संघ परिवार अपने समर्थकों ,सदस्यों और विभिन्न मीडिया रूपों में कम्युनिस्टों और मार्क्सवाद के खिलाफ अहर्निश घृणा फैलाता रहता है। इनके अलावा कारपोरेट मीडिया भी मार्क्सवाद से नफरत करता है। दोनों के तरीके अलग हैं। लेकिन लक्ष्य एक है। मुझे लगता है ये दोनों ही मनुष्य को सही ढ़ंग सेदेख ही नहीं पाते।
हिन्दुत्ववादियों के लिए भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और इसमें रहने वाले सब हिन्दू हैं और जो हिन्दू नहीं हैं उन्हें हिन्दुत्व को मनवाने का उन्हें ‘भगवान’ ने अधिकार दिया है। वे हिन्दू अस्मिता और हिन्दू सम्मतियों के अलावा कुछ भी देख नहीं पाते हैं।
दूसरी ओर बुर्जुआजी के लिए भारत उपभोक्ताओं का देश है। जिसमें नागरिक रहते हैं। लेकिन उनके पास नागरिकचेतना का अभाव है अतः उनके कुछ वैचारिक सिपहसालार आए दिन नागरिक समाज- नागरिक समाज का जयगान करते रहते हैं। नागरिक समाज और बुर्जुआजी में गहरा याराना है। एक के लिए व्यक्ति उपभोक्ता है तो दूसरे के लिए नागरिक है।
हिन्दुत्ववादियों और बुर्जुआजी के बीच में सुंदर याराना है। ये एक ही सहजिया संप्रदाय के सदस्य हैं। इसके विपरीत कम्युनिस्ट है जो समाज को मानव समूह के रूप में देखते हैं और वे बार-बार मनुष्य,मनुष्यत्व,मानवता की मुक्ति आदि पर समग्रता में बातें करते हैं। मार्क्सवादियों के लिए व्यक्ति की धार्मिक और नागरिक दोनों ही पहचान के रूप उसे बुर्जुआ और धार्मिक फ्रेम में बांधे रखते हैं। जबकि मानव का फ्रेम व्यक्ति की सत्ता और महत्ता को व्यापक पर फलक पर रखकर देखता है।
व्यक्ति को धार्मिक पहचान के आधार पर देखने से उसे हम धर्म के बाहर देखने में असमर्थ होते हैं। जबकि नागरिक पहचान व्यक्ति को बुर्जुआ कानूनी परिभाषाओं में बांधकर देखती है। बुर्जुआ कानून की आंखों से देखते है।
व्यक्ति को उपभोक्ता की नजर से देखने का अर्थ है उसको महज एक पशु बना देना। खाना-पीना-कमाना-भोग करना और सोना यही उसके नित्यकर्म हो जाते हैं और ये सारी क्रियाएं पशु क्रियाएं हैं। व्यक्ति को मनुष्य के रूप में देखना और समस्त कर्मों,नीतियों और कार्य-व्यापारों को मनुष्य के उत्थान के मातहत कर देना ही मार्क्सवाद का बुनियादी लक्ष्य है।
बुर्जुआजी चाहता है व्यक्ति के समस्त कार्य-कलापों को संपदा प्रेम से जोड़ दिया जाए। हिन्दुत्ववादी चाहते हैं कि हिन्दूप्रेम से जोड़ दिया जाए। नागरिक समाज वाले चाहते हैं कि व्यक्ति को नागरिक अधिकारों से जोड़ दिया जाए। मार्क्सवादी चाहते हैं कि व्यक्ति के समस्त कार्य-कलापों को मानवसभ्यता के विकास के साथ जोड़ दिया जाए। मार्क्सवाद का बुनियादी लक्ष्य मानव सभ्यता का निर्माण करना। वे चाहते हैं कि मनुष्य अपने दैनंदिन जीवन के संघर्ष में संपत्तिप्रेम,मुनाफा प्रेम, धर्मप्रेम,वस्तु या माल प्रेम के बाहर निकले और मानवप्रेम के बारे में सोचे। सभ्यता निर्माण के बुनियादी सवालों पर विचार करे। यही नह बुनियादी बिंदु है जहां पर मार्क्सवादियों का हिन्दुत्ववादियों और बुर्जुआजी के साथ बुनियादी मतभेद है।
मसलन् स्वतंत्रता के सवाल को ही लें। हिन्दुत्ववादी,बुर्जुआजी,नागरिक समाज और मार्क्सवादियों का इस धारणा को लेकर एक जैसा नजरिया नहीं है। हिन्दुत्ववादी इसे हिन्दू धर्म के वर्चस्व की स्थापना के लिए इस्तेमाल करते हैं ।
