शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

आलोचना का पराभव और नामवर सिंह -4- समापन किश्त

    व्यक्ति-कृति केन्द्रित लेखन अंततःअधिनायकवादी राजनीति की ओर ले जाता है। स्त्री के प्रति पितृसत्तात्मक रवैय्या इसकी स्वाभाविक परिणति है। नामवर सिंह की व्याख्यान कला के सभी कायल हैं। लेकिन उनके लेखन में निहित अधिनायकवादी रणनीतियों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया गया। अधिनायकवादी रणनीति में संदर्भ ,तथ्य और सत्य को सबसे पहले विकृत किया जाता है। उदाहरण के लिए यहां सिर्फ उनके लेख ‘साम्प्रदायिकता,राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता’ लेख को ही लें। यह समूचा लेख ऐतिहासिक भूलों ,सरलीकरण और अनैतिहासिकता से भरा हुआ है।
    नामवर सिंह ने लिखा है ‘‘ सन् 1975 में जब आपात्काल की घोषणा हुई थी ,तब 44वें संशोधन के द्वारा हमारे संविधान में ‘स्टेट’ को एक ‘सेकुलर स्टेट’ घोषित किया गया।’’ यह बात बुनियादी दौर पर गलत है। भारत के संविधान के निर्माण की सारी बहसों में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा केन्द्र में थी,संविधान का अन्तर्ग्रथित हिस्सा है धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा। ‘सेकुलर‘ पदबंध को आपात्काल में ‘प्रियंबल’ में जरूर शामिल किया गया था ,यह कांग्रेस पार्टीं के तानाशाही राजनीतिक चरित्र से ध्यान हटाने की बृहद योजना का हिस्सा था।
       यहां पर आपात्काल को अधिनायकवादी राजनीति की अभिव्यक्ति देखने की बजाय नामवर सिंह को सत्ता का साम्प्रदायिक चेहरा नजर आया।  वे आपात्काल को अधिनायकवादी राजनीति के रूप में देखते ही नहीं हैं। वे आपात्काल में तुर्कमानगेट के सफाई अभियान को सत्ता के साम्प्रदायिक अभियान के रूप में देखते हैं। जबकि यह अभियान संजय गांधी के पांच सूत्री कार्यक्रम के सौंदर्यीकरण अभियान का हिस्सा था। आपात्काल मूलतः लोकतंत्र पर हमला था,यह साम्प्रदायिक कार्रवाई नहीं है फासीवाद है। आपात्काल का राष्ट्रवाद से कोई लेना देना नहीं है।
    आपात्काल में सभी किस्म के लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए गए थे। आपात्काल में नामवर सिंह चुप क्यों थे और आपातकाल का उन्होंने समर्थन क्यों किया इसका जबाब उन्हें कम से कम जरूर देना चाहिए। इस दौर के प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन और जेएनयू की कारगुजारियां अभी भी पुराने छात्र भूले नहीं हैं। नामवर सिंह के अजनतांत्रिक भाव को इन संग्रहों से समझने में असुविधा होगी। नामवर सिंह के बयानों की सबसे कमजोर कड़ी है उनकी राजनीतिक धारणाएं।      
     इसके अलावा नामवर सिंह के इन वाचिक निबंधों में पितृसत्तात्मक रूझानों को भी आसानी से देखा जा सकता है। यह वाचन की मार्क्सवादी पद्धति नहीं है बल्कि अधिनायकवादी पद्धति है। यह सेंसरशिप की पद्धति है।
      साहित्य में सेंसरशिप और आत्म सेंसरशिप के आदर्श हैं नामवर सिंह। वे साहित्य में सेंसरशिप अथवा दिमाग की खिड़कियों को एक ही दिशा में खोलने का काम करते रहे हैं। यह फासिस्ट प्रवृत्ति है। वे साहित्य, कृतियों और कृतिकारों के बारे में तय करके ,अघोषित प्रतिबंध लगाकर बातें करते रहे हैं, वे यह भी तय करते रहे हैं कि किस पर अब हिन्दी जगत बोले और क्या बोले । यह साहित्य में अधिनायकवाद है,प्रगतिवाद नहीं है।
