मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

फेसबुक का लक्ष्य है संपर्क न कि सामाजिक परिवर्तन

   हितेन्द्र पटेल ने फेसबुक पर लिखा- ‘‘फेसबुक में विस्तार तो बहुत हो रहा है लेकिन गंभीर संवाद की संभावना कम हो रही है. जहाँ भीड बढी कि वही 'भेडियाधसान' चालू..’’

आगे यह भी लिखा- ‘‘मुझे लगता है अधिकतर लोग बिना किसी योग्यता के हर विषय में अपनी राय रखते हैं और किसी तरह के संवाद की गुंजाईश नहीं बना पाते. कुछ लोग अपनी लिखी चीजों को पढवाने, अपना नाम लोगों तक पहुँचाने के लिए बस लगे रहते हैं. ऐसे लोगों के लिए कई अन्य मंच हैं. गौतम जी जिसे बकवास कह रहे हैं वह इतना ज़्यादा होता जा रहा है कि मुझे लगने लगा है कि अब फेस बुक पर से हटकर कहीं और ठिकाना ढूँढा जाए।’’

    किसी भी बुद्धिजीवी की यह पीड़ा जायज है। लेकिन इसकी जड़ों में जाने के बाद ही इसके असली रहस्य को जाना जा सकता है। महज ऊबने,भागने,गदगद होने या विभ्रम में रहने से काम नहीं चलेगा।

    इंटरनेट या फेसबुक मूलतःअपरिचितों का केन्द्र है। अपरिचितों की इलैक्ट्रोनिक स्पीड की दुनिया में सभी जल्दी में हैं। जल्दी में ही सभी समस्याओं के समाधान खोज रहे हैं, कुछ हैं जो ज्ञान की गंभीर समस्याओं के हल खोज रहे हैं। जल्दी में ही मित्रों को ईमेल कर रहे हैं। फेसबुक पर टिप्पणियां कर रहे हैं। इंटरनेट पर मेले जैसी भीड़ है।

     मौनी अमावास्या पर जैसे लोग डुबकी लगाकर अपने लिए पुण्य जुटाते हैं ठीक वैसे ही फेसबुक पर दो-तीन पंक्तियों को लिखकर साइबर लेखक बन रहे हैं। यह स्थिति कई मायनों में अच्छी है। कम से कम कुछ लोग मिल रहे हैं,बातें कर रहे हैं,दुआ-सलाम कर रहे हैं। विचारों का आदान-प्रदान कर रहे हैं। लेकिन गंगा डुबकी से पुण्य नहीं मिलता। पंक्ति लेखन से लेखकीय माहौल नहीं बनता। 

    लेकिन मेले -ठेले में गंभीर विमर्श नहीं होता। सिर्फ मिलते हैं और चलते बनते हैं। फेसबुक ने विचारों को तेजगति नहीं दी है। बल्कि विचारों को चर्चा से गायब कर दिया है। यह नए किस्म की साइबर संपर्कों की दुनिया है। जिसका मूल मकसद है प्रचार करना। विचार करना,जोड़ना और सामाजिक तौर पर सक्रिय करना इसका मकसद नहीं है।

     मेले में आप गंभीर नहीं होते। आनंद के भाव में होते हैं। नज़ारे देखने के भाव में होते हैं। इंटरनेट और फेसबुक के मेले में भी यूजर आनंदमय संचार करता है। छोटी-छोटी टिप्पणियां करके विभिन्न दुकानों की विचारों,भावों और संवेदनाओं की चटपटी यात्रा करता है।

    मेले में हर तरह के लोग होते हैं। फेसबुक में हर तरह के लोग हैं। संत हैं, वेश्याएं हैं, कॉलगर्ल हैं,पंडित हैं,पुजारी हैं,मंदिर हैं,बुद्धिजीवी हैं,फोटो हैं,लौंड़े हैं,लेस्बियन हैं,गे हैं और चुहलबाजी भी है।

     अब आप इस तरह के साइबर प्राकृतिक वातावरण में तय कर लें कि क्या करेंगे ? फेसबुक या इंटरनेट में कोई बता सकता कि कौन किसको क्या सप्लाई दे रहा है,जो दे रहा है वह जेनुइन आदमी है या नहीं ?

