भारत के संबंध में अपनी टिप्पणियों को इस पत्र में मैं समाप्त कर देना चाहता हूं।
यह कैसा हुआ कि भारत के ऊपर अंगरेजों का आधिपत्य कायम हो गया? महान मुगल की सर्वोच्च सत्ता को मुगल सूबेदारों ने तोड़ दिया था। सूबेदारों की शक्ति को मराठों ने नष्ट कर दिया था। मराठों की ताकत को अफगानों ने खतम किया, और जब सब एक दूसरे से लड़ने में लगे थे, तब अंगरेज घुस आए और उन सबको कुचल कर खुद स्वामी बन बैठे। एक देश जो न सिर्फ मुसलमानों और हिंदुओं में, बल्कि, कबीले-कबीले और वर्ण-वर्ण में भी बंटा हुआ हो; एक समाज जिसका ढांचा उसके तमाम सदस्यों के पारस्परिक विरोधों और वैधानिक अलगावों के ऊपर आधारित होऐसा देश और ऐसा समाज क्या दूसरों द्वारा फतह किए जाने के लिए ही नहीं बनाया गया था? भारत के पिछले इतिहास के बारे में यदि हमें जरा भी जानकारी न हो, तब भी क्या इस जबरदस्त और निर्विवाद तथ्य से हम इनकार कर सकेंगे कि इस क्षण भी भारत को, भारत के ही खर्च पर पलने वाली एक भारतीय फौज अंगरेजों का गुलाम बनाए हुए है? अत:, भारत दूसरों द्वारा जीते जाने के दुर्भाग्य से बच नहीं सकता, और उसका संपूर्ण पिछला इतिहास अगर कुछ भी हो, तो वह उन लगातार जीतों का इतिहास है जिनका शिकार उसे बनना पड़ा है। भारतीय समाज का कोई इतिहास नहीं है, कम से कम ज्ञात इतिहास तो बिलकुल ही नहीं है। जिसे हम उसका इतिहास कहते हैं, वह वास्तव में उन आक्रमणकारियों का इतिहास है जिन्होंने आकर उसके उस समाज के निष्क्रिय आधार पर अपने साम्राज्य कायम किए थे, जो न विरोध करता था, न कभी बदलता था। इसलिए, प्रश्न यह नहीं है कि अंगरेजों को भारत जीतने का अधिकार था या नहीं, बल्कि प्रश्न यह है कि क्या अंगरेजों की जगह तुर्कों, ईरानियों, रूसियों द्वारा भारत का फतह किया जाना हमें ज्यादा पसंद होता।
भारत में इंगलैंड को दोहरा काम करना है : एक ध्वंसात्मक, दूसरा पुनर्रचनात्मक पुराने एशियाई समाज को नष्ट करने का काम और एशिया में पश्चिमी समाज के लिए भौतिक आधार तैयार करने का काम।
अरब, तुर्क, तातार, मुगल, जिन्होंने एक के बाद दूसरे भारत पर चढाई की थी, जल्दी ही खुद हिंदुस्तानी बन गए थे : इतिहास के एक शाश्वत नियम के अनुसार बर्बर विजेता अपनी प्रजा की श्रेष्ठतर सभ्यता द्वारा स्वयं जीत लिए गए थे। अंगरेज पहले विजेता थे जिनकी सभ्यता श्रेष्ठतर थी, और, इसलिए, हिंदुस्तानी सभ्यता उन्हें अपने अंदर न समेट सकी। देशी बस्तियों को उजाड़ कर, देशी उद्योग-धंधों को तबाह कर और देशी समाज के अंदर जो कुछ भी महान और उदात्त था उस सबको धूल-धूसरित करके उन्होंने भारतीय सभ्यता को नष्ट कर दिया। भारत में उनके शासन के इतिहास के पन्नों में इस विनाश की कहानी के अतिरिक्त और लगभग कुछ नहीं है। विध्वंस के खंडहरों में पुनर्रचना के कार्य का मुश्किल से ही कोई चिह्न दिखलाई देता है। फिर भी यह कार्य शुरू हो गया है।