     साहित्य में अधिनायकवादी नजरिया जीवन में कमजोर लोगों को निकट रखने,चाटुकारों को रखने की मनोदशा बनाता है। साथ ही साहित्य और शिक्षा संस्थानों के प्रति अजनतांत्रिक नजरिया पैदा करता है। अजनतांत्रिक नजरिया वस्तुतः दीमक की मनोदशा है। जिस तरह दीमक जहां रहती है उसे ही खाती है वैसे ही नामवर सिंह का अधिनायकवादी नजरिया साहित्य और शिक्षा संस्थानों से लेकर आलोचना तक को दीमक की तरह खाता रहा है। कभी-कभार घुड़ाक्षरन् न्याय के तहत कुछ अच्छा भी हुआ है। वैसे ही जैसे दीमक काठ खाते-खाते कभी अक्षर भी लिख देती है।        
        आपात्काल में नामवर सिंह की भूमिका में परिवर्तन आया। वे अधिनायकवादी राजनीति के साथ जा मिले और उन्होंने आपात्काल का समर्थन किया। अपने इस रूख की उन्होंने कभी आत्मालोचना नहीं की, आपात्काल की कोई भी आलोचना नहीं लिखी।
      हमें यह भी देखना चाहिए कि अन्य आलोचक जैसे रामविलास शर्मा,हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि आपातकाल में क्या कर रहे थे  ?  क्या आपात्काल ने हिन्दी आलोचना और रचना को बदला है ? यह बदलाव किस रूप में आया है ?
    आपात्काल सामान्य राजनीतिक फिनोमिना नहीं है। बल्कि असामान्य फासिस्ट फिनोमिना है। इस पर नामवर सिंह का लेखन और व्यवहार चिंता पैदा करता है।  यह पहलू उनके लेखन से गायब क्यों है ? उन्होंने कभी आपात्काल में उसके खिलाफ और बाद में विस्तार के साथ क्यों नहीं लिखा ? उन्होंने आपात्काल का समर्थन किया था जबकि अज्ञेय ने आपात्काल का विरोध किया था।
      जिस तरह भारतेन्दु युग महत्वपूर्ण परिवर्तन का प्रस्थान बिंदु है वैसे ही स्वातंत्र्योत्तर भारत में किसी भी लेखक के नजरिए को परखने के चार प्रस्थान बिंदु हैं पहला है भारत विभाजन,दूसरा ,आपातकाल , तीसरा है स्त्री, और चौथा है किसान। दुर्भाग्य से नामवर सिंह का आपात्काल और स्त्री के प्रति अलोकतांत्रिक और अवैज्ञानिक नजरिया है। जबकि किसान पर उन्होंने प्रेमचंद के बहाने व्यापक रूप में विचार किया है। इसमें उन्होंने किसान जीवन के जिस सत्य को सामने रखा है जिस सत्य के छिपाया है उस पर भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है।भारत विभाजन पर कभी विचार ही नहीं किया.         
 
       आपात्काल के पहले के साहित्यिक सवाल और आपात्काल के बाद के साहित्यिक सवालों पर नामवरसिंह का रूख एक ही परिप्रेक्ष्य को सामने नहीं लाता। आपात्काल के बाद नामवरसिंह में अतीत में जाने ,मृत मुद्दों में रमण करने और एकायामी ढ़ंग से पापुलिज्म के दबाब में ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक विषयों पर लिखने और बोलने की प्रवृत्ति बढ़ी है।
    दुनिया में सभी मार्क्सवादी समीक्षकों ने अपने देश के पूजीवाद के चरित्र,स्वभाव और सांस्कृतिक-साहित्यिक प्रभावों के बारे में लिखा है,लेकिन नामवर सिंह संभवतः अकेले मार्क्सवादी हैं जो भारत के पूंजीवाद पर अपना कहीं पर भी समग्र मूल्यांकन व्यक्त नहीं करते वे सिर्फ प्रकारान्तर या किसी लेखक के बहाने से पूंजीवाद पर छोटी चलताऊ टिप्पणियां करके अपने वास्तविक सोच को छिपाए रखते हैं। उनका पूंजीवाद ,कल्याणकारी राज्य और परवर्ती पूंजीवाद के प्रति अनालोचनात्मक नजरिया गंभीर चिंता की चीज है,इसने एक खास किस्म की पूंजीवाद निरपेक्ष प्रगतिशील आलोचना को विकसित किया है जो इन दिनों खूब फलफूल रही है।
