डटे रहते हैं और शब्दों की उलटियां करते हुए अपने कुत्सित सांस्कृतिक रूप का प्रदर्शन करते हैं। ऐसे ही लोगों के कारण भारत में भी ज्ञान और सत्य का दर्जा घटा है,असत्य और शब्दवीरों का दर्जा बढ़ा है। खासकर हिन्दी वेबपत्रिकाओं में ऐसे शब्दवीरों की इन दिनों बहार आई हुई है। इन शब्दवीरों को यह नहीं मालूम कि वे क्या कह रहे हैं और जो कह रहे हैं उसका अर्थ क्या है ? उसका सामाजिक असर क्या होगा ?
जार्ज लुकाच ने यह भी रेखांकित किया है कि आधुनिक युग में फासीवाद यकायक नहीं आया था बल्कि उसका विचारधारात्मक आधार परंपरागत अविवेकवादी बौद्धिक परंपराओं ने तैयार किया था।
भारत में जो लोग सोचते हैं कि हमारी पुरानी समस्त परंपरा सुंदर है,विवेकवादी है,वे गलत सोचते हैं। हमारे परंपरागत बौद्धिक लेखन में बहुत सारा हिस्सा ऐसा भी है जो अविवेकवादी है। फासीवादी शब्दवीर और संगठन इस अविवेकवादी परंपरा का जमकर दुरूपयोग करते हैं और अपने को हिन्दूधर्म के रक्षक के नाम पर पेश करते हैं। वे हिन्दू के नाम पर हिन्दुत्व का प्रचार कर रहे हैं और परंपरा के अविवेकवादी तर्कशास्त्र का अपने फासीवादी हितों के विस्तार के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।
जार्ज लुकाच ने लिखा है कि फासीवाद का आधार है अविवेकवादी विरासत का दुरूपयोग। सच यह है कि पुराने अविवेकवादी दार्शनिक फासिस्ट नहीं थे। वे नहीं जानते थे कि भविष्य में उनके लेखन का फासीवादी ताकतें दुरूपयोग करेंगी।
रामकथा को बाल्मीकि या तुलसीदास ने भाजपा के सत्ताभिषेक या भारत को हिन्दू राष्ट्र सिद्ध करने के लिए नहीं लिखा था। संघ के फासीवादी क्रियाकलापों की वैधता या प्रमाण के लिए नहीं लिखा था। अयोध्या राममंदिर के निर्माण के लिए नहीं लिखा था। संघ के राममंदिर आंदोलन के लिए नहीं लिखा था। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच के जजों के लिए नहीं लिखा था। रामकथा इसलिए नहीं लिखी गया थी कि उसके आधार पर बाबरी मसजिद गिरा दी जाए ।
लेकिन फासिस्ट संगठनों ने रामकथा का दुरूपयोग किया,राम जन्म अयोध्या में हुआ,इस बात को प्रचारित करने के लिए मुसलमानों के खिलाफ घृणा और हिंसा का नंगा नाच दिखाया।कहने का तात्पर्य यह है कि फासीवाद प्राचीन बातों का मुखौटे के रूप में इस्तेमाल करता है। बर्गसां की कलाएं मुसोलिनी के लिए नहीं लिखी गयी थीं लेकिन बर्गसां की कलाओं का मुसोलिनी ने अपने प्रचार के लिए,अपने पक्ष में अर्थ खोजने के लिए दुरूपयोग किया था। लुकाच ने लिखा है फासीवादीचेतना की विशेषता है यथार्थ का का विकृतिकरण। इस विकृतिकरण को आप विभिन्न वेब पत्रिकाओं में हिन्दुत्ववादियों की प्रतिक्रियाओं में सहज ही देख सकते हैं।