  कुछ अति-उत्साही विचारक और बुद्धिजीवी हैं जो यह मानकर चल रहे हैं कि सोशल नेटवर्क के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन किया जा सकता है। इस तरह के लोग यह भूल जाते हैं कि विचारों से संसार नहीं बदलता। विचारों का मनुष्य के भौतिक संबंध और संपर्क के बिना कोई मतलब नहीं होता।

      सोशल नेटवर्क के संबंध में पहली बात यह कि यह सामाजिक संस्थान या संगठन नहीं हैं। बल्कि संपर्क के माध्यम हैं। वे निजी तौर पर कोई भूमिका अदा नहीं करते। इसलिए उनके प्रभावित करने का सवाल ही पैदा नहीं होता।

     दूसरी बड़ी बात यह है ये नेटवर्क का हिस्सा हैं ,जिसमें हायरार्की नाम की चीज भी होती है। आप किसी नेटवर्क से जुड़े हैं तो इसका यह अर्थ नहीं है कि उसकी हायरार्की से भी जुड़े हैं। नेटवर्क और उसकी हायरार्की का सामाजिकता से कम आर्थिक लाभ कमाने ज्यादा संबंध है।

    चूंकि बाजार विकेन्द्रित है अतःनेटवर्क भी विकेन्द्रित है। नेटवर्क इसलिए विकेन्द्रित नहीं है कि उसे लोकतंत्र का विस्तार करना है बल्कि इसलिए विकेन्द्रित है कि उसे बाजार को पकड़ना है। व्यापार करना है,मुनाफा कमाना है।

    नेटवर्क की हायरार्की विभिन्न स्तरों पर सहयोग और संपर्क करती है। नेटवर्क की हायरार्की विकेन्द्रित नहीं है बल्कि केन्द्रीकृत है। संरचनात्मक केन्द्रीकरण के जरिए नियमन किया जाता है। नेटवर्क का अर्थ है सूचनाओं के साझा आदान-प्रदान का मंच।इसमें भाग लेने वाले व्यक्ति और संगठन एक-दूसरे के प्रति सहिष्णु रहें,सामंजस्य बिठाएं।

    नेटवर्क में जैसा विकेन्द्रीकरण दिखता है वैसा नेटवर्क की हायरार्की में नहीं दिखता। फेसबुक पर छोटी-छोटी बातें,छोटे-छोटे किस्से और छोटी-छोटी टिप्पणियां हैं जो छोटे छोटे परिवर्तनों को जन्म देती हैं। इनमें भूलें मिलेंगी,पंगे मिलेंगे। लेकिन नेटवर्क की हायरार्की में यह सब नहीं मिलेगा।

     फेसबुक में आप प्रचार कीजिए कि कल रैली है वोट क्लब पर आप लोग पहुँचे। संभवतः लोग नहीं पहुँचेंगे। वह सामाजिक तौर पर आमने-सामने लोगों को खींचकर लाने में असमर्थ है। इसके विपरीत किसी मंदिर में जाइए लोग बगैर किसी संदेश के पहुँचेगे और संपर्क करेंगे। एक-दूसरे को आमने-सामने देखेंगे। इसका कारण है सामाजिक शिरकत में हायरार्की नहीं होती। जबकि नेटवर्क में होती है। लेकिन दिखती नहीं है।

    यह सच है कि सामाजिक मीडिया जनता का शत्रु नहीं होता लेकिन सामाजिक आंदोलन खड़ा करने में असमर्थ होता है। सोशल मीडिया यथास्थितिवाद को चुनौती नहीं देता बल्कि देखता रहता है। उसके प्रति निष्क्रिय रहता है।

    सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है खासकर फेसबुक टाइप वेबसाइट की। इस तरह का मीडिया एक जैसी अनुभूतियों के लोगों को जोड़ने का काम करता है। वह शिरकत करने वालों में साझा परिप्रेक्ष्य पर एकमत होने की संभावनाएं पैदा करता है। जैसाकि हितेन्द्र पटेल की टिप्पणी पर आई प्रतिक्रियाओं से पुष्ट होता है। लेकिन इससे आप सामाजिक आंदोलन की बहुत सारी जरूरतों की पूर्ति नहीं कर सकते। इससे आप पुख्ता सामाजिक बंधन या मित्रता तैयार नहीं कर सकते।

    कम्प्यूटर केन्द्रित संबंध कितने मजबूत और भरोसे लायक होते हैं इसे आप सहज ही कम्प्यूटर डेटिंग से बने संबंधों में देख सकते हैं। यह संबंध एक ही समय में एक ही व्यक्ति का अनेक लोगों से बनता है। विवाहित-अविवाहित सबसे बनता है। वे डेटिंग में साझीदार होते हैं और शादीशुदा भी होते हैं।

   एक अन्य समस्या है कि क्या ट्विट करने या फेसबुक पर संवाद भेजने से क्रांति हो सकती है ? जी नहीं, संदेशों से क्रांति कभी नहीं होती ,चाहे उन्हें कोई भी भेजे। किसी भी सामाजिक परिवर्तन की एक बुनियादी शर्त है यथास्थितिवाद का विरोध या उसके साथ असहयोग। सोशल नेटवर्क साइट इनमें से कोई भी काम नहीं करते। लेकिन वे अभिव्यक्ति के शक्तिशाली माध्यम हैं।          







2 टिप्‍पणियां:

  1. एक हिंदी के प्रोफ्फेसर से ऐसे सतही लेख की उम्मीद नहीं थी. चीज़ों को थोडा ध्यान से देखने पर कई insights दिखते हैं.

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