      नामवर सिंह के लेखन और व्याख्यानों में स्त्री तकरीबन गायब है (छायावाद को छोड़कर) और जो व्यक्त हुई है वह नकारात्मक और अवैज्ञानिक है। उनके इसी रूप को सामने लाने वाली एक टिप्पणी है ‘ मुक्त स्त्री की छद्म छबि’। यह टिप्पणी ‘जमाने से दो दो हाथ’ नामक संकलन में शामिल है। इस टिप्पणी का पहला वाक्य ही नामवर सिंह जैसे महापंडित के लिए अनुपयुक्त है। वैसे पूरी टिप्पणी उनके स्त्री संबंधी अवैज्ञानिक और पुंसवादी सोच का आदर्श नमूना है।
     नामवर सिंह ने लिखा है, ‘ स्त्री-पुरूष संबंधों पर हम तीन दायरों में विचार कर सकते हैं। कानून ,समाज और परिवार।’ वे भूल ही गए स्त्री-पुरूष संबंधों पर इन तीन के आधार पर नहीं ‘लिंग’ के आधार पर विचार विमर्श हुआ है। स्त्री-पुरूष का मूल्यांकन गैर-लिंगीय आधार पर करने से गलत निष्कर्ष निकलेंगे और गलत समझ बनेगी।
    कानून में स्त्री-पुरूष संबंधों को लेकर क्या लिखा है यह नामवर सिंह नहीं जानते अथवा जानबूझकर गलतबयानी कर रहे हैं,कानून में विवाह संबंधी प्रावधान हैं,लेकिन विवाह को कानून ने स्त्री-पुरूष संबंधों का मूलाधार नहीं बनाया है। भारतीय कानून लिंगीय समानता के आधार पर स्त्री-पुरूष संबंधों पर विचार करता है। न कि विवाह के आधार पर।
    भारतीय कानून लंबे समय तक स्त्री विरोधी प्रावधानों से भरा था लेकिन विगत 60 सालों में औरतों के संघर्ष ने उसमें स्त्री अधिकारों के प्रति जो असंतुलन था उसे कम किया है। उसके पुंसवादी रूझान को तोड़ा है।
      स्त्री-पुरूष संबंध का मतलब शादी का संबंध नहीं है। स्त्री-पुरूष संबंधों के बारे में नामवर सिंह की समझ बेहद सीमित है। वे इस टिप्पणी में स्त्री-पुरूष संबंधों को शादी के संबंध में रिड्यूज करके देखते हैं। शादी में भी बहुविवाह या अवैध विवाह में रिड्यूज करके स्त्री-पुरूष संबंध को कानूनी नजरिए से देखते हैं, वे बात शुरू करते हैं स्त्री-पुरूष संबंधों की और अचानक शिफ्ट कर जाते हैं विवाह,बहुविवाह,अवैध संबधों पर और उसमें भी निम्न-मध्यवर्गीय पुंसवादी नैतिकता के नजरिए को व्यक्त करते हैं ,विवाह के साथ ही औरतों के बारे में नामवर सिंह की टिप्पणियां पुंसवाद को अभिव्यक्त करती हैं।
    नामवर सिंह ने लिखा है ,‘यह तो मानना ही होगा कि समलैंगिकता एक अपवाद है, कोई प्रचलन नहीं। वह चाहे पुरूष पुरूष या स्त्री स्त्री के बीच हो,पर वह अप्राकृतिक है। साहित्य में इसे इसी रूप में आना चाहिए। कुछ अंग्रेजी लेखक पश्चिम के प्रभाव में इस अपवाद को ग्लोरिफाई करके सस्ती लोकप्रियता बटोरने की कोशिश कर रहे हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो मुझे स्त्रियों के अधिकारों को लेकर चल रहे आन्दोलनों का उद्देश्य समझ में नहीं आता। कहा जा रहा है कि स्त्रियाँ चूँकि अब कामकाजी हो गई हैं इसलिए वे उग्रता से अपने अधिकारों की मांग कर रही हैं। पर मुझे कोई यह तो बताए कि स्त्रियाँ कब कामकाजी नहीं थीं। यह अलग बात है कि पहले वे घरों में काम करती थीं ,अब दफ्तरों में करने लगी हैं। पर घरों का काम क्या दफ्तरों के काम से कम था। इससे भी बड़ी बात यह कि क्या घरों में काम करते हुए उनके अधिकार कम थे।’( जमाने से दो दो हाथ,पृ.123)