पुनर्रचना की पहली शर्त यह थी कि भारत में राजनीतिक एकता स्थापित हो और वह महान मुगलों के शासन में स्थापित एकता से अधिक मजबूत और अधिक व्यापक हो। इस एकता को ब्रिटिश तलवार ने स्थापित कर दिया है और अब बिजली का तार उसे और मजबूत बनाएगा और स्थायित्व प्रदान करेगा। भारत अपनी मुक्ति प्राप्त कर सके और हर विदेशी आक्रमणकारी का शिकार होने से वह बच सके, इसके लिए आवश्यक था कि उसकी अपनी एक देशी सेना हो : अंगरेज ड्रिल-सार्जेंट ने ऐसी ही एक सेना संगठित और शिक्षित करके तैयार कर दी है। (एशियाई समाज में पहली बार स्वतंत्र अखबार कायम हो गए हैं।) इन्हें मुख्यतया भारतीयों और यूरोपियनों की मिली-जुली संतानें चलाती है और वे पुनर्निर्माण के एक नए और शाक्तिशाली साधन के रूप में काम कर रहे हैं। जमींदारी और रैयतवारी प्रथाओं के रूप मेंयद्यपि ये अत्यंत घृणित प्रथाएं हैंभूमि पर निजी स्वामित्व के दो अलग रूप कायम हो गए हैं; इससे एशियाई समाज में जिस चीज की (भूमि पर निजी स्वामित्व की प्रथा कीअनु.) अत्यधिक आवश्यकता थी, उसकी स्थापना हो गई है। भारतीयों के अंदर से, जिन्हें अंगरेजों की देख-देख में कलकत्ते में अनिच्छापूर्वक और कम से कम संख्या में शिक्षित किया जा रहा है, और नया वर्ग पैदा हो रहा है जिसे सरकार चलाने के लिए आवश्यक ज्ञान और यूरोपीय विज्ञान की जानकारी प्राप्त हो गई है। भाप ने यूरोप के साथ भारत का नियमित और तेज संबंध कायम कर दिया है, उसने उसके मुख्य बंदरगाहों को पूरे दक्षिण-पूर्वी महासागर के बंदरगाहों से जोड़ दिया है, और उसकी उस अलगाव की स्थिति को खतम कर दिया है जो उसकी प्रगति न करने का मुख्य कारण थी। वह दिन बहुत दूर नहीं है जब रेलगाड़ियों और भाप से चलने वाले समुद्री जहाज इंगलैंड और भारत के बीच के फासले को, समय के माप के अनुसार, केवल आठ दिन का कर देंगे और वह वैभवशाली देश पश्चिमी संसार का सचमुच एक हिस्सा बना जाएगा।
ग्रेट ब्रिटेन के शासक वर्गों की भारत की प्रगति में अभी तक केवल आकस्मिक, क्षणिक और अपवाद रूप में ही दिलचस्पी रही है। अभिजात वर्ग उसे फतह करना चाहता था, थैलीशाहों का वर्ग उसे लूटना चाहता था, और मिलशाहों का वर्ग सस्ते दामों पर अपना माल बेच कर उसे बर्बाद करना चाहता था। लेकिन अब स्थिति एकदम उलटी हो गई है। मिलशाहों के वर्ग को पता लग गया है कि भारत को एक उत्पादन करने वाले देश में बदलना उनके अपने हित के लिए अत्यंत आवश्यक हो गया है, और यह कि, इस काम के लिए, सबसे पहले इस बात की आवश्यकता है कि वहां पर सिंचाई के साधनों और आवाजाही के अंदरूनी साधनों की व्यवस्था की जाए। अब वे भारत में रेलों का जाल बिछा देना चाहते हैं। और वे बिछा देंगे। इसका परिणाम क्या होगा, इसका उन्हें कोई अनुमान नहीं है।
