गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

औरतों की कारपोरेट गुलामी का नया आयाम

भारत में औरतों की गुलामी का  एक नया पहलू सामने आया है। यह पहलू चौंका देने वाला है कि आखिरकार कारपोरेट घराने हमारे देश में किस तरह की कर्म संस्कृति पैदा कर रहे हैं।  समस्या के संदर्भ में हमारी किसान और महिला संगठनों से अपील है कि वे आगे आएं और इस अकल्पनीय शोषण से औरतों को मुक्त कराएं।
   इस संदर्भ में हम यहां ‘बिजनेस स्टैंडर्ड ’ के 25 अक्टूबर 2010 के अंक में प्रकाशित श्रीलता मेनन की एक रिपोर्ट साभार दे रहे हैं जो हमारी नयी कारपोरेट संस्कृति के इस नए आयाम पर रोशनी डालती है। रिपोर्ट पढ़ें-

सवालों के घेरे में है गरीब महिलाओं की मदद करने वाली परियोजना -श्रीलता मेनन    
जब वर्गीज कुरियन ने डेयरी सहकारी आंदोलन का मार्ग प्रशस्त किया था, तब गुजरात की लाखों गरीब महिलाएं अरबों डॉलर वाले ब्रांड की मालकिन बन गई थीं। दूध उपलब्ध कराने वालों को ब्रांड का मालिकाना हक देने वाला ऐसा ही मॉडल पंजाब में ट्रू मिल्क के नाम से उभरा है। हालांकि यह लाभ के बंटवारे और अवैतनिक श्रम से जुड़े सवाल उठा रहा है।
किला रायपुर विधानसभा के कांग्रेस विधायक जस्सी खंगूड़ा ने लुधियाना में मैक्रो वेंचर्स प्राइवेट लिमिटेड की स्थापना की है, लेकिन यह दूध की खरीद उस तरह नहीं करता, जिस तरह से अमूल करता है। वह करीब 3,080 महिलाओं द्वारा खरीदे गए जानवर 22 गांवों में स्थापित मिल्किंग पार्लर कम प्रोसेसिंग प्लांट में रखते हैं। इस प्रोसेसिंग प्लांट की स्थापना उन्होंने खुद की है।
महंगी अंतरराष्ट्रीय ब्रीड वाली गायों (प्रति महिला पांच गाय) की खरीद की खातिर बैंक लोन हासिल करने और इसे चारा डालने व दूध दूहने में महिलाओं की भूमिका सीमित है। ऐसे में उन्होंने गायों को खंगूड़ा को उपलब्ध करा दिया है और इन गायों को वह अपनी जेब से चारा मुहैया कराती हैं। वे अपनी गायों को साथ ले जाने के लिए मुक्त नहीं हैं, लेकिन उन्हें तब तक अनिवार्य रूप से डेयरी में काम करना पड़ता है जब तक कि कर्ज की पूरी रकम चुका नहीं दी जाती है। खंगूड़ा के मुताबिक, इसकेबदले हर महिला को हर महीने 2,500 रुपये मिलते हैं। इन गायों के दूध के लिए उन्हें 18 रुपये प्रति लीटर की सहकारी दर मिलती है, इस रकम से वे चारा खरीदती हैं, बैंक का कर्ज चुकाती हैं और बाकी काम करती हैं। खंगूड़ा इस दूध की बिक्री 34 रुपये प्रति लीटर पर कर देता है, लेकिन इसकी प्रोसेसिंग पर उसे 7 रुपये प्रति लीटर खर्च करना होता है। कुल मिलाकर यह खंगूड़ा के लिए हर तरह की लागत का भुगतान किया हुआ कारोबार है, न कि ऐसी परियोजना जो महिलाओं को सशक्त करता हो।
खंगूड़ा ने महिलाओं को पांच महिलाओं वाले स्वसहायता समूह में संगठित किया है। इन महिलाओं को गाय खरीदने के लिए एसएचजी से जुड़े कार्यक्रम के तहत बैंक लोन मुहैया कराया गया है। हर महिला को 45,000 रुपये प्रति गाय की दर से पांच गाय खरीदने के लिए कर्ज मुहैया कराया जाता है। गांव में कंपनी द्वारा लीज पर ली गई चार-पांच एकड़ जमीन में स्थापित प्रोसेसिंग प्लांट व बाड़े में महिलाएं अपनी गाय रखती हैं। खंगूड़ा ने हर ऐसे प्लांट पर 3.6 करोड़ रुपये का निवेश किया है और उनका कुल निवेश करीब 100 करोड़ रुपये का है। इस रकम का इंतजाम उन्होंने कुछ अपनी संपत्ति से और कुछ कर्ज लेकर किया है, यह कुल मिलाकर उतना ही कर्ज है जो कि महिलाओं ने गाय पर निवेश किया है और चारा व अवैतनिक श्रम पर उनका निवेश जारी है।
ये महिलाएं सप्ताह में छह दिन चार से छह घंटे काम करती हैं और अपने समूह की 25 गायों की देखभाल करती हैं। लेकिन दूध और अपने काम के बदले उन्हें महज 2,500 रुपये महीना मिलता है। पांच गाय का मालिकाना हक और रोजाना 1.5 लाख लीटर दूध की बिक्री केबावजूद उन्हें इतनी कम रकम मिलती है। खंगूड़ा कहते हैं कि कर्ज के भुगतान के लिए हर महिला को करीब 2,000 रुपये मासिक भी दिए जाते हैं।
डेयरी विशेषज्ञ कहते हैं कि यह स्थिति खंगूड़ा के लिए काफी अच्छी है, जिन्होंने महिलाओं द्वारा गायों में निवेश के जरिए अपने जोखिम का बचाव कर लिया है। अगर एक गाय रोजाना सिर्फ 10 लीटर दूध देती है और इस दूध की बिक्री 20 रुपये प्रति लीटर पर की जाती है तो पांच गायों के जरिए महिलाएं रोजाना करीब 1,000 रुपये कमा सकती है। वे बताते हैं कि 4,500 रुपये प्रति माह दी जाने वाली रकम रोजाना कमाई जा सकने वाली रकम केकरीब है।