    नामवरसिंह जैसे प्रगतिशील विद्वान की उपरोक्त टिप्पणी स्वयं में इस बात का प्रमाण है कि उन्हें सेक्स ,परिवार और स्त्री के बारे में कितना कम और कितना गलत पता है। वरना कोई व्यक्ति इस तरह की टिप्पणी कैसे कर सकता है ‘क्या घरों में काम करते हुए उनके अधिकार क्या कम थे।’
    सच यह है कि आज भी घरों में औरतों के साथ दोयम दर्जे से भी बदतर व्यवहार किया जाता है। हमारे घरों में औरतें आज भी अधिकारहीन हैं। इस बात को नामवर सिंह जानते हैं। औरतों के पास आज की तुलना में पहले भी घरों में अधिकार शून्य के बराबर थे, यदि ऐसा न होता तो औरतों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष ही नहीं करना पड़ता। घर वस्तुतःऔरत का कैदखाना है।
    यदि नामवरसिंह के अनुसार औरतों के पास पहले अधिकार थे तो बताएं वह कौन सा जमाना था जब अधिकार थे ? औरत अधिकारहीन थी,असमानता की शिकार थी, और आज भी है। यही वजह है कि आधुनिककाल में औरत के अधिकारों ,महिला संगठनों और संघर्षों का जन्म हुआ।
   इसी तरह समलैंगिकता पर भी नामवर सिंह अवैज्ञानिक बातें कह रहे हैं। समलैंगिकता स्वाभाविक आनंद है,मित्रता है। यह वैज्ञानिक सच है कि समलैंगिकता अस्वाभाविक नहीं है। वरना इस्मत चुगताई ‘लिहाफ’ जैसी महान समलैंगिक कहानी न लिखतीं। हिन्दी में आशा सहाय ‘एकाकिनी’ जैसा महान समलैंगिक उपन्यास नहीं लिख पातीं।
      नामवर सिंह की महिला आंदोलन के बारे में भ्रांत धारणा है। उनका मानना है कि महिला आंदोलन का सामाजिक परिणाम है पति-पत्नी में तलाक। महिला आंदोलन पर चलताऊ ढ़ंग से नामवर सिंह ने लिखा है ‘ इन आंदोलनों की खास बात यह थी कि पुरूषों ने स्त्रियों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी। बाद में गांधी के असहयोग आन्दोलन और मार्क्सवाद से प्रेरित समाजवादी आन्दोलनों में स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यहाँ एक बात और कहना चाहूँगा कि पश्चिमी समाज में ऐसे आंदोलनों के अन्ततः क्या परिणाम निकले ? वहाँ हमारे समाज से अधिक तलाक होते हैं। और खासकर  सम्बंधों के मामले में वहाँ स्त्रियों का हमारे समाज से कहीं अधिक शोषण होता है। साहित्य में ये सब बातें प्रतिबिम्बित होती रही हैं। भारतीय साहित्य में स्त्री को हमेशा ही एक सम्मानित दर्जा दिया गया है। पति-पत्नी की मर्यादा का सभी लेखक निर्वाह करते आए हैं। निजी जीवन में कैसी भी स्थिति हो परन्तु साहित्य में उन्होंने पत्नी की गरिमा का ध्यान रखा है।’ (उपरोक्त,पृ.123-124)
    नामवर सिंह के अनुसार महिला आंदोलन की परिणति क्या है ? तलाक। साथ ही वे महिला आंदोलन की स्वतंत्र भूमिका और विकास को नहीं देखते बल्कि मर्दों के संघर्ष का हिस्सा मानते हैं। सच यह है कि महिला आंदोलन का परिप्रेक्ष्य  और मर्दों के द्वारा संचालित नवजागरण और समाजवादी आंदोलन के परिप्रेक्ष्य और सवालों में बुनियादी फर्क है।
     दूसरी महत्वपूर्ण भूल यह है कि स्त्री का भारतीय परिवार में पश्चिम की तुलना में कम शोषण होता है। यह बात तथ्य और सत्य दोनों ही दृष्टियों से गलत है। इस बयान में भारतीय साहित्य में स्त्री के प्रति  जिस रवैय्ये की बात कही गयी है वह गलत है। भारतीय साहित्य की मूलधारा पुंसवादी है,वहां स्त्री का पुंसवादी परिप्रेक्ष्य में व्यापक चित्रण हुआ है। साहित्य में स्त्री साहित्य की भयानक उपेक्षा हुई है। स्त्री के पुंसवादी चित्रण जैसे पति-पत्नी की मर्यादा के पुंसवादी चित्रण को नामवरसिंह आदर्श चित्रण मानते हैं।  स्त्री के प्रति पुंसवादी नजरिए और स्त्री नजरिए में वे अंतर नहीं करते।
       फिल्मों से लेकर साहित्य तक स्त्री का जो चित्रण है उसे नामवर सिंह मनमाने ढ़ंग से पेश करते हैं ,गलत तर्क देते हैं और गलत निष्कर्ष निकालते हैं। वे औरत के सामयिक तेवर से परेशान हैं और उसे संयमित होने का उपदेश देते हैं। सवाल यह है कि क्या नामवर सिंह नहींजानते कि औरतें सैंकडों सालों से पुरूषों के आक्रामक तेवर की शिकार रही हैं।
    स्वयं नामवर सिंह की इतनी घृणित और आक्रामक स्त्री विरोधी टिप्पणी की हिन्दी जगत में कायदे से भर्त्सना होनी चाहिए थी लेकिन हुआ उलटा उसे  चार-पांच प्रकाशित प्रगतिशील संकलनों में शामिल किया गया । इससे हिन्दी में प्रचलित प्रगतिशील साहित्यकारों के प्रकाशनों में छायी पितृसत्तात्मक विचारधारा की मजबूत पकड़ को देखा जा सकता है।
     प्रगतिशील लेखक संघ की पत्रिका ‘वसुधा’ ने भी इस टिप्पणी को छापा था, इससे यह भी पता चलता है कि मार्क्सवाद के नाम पर भारत में पितृसत्ता को बनाए रखने का वैचारिक और सांगठनिक तामझाम नग्नतम रूप में काम कर रहा है। यह टिप्पणी नामवर सिंह के पितृसत्तात्मक नजरिए का आदर्श उदाहरण है यह प्रगतिशील आलोचना के क्षय की भी सूचना है।
      अंत में, नामवर सिंह की आलोचना पद्धति पर उनके ही हवाले से कहना चाहता हूँ  कि नामवर सिंह ने आलोचना टुकड़ों में लिखी है। उन्होंने ‘छायावाद’ को छोड़कर किसी भी लेखक या आंदोलन पर समग्रता में नहीं लिखा है।
     उनका एक चर्चित व्याख्यान है ‘ ‘गोदान’ को फिर से पढ़ते हुए’ यह सन् 2009 में प्रकाशित हुआ है,यह उनके नजरिए का ताजा पैमाना है। इसमें नामवर सिंह ने प्रेमचंद के स्त्री और दलित समीक्षकों पर जो कहा है, वह उन पर भी लागू होता है,नामवर सिंह ने कहा है ‘‘ मैं पहली बात उनसे कहना चाहता हूँ कि जो लोग ‘गोदान’ में दलित विमर्श देखना चाहते हैं, और जो स्त्री विमर्श देखना चाहते हैं,ये देखना, ‘गोदान’ को टुकडे़ में देखना है और सम्पूर्ण की उपेक्षा करना है। ये मिथ्या चेतना और एक अर्थ में ऑडियोलॉजिकल दृष्टि है। प्रेमचंद में केवल दलित विमर्श ढूँढना और उसे गलत ठहराना या केवल स्त्री विमर्श ढूँढना ऐसा है जैसे अंधों का हाथी देखना। हाथी की पूँछ हाथ लगी तो कहा हाथी ऐसा ही होता है, यह ऑडियोलॉजिकल दृष्टि है। अर्द्धसत्य झूठ से भी ज्यादा खतरनाक होता है। उसी तरह उतना ही खतरनाक होगा-प्रेमचंद को किसी एक दृष्टि से देखना।’’ ( प्रेमचंद और भारतीय समाज,पृ.174)
    आश्चर्य की बात यह है नामवर सिंह को प्रेमचंद को समग्रता में देखने का ज्ञान 2009 में हुआ। क्या नामवर सिंह जबाब देंगे कि उन्होंने प्रेमचंद पर टुकड़ों में विचार करते हुए अपने विचारों को 24 निबंधों में अलग-अलग क्यों व्यक्त किया ? उन्होंने प्रेमचंद पर समग्रता में विचार करते हुए एक किताब क्यों नहीं लिखी ? समग्रता में विचार करते हुए कोई निबंध क्यों नहीं लिखा ?
    यदि किसी एक दृष्टि का सहारा लेकर लिखना विचारधारात्मक दृष्टि है तो उनकी इन चार किताबों में शामिल निबंधों में विभिन्न विषयों पर लिखे और बोले जिस अर्द्धसत्य को स्वयं नामवर सिंह ने व्यक्त किया है क्या उसे भी खतरनाक मानें ?
     वे जबाब दें कि उनके स्त्री के बारे में व्यक्त विचार झूठ से भी ज्यादा खतरनाक हैं या नहीं ? हम चाहेंगे नामवर सिंह स्त्री पर लिखे अपने सबसे घृणिततम लेख में व्यक्त विचारों को सार्वजनिक तौर पर अस्वीकार करें  
        नामवर सिंह टुकडों में बोल-लिखकर समग्रता में मलाई खाते रहे हैं। क्या उनके प्रेमचंद पर व्यक्त विचारों को समग्रता में व्यक्त विचार मान लें ? क्या वे कह सकते हैं कि उन्होंने जो लिख दिया वह सम्पूर्ण है,अब भविष्य में प्रेमचंद पर नया सोचा ही नहीं जा सकता  ? यदि ऐसा होगा तो हम आलोचना से लौटकर काव्यशास्त्र की दुनिया में पहुँच जाएंगे। फिर व्याख्या और पुनर्व्याख्या का क्या होगा ?
     क्या मार्क्स ने समग्रता में पूंजी को देख लिया था ? क्या संचार क्रांति युग के परवर्ती पूंजीवाद का रूप उनके यहां है ? क्या मार्क्स के विचारों के आगे जाकर पूंजी की भूमिका को देखने की जरूरत है या नहीं ?
    नामवर सिंह ,रामविलास शर्मा, विजयदेवनारायण साही आदि के नजरिए से भिन्न नजरिए से किसी एक दृष्टि से प्रेमचंद को देखना यदि विचारधारा है तो फिर इन आलोचकों में से किसने समग्रता में प्रेंमचंद पर विचार किया है ? यदि समग्रता में विचार हो ही गया है तो फिर नामवर सिंह के व्याख्यान की क्या प्रासंगिकता है ? एक सवाल यह भी उठता है नामवर सिंह को अपना सारा लिखा और बोला प्रासंगिक क्यों लगता है ? क्या वे कार्ल मार्क्स ,जार्ज लूकाच आदि की अपने लिखे को अस्वीकार करने की परंपरा से कुछ सीख ले सकते हैं ? एक अच्छे मार्क्सवादी में अपने गलत विचारों के अस्वीकार का साहस होना चाहिए। नामवर सिंह अपने गलत विचारों से अपने को अलग क्यों नहीं करते ? वे संस्कृत के काव्यशास्त्रियों की तरह अपने लिखे को परम सुंदर और सही क्यों मानते हैं ? उनकी इन किताबों में बहुत सारा हिस्सा ऐसा है जो अधूरा और विभ्रमों से भरा है,अवधारणात्मक तौर पर गलत समझ से भरा है।    
     असल में नामवर सिंह स्त्री विमर्श और दलित विमर्श को अप्रासंगिक मानते हैं। नामवर सिंह बताएं कि औरतें और दलित क्या करें ? क्या वे अपने नजरिए का निर्माण न करें ? क्या स्त्री और दलित के नजरिए से समाज,साहित्य ,संस्कृति,राजनीति,अर्थनीति को न देखा जाए ? यदि नामवर सिंह का आशय यह है कि स्त्री और दलित नजरिए से चीजों को न देखा जाए तो यह तो वर्णाश्रम व्यवस्थापंथी दृष्टिकोण की शरण में वापसी होगी । यह साहित्य की शव साधना है। प्रेमचंद पर नामवरसिंह का 2009 का व्याख्यान प्रेमचंद को सिर के बल खड़ा करने की बुद्धि का आदर्श प्रमाण है।              


































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