यह तो कुख्यात है कि विभिन्न प्रकार की उपजों को लाने-ले जाने और उसकी अदला-बदली करने के साधनों के नितांत अभाव ने भारत की उत्पादक शक्ति को पंगु बना रखा है। अदला-बदली के साधनों के अभाव के कारण, प्राकृतिक प्रचुरता के मध्य ऐसी सामाजिक दरिद्रता हमें भारत से अधिक कहीं और दिखलाई नहीं देती। ब्रिटिश कॉमन्स सभा की एक समिति के सामने, जो 1848 में नियुक्त की गई थी, यह साबित हो गया था कि :
खानदेश में जिस समय अनाज 6 शिलिंग से लेकर 8 शिलिंग फी क्वार्टर के भाव से बिक रहा था, उसी समय पूना में उसका भाव 64 शिलिंग से 70 शिलिंग तक का था, जहां पर अकाल के मारे लोग सड़कों पर दम तोड़ रहे थे, पर खानदेश से अनाज ले आना संभव नहीं था क्योंकि कच्ची सड़कें एकदम बेकार थीं।
रेलों के जारी होने से खेती के कामों में भी आसानी से मदद मिल सकेगी, क्योंकि जहां कहीं बांध बनाने के लिए मिट्टी की जरूरत होगी वहां तालाब बन सकेंगे, और पानी को रेलवे लाइन के सहारे विभिन्न दिशाओं में ले जाया जा सकेगा। इस प्रकार सिंचाई का, जो पूर्व में खेती की बुनियादी शर्त है, बहुत विस्तार होगा और पानी की कमी के कारण बार-बार पड़ने वाले स्थानीय अकालों से निजात मिल सकेगी। इस दृष्टि से देखने पर रेलों का आम महत्व उस समय और भी स्पष्ट हो जाएगा जब हम इस बात को याद करेंगे कि सिंचाई वाली जमीनें, घाट के नजदीक वाले जिलों में भी, बिना सिंचाई वाली जमीनों की तुलना में उतने ही रकबे के ऊपर तीन-गुना अधिक टैक्स देती हैं, दस या बारह गुना अधिक लोगों को काम देती हैं और उनसे बारह या पंद्रह गुना अधिक मुनाफा होता है।
रेलों के बनने से फौजी छावनियों की संख्या और उनके खर्चे में कमी करना भी संभव हो जाएगा। फोर्ट सेंट विलियम के टाउन मेजर, कर्नल वारेन ने कॉमन्स सभा की एक प्रवर समिति के सामने कहा था :
यह संभावना कि जितने दिनों में, यहां तक कि हफ्तों में, देश के दूर-दूर के भागों से आजकल जो सूचनाएं आ पाती हैं, वे आगे से उतने ही में वहां से प्राप्त हो जाया करेंगी और इतने ही संक्षिप्त समय में फौजों और सामान के साथ वहां हिदायतें भेजी जा सकेंगी, यह ऐसी संभावना है जिसका महत्व कभी भी बहुत बढ़ाकर नहीं आंका जा सकता। फौजों को तब और दूर-दूर की, और आज की अपेक्षा अधिक स्वास्थ्यप्रद, छावनियों में रखा जा सकेगा और बीमारी के कारण जो बहुत सी जानें जाती हैं, उन्हें इस तरह बचा लिया जा सकेगा। तब विभिन्न गोदामों में इतना अधिक सामान रखने की भी जरूरत नहीं होगी और सड़ने-गलने और जलवायु के कारण नष्ट हो जाने से होने वाले नुकसान से भी बचा जा सकेगा। फौजों की कार्य-क्षमता के प्रत्यक्ष अनुपात में उनकी संख्या में भी कमी की जा सकेगी। (क्रमशः)
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