फासीवादी प्रचारक कभी भी परांपरा को विकृत नहीं करते लेकिन उसमें से अपने अनुरूप अर्थ निकाल लेते हैं। संघ परिवार ने तुलसीदास के रामचरितमानस के पाठ को विकृत किए बिना राम अयोध्या में हुए यह बात अपने पक्ष में इस्तेमाल कर ली। यही काम फासिस्ट मुसोलिनी ने बर्गसां के संदर्भ में किया था।
हिटलर ने भी यही काम किया था जिन बुद्धिजीवियों ने अकादमिक स्तर पर,सृजन के स्तर जो कुछ लिखा था उसे गली-मुल्लों और सड़कों पर उतार दिया। नीत्शे,स्पेंगलर, हाइडेगर आदि के साथ यही हुआ। वे जो बातें अकादमिक स्तर पर कर रहे थे हिटलर ने उन बातों को सड़कों पर उतार दिया।
अविवेकवादी विचारक ‘अंडरस्टेंडिंग’ और ‘रीजन’ में घालमेल करते हैं। वे इन्हें एक-दूसरे का पर्यायवाची बनाने की कोशिश करते हैं। जबकि इनमें द्वंद्वात्मक संबंध होता है। ये एक-दूसरे के पर्यायवाची नहीं हैं। लेकिन इस हथकंड़े का फासीवादी जमकर इस्तेमाल करते हैं।
राम अयोध्या में हुए थे,यह पुरानी किताबों में समझ उपलब्ध है और इस समझ को फासीवादी तर्कशास्त्र का हिस्सा बनाकर संघ परिवार ने कहा कि राम वहीं हुए थे जहां बाबरी मसजिद है,इसके उनके पास प्रमाण हैं। कहा कि उनके पास भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट है। जिसके आधार पर हाईकोर्ट का विवादित फैसला आया है।
समझ का रीजन में हूबहू रूपान्तरण या प्रतिबिम्बन नहीं होता। रीजन का वर्तमान से संबंध होता है। समझ का अतीत से संबंध होता है। वर्तमान में हम पुरानी समझ के आधार पर कोई राजनीतिक कार्यक्रम तय करेंगे तो उसके गर्भ से हिटलर ही निलेगा। आर्यश्रेष्ठता के पुराने सिद्धांत के आधार सारी दुनिया में करोड़ों लोगों को हिटलर ने मौत के घाट उतार दिया।सारा मीडिया, बौद्धिकों और शब्दवीरों की टोलियां उसके लिए रात दिन काम करती थीं और इसके कारण सारी दुनिया को उसने द्वितीय विश्वयुद्ध के रौरव नरक में झोंक दिया। अविवेकवाद के आधार पर,अविवेकवादी परंपराओं और पुरानी समझ के आधार पर खड़ा किया गया तर्कशास्त्र अंततःबुद्धि के विध्वंस की ओर ले जाता है और वह इन दिनों वेब पत्रिकाओं से लेकर मीडिया तक खूब हो रहा है।
फासीवादी शब्दवीर अविवेकवाद का इस्तेमाल करते हुए अपनी वक्तृता और वेब एवं मीडिया टिप्पणियों में बार-बार अपने सहजज्ञान और सहजबोध का महिमामंडन कर रहे हैं। इसके आधार पर वे सामाजिक-ऐतिहासिक प्रगति को खारिज करते हैं। वे ज्ञान की अभिजात्य सैद्धान्तिकी की हिमायत कर रहे हैं। अभिजात्य की ज्ञान सैद्धान्तिकी की खूबी है मिथ बनाना और मिथों का प्रचार करना। मिथ जरूरी नहीं है झूठ हो। जैसे राम का जन्म अयोध्या में हुआ था यह मिथ है। यह झूठ नहीं है। बल्कि अतिवास्तविक सत्य है। यह न तो सत्य है , और न असत्य है, बल्कि सुपरनेचुरल सत्य है। वे इसका ही प्रचार कर रहे हैं।
गंभीर, तार्किक, सुसंगत विश्लेषण.
जवाब देंहटाएंबधाई.
नीत्शे की परंपरा वाकई खतरनाक है
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