बुर्जुआजी मुनाफों के विस्तार और नागरिक समाज कागजी नागरिक अधिकारों के लिए इस्तेमाल करते हैं। वे चाहते हैं बुर्जुआजी का समाज में वर्चस्व बना रहे और नागरिक अधिकार भी बने रहें। बुर्जुआजी को कागज पर मानवाधिकार देने में कोई परेशानी नहीं है।लेकिन वास्तव अर्थ में इन्हें वह लागू करना नहीं चाहता।
इसके विपरीत मार्क्सवादी चाहते हैं कि स्वतंत्रता का शोषण के खात्मे और बुर्जुआजी के सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक वर्चस्व के खात्मे के लिए इस्तेमाल किया जाए। इसमें हिन्दुत्व,नागरिक समाज और बुर्जुआजी की कोई रूचि नहीं हैं। वे शोषण और बुर्जुआ वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं।
स्वतंत्रता का फैसला मात्र संविधान में नागरिक अधिकारों के उल्लेख मात्र से नहीं हो सकता। संविधान में तो हमें नागरिक अधिकार मिले हुए हैं। धर्मनिरेक्षता भी मिली हुई है। लेकिन वास्तव अर्थ में ये दोनों गायब हैं। स्वतंत्रता कोई कागजी मंत्र नहीं है। धार्मिक मंत्र नहीं है बल्कि स्वतंत्रता का शोषणरहित आर्थिक अवस्था से गहरा संबंध है। मार्क्सवादियों ने स्वतंत्रता के आर्थिक आधार को ही चुनौती दी है। वे मानते हैं कि शोषणमय आर्थिक संबंधों के आधार पर निर्मित स्वतंत्रता विभ्रम है। इसी विभ्रम को गले उतारने का काम कारपोरेट मीडिया और नागरिक समाज के हिमायती करते रहते हैं। स्वतंत्रता संविधान के कागज में नहीं होती,धर्म में नहीं होती। फ्रेडरिक एंगेल्स के अनुसार ‘स्वतंत्रता लाजिमी तौर पर ऐतिहासिक विकास का फल होती है।’ एंगेल्स ने यह भी लिखा है ‘ स्वतंत्रता अपने ऊपर तथा बाह्य प्रकृति के ऊपर नियंत्रण में निहित होती है और यह नियंत्रण प्राकृतिक आवश्यकताओं के ज्ञान पर आधारित होता है।’
हम उस क्षण की कल्पना करें जब मनुष्य ने पशु से पहलीबार अपने को अलग किया होगा तो वह क्षण मनुष्य के लिए महान था या भाप के इंजन का आविष्कार ? वह क्षण मनुष्य के लिए महान था जब मनुष्य ने पहलीबार आग का आविष्कार किया या भाप के इंजन का ?
मनुष्य का पशु योनि से मुक्ति का शिलान्यास उस दिन रखा गया जब उसने रगड़ से आग पैदा की थी । यांत्रिक गति को उसने ऊष्मा में रूपान्तरित किया था। भाप के इंजन की तुलना में रगड़ से आग पैदा करने वाली खोज महान खोज है।
हिन्दुत्ववादियों ने धार्मिक नैतिकता और मान्यताओं के आधार पर इन दिनों बाबरी मसजिद और दूसरे सवालों पर हमला बोला हुआ है। वे संघ के फासीवादी धर्मादेशों के आधार पर चीजें थोपना चाहते हैं। उनका मानना है सारे मसलों का समाधान हिन्दुत्व के आधार पर होना चाहिए। वे भूल जाते हैं कि वस्तुएं,घटनाएं,विवाद,राजनीति आदि सभी कुछ धर्मादेशों पर निर्भर नहीं हैं बल्कि सामाजिक परिवेश और सामाजिक संबंधों पर निर्भर हैं। हिन्दुत्ववादी अपने पक्ष में तरह-तरह की सम्मतियों और उद्धरणों का भी इस्तेमाल करते हैं औऱ उनके आधार यह तर्क देते हैं कि वे सही सोचते हैं। वे भूल जाते हैं कि मनुष्य के विचार सम्मतियों से तय नहीं होते। सम्मतियां भी विचारों से पैदा नहीं होतीं बल्कि उनका सामाजिक परिवेश से गहरा संबंध होता है। इसलिए हमें सम्मतियों से आरंभ नहीं करना चाहिए बल्कि परिवेश के इतिहास से,सामाजिक संबंधों के इतिहास से आरंभ करना चाहिए। यह संसार सम्मतियों से शासित नहीं होता। बल्कि सम्मतियां लोगों के हितों द्वारा निर्धारित होती हैं। यदि सम्मतियां ही आमतौर से दुनिया का शासन करतीं ,तो गलत सम्मतियां ख़ून के प्यासे क्रूर शासकों की तरह हैं।
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