कृषि अर्थशास्त्री भास्कर गोस्वामी कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय ब्रीड वाली गाय रोजाना 45 लीटर तक दूध देती है और इसका मतलब यह हुआ कि पांच गायों से करीब 5,000 रुपये की आय हो सकती है (20 रुपये प्रति लीटर के हिसाब से)।
खंगूड़ा के मुताबिक, 15,400 गायों से रोजाना कुल 1.5 लाख लीटर दूध मिलता है यानी 10 लीटर प्रति गाय के हिसाब से। खंगूड़ा कहते हैं कि यह मॉडल भविष्य का है। लेकिन इसका मतलब मालिकों के लिए मुफ्त जानवर और मुफ्त कामकाज है, जबकि पशु मालिकों को कुछ नहीं मिलता है। सप्ताह में छह दिन काम करने वाली महिलाओं को यहां तक कि उनके श्रम के लिए भी भुगतान नहीं किया जाता है।
खंगूड़ा कहते हैं कि ये महिलाएं कामगार नहीं हैं बल्कि इसकी मालकिन हैं। हालांकि वे यह भी कहते हैं कि ये महिलाएं स्कीम से तब तक बाहर नहीं निकल सकती हैं जब तक कि कर्ज का भुगतान नहीं कर दिया जाता है। वे यहां किसी तरह के शोषण से इनकार करते हैं और कहते हैं कि इन महिलाओं ने फायदा देखने के बाद ही इसे आजमाया है।(बिजनेस स्टैंडर्ड ,25 अक्टूबर 2010 से साभार )
            





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