शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

आओ मुसलमानों से प्यार करें

               मैं बाबा रामदेव को प्यार करता हूँ। मोहन भागवत को भी प्यार करता हूँ।मदर टेरेसा, सोनिया गांधी,मनमोहन सिंह,प्रकाश कारात को भी प्यार करता हूँ। वैसे ही हिन्दुस्तान के हिन्दुओं, ईसाईयों, सिखों,जैनियों,बौद्धों को भी प्यार करता हूँ। इन सबके साथ मैं मुसलमानों को भी प्यार करता हूँ।
    मेरा मानना है इस संसार में मनुष्य से घृणा नहीं की जा सकती,उसी तरह पशु-पक्षियों से भी नफरत नहीं की जा सकती। मुझे मोहन भागवत एक मनुष्य के नाते प्रिय हैं। संघ के नाते मैं उनका आलोचक हूँ। इसी तरह बाबा रामदेव मनुष्य ने नाते ,एक योगी के नाते प्रिय हैं। एक योगव्यापारी के नाते मैं उनका आलोचक हूँ। इसी तरह मुझे पंकजझा और उनके तमाम संघभक्त दोस्त भी प्रिय हैं। वे मेरे शत्रु नहीं हैं। मैं नहीं समझता कि वे अपनी तीखी प्रतिक्रियाओं से कोई बहुत बड़ा अपकार कर रहे हैं। वे मनुष्य प्राणी के नाते हमारे बंधु हैं ।
     हिन्दुओं में कुछ लोग मेरे लेखन से असहमत हों। वे इस कारण तरह-तरह के निष्कर्ष निकाल रहे हैं। मैं निजी तौर पर उनका भी शुक्रगुजार हूँ जो मुझमें बुखारी देख रहे हैं। वे अभी न जाने क्या -क्या नहीं बना देंगे। क्योंकि मैं उनके गंभीर विचारों को अपनी आलोचना से डिस्टर्व कर रहा हूँ। वे बेहद परेशान हैं।
     उनका मानना है कि मैं इतना खराब हिन्दू क्यों हूँ जो हिन्दू होकर हिन्दुओं के जो तथाकथित गौरवपुरूष हैं उनकी आलोचना लिख रहा हूँ। मैं यहां किसी से यह प्रमाणपत्र लेना या उसे प्रमाणपत्र देना नहीं चाहता कि कौन कितना बड़ा हिन्दू है। कौन सही हिन्दू हैं या मुसलमान हैं । यह आपकी अपनी निजी मान्यता की समस्या है। इसके लिए किसी को प्रमाणपत्र देने का ठेका नहीं दिया जा सकता।
     हिन्दुओं में जो लोग आलोचनात्मक विवेक की हत्या करने,हिन्दुओं में हिन्दुत्व के नाम पर गुलामी की भावना,अंधराष्ट्रवाद, हिन्दुत्व की अंधी होड़ में झोंकने के लिए जिम्मेदार हैं ,उन्हें हम कभी क्षमा नहीं कर सकते।  उनके प्रति हमारा आलोचनात्मक रूख हमेशा रहेगा। हिन्दू कभी विचारअंध नहीं रहे हैं।
      हिन्दुत्व के प्रचारकों ने विचार अंधत्व पैदा किया है। हिन्दू धर्म में विचारों की खुली प्रतिस्पर्धा ती परंपरा रही है और यह परंपरा उन लोगों ने ड़ाली थी जो लोग कम से कम आरएसएस में कभी नहीं रहे।
      संघ परिवार और उसके संगठनों के विचारों की उम्र बहुत छोटी है। हिन्दू विचार परंपरा में वे कहीं पर भी नहीं आते। वे हिन्दुत्व के नाम पर आम लोगों में पराएपन का प्रचार कर रहे हैं , घृणा पैदा कर रहे हैं। इसके लिए मुझे किसी प्रमाण देने की जरूरत नहीं हैं। हिन्दुत्व के नए सिपहसालारों ने जिस तरह के व्यक्तिगत और विषय से हटकर अपने विचार मेरे लेखों पर व्यक्त किए हैं। वे इस बात का प्रमाण हैं कि संघ परिवार की विचारधारा अंततः किस तरह घृणा के प्रचारक तैयार कर रही है।
     प्रवक्ता डॉट कॉम लोकतांत्रिक मंच है और उसे इस रूप में काम जारी रखना चाहिए। मेरा विनम्र अनुरोध है कि जो लोग मेरे लेखों पर अपनी राय बेबाक ढ़ंग से देना चाहते हैं वे विषय पर अपनी राय दें और व्यक्ति के रूप में  मुझे केन्द्र में रखकर न दें।
     मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि हिन्दूशास्त्रