शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

नागार्जुन जन्मशती पर विशेष- मुस्लिम आर्थिक नाकेबंदी और हम

    भगवान से भी भयावह है साम्प्रदायिकता। साम्प्रदायिकता के सामने भगवान बौना है। साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक दंगे दहशत का संदेश देते हैं। ऐसी दहशत जिससे भगवान भी भयभीत हो जाए। जैसाकि लोग मानते हैं कि भगवान के हाथों (यानी स्वाभाविक मौत) आदमी मरता है तो इतना भयभीत नहीं होता जितना उसे साम्प्रदायिक हिंसाचार से होता है।
   बाबा नागार्जुन ने दंगों के बाद पैदा हुए साम्प्रदायिक वातावरण पर एक बहुत ही सुंदर कविता लिखी है जिसका शीर्षक है ‘तेरी खोपड़ी के अन्दर ’ । दंगों के बाद किस तरह मुसलमानों की मनोदशा बनती है । वे हमेशा आतंकित रहते हैं। उनके सामने अस्तित्व रक्षा का सवाल उठ खड़ा होता है ,इत्यादि बातों का सुंदर रूपायन नागार्जुन ने किया है।
      यह एक लंबी कविता है एक मुस्लिम रिक्शावाले के ऊपर लिखी गयी है।लेकिन इसमें जो मनोदशा है वह हम सब के अंदर बैठी हुई है। मुसलमानों के प्रति भेदभाव का देश में सामान्य वातावरण हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों ने बना दिया है। प्रचार किया जाता रहा है कि किसी मुसलमान की दुकान से कोई हिन्दू सामान न खरीदे,कोई भी हिन्दू मुसलमान को घर भाड़े पर न दे, कोई भी हिन्दू मुसलमान के रिक्शे पर न चढ़े। साम्प्रदायिक हिंसा ने धीरे-धीरे मुसलमानों के खिलाफ आर्थिक नाकेबंदी और आर्थिक हिंसाचार की शक्ल ले ली है। मुसलमानों के खिलाफ बड़े ही सहजभाव से हमारे अंदर से भाव और विचार उठते रहते हैं।
    हमारे चारों ओर साम्प्रदायिक ताकतों और कारपोरेट मीडिया ने मुसलमान की शैतान के रूप में इमेज विकसित की है। एक अच्छे मुसलमान,एक नागरिक मुसलमान,एक भले पड़ोसी मुसलमान, एक सभ्य मुसलमान, एक धार्मिक मुसलमान,एक देशभक्त मुसलमान की इमेज की बजाय पराए मुसलमान, आतंकी मुसलमान,गऊ मांस खानेवाला मुसलमान,हिंसक मुसलमान, बर्बर मुसलमान,स्त्री विरोधी मुसलमान ,परायी संस्कृति वाला मुसलमान आदि इमेजों के जरिए मुस्लिम विरोधी फि़जा तैयार की गयी है। नागार्जुन की कविता में मुसलमान के खिलाफ बनाए गए मुस्लिम विरोधी वातावरण का बड़ा ही सुंदर चित्र खींचा गया है।
कुछ अंश देखें- ‘‘ यों तो वो/ कल्लू था-/ कल्लू रिक्शावाला/यानी कलीमुद्दीन.../मगर अब वो/ ‘परेम परकास’/ कहलाना पसन्द करेगा.../कलीमुद्दीन तो भूख की भट्ठी में / खाक हो गया था /’’ आगे पढ़ें- ‘‘जियो बेटा प्रेम प्रकाश / हाँ-हाँ ,चोटी जरूर रख लो/ और हाँ ,पूरनमासी के दिन /गढ़ की गंगा में डूब लगा आना/ हाँ-हाँ तेरा यही लिबास/ तेरे को रोजी-रोटी देगा/ सच,बेटा प्रेम प्रकाश, तूने मेरा दिल जीत लिया/ लेकिन तू अब /इतना जरूर करना/मुझे उस नाले के करीब/ ले चलना कभी/ उस नाले के करीब/जहाँ कल्लू का कुनबा रहता है/ मैं उसकी बूढ़ी दादी के पास/बीमार अब्बाजान के पास/बैठकर चाय पी आऊँगा कभी/ कल्लू के नन्हे -मुन्ने/ मेरी दाढ़ी के बाल/ सहलाएंगे... और/ और ? / ‘‘ और तेरा सिर.../ ’’ मेरे अंदर से/ एक गुस्सैल आवाज आयी.../-बुडढ़े,अपना इलाज करवा/तेरी खोपड़ी के अंदर/ गू भर गयी है/खूसट कहीं का/कल्लू तेरा नाना लगता है न ? /खबरदार साले/ तुझे किसने कहा था/मेरठ आने के लिए ?.../ लगता है/वो गुस्सैल आवाज /आज भी कभी-कभी/सुनाई देती रहेगी.../
एक जमाने में भाजपा को जनसंघ के नाम से जानते थे। जनसंघ पर बाबा ने लिखा ‘‘तम ही तम उगला करते हैं अभी घरों में दीप/वो जनसंघी ,वो स्वतंत्र हैं जिनके परम समीप/ उनकी लेंड़ी घोल-घोल कर लो यह आँगन लीप/उनके लिए ढले थे मोती,हमें मुबारक सीप/तम ही तम उगला करते हैं अभी घरों में दीप।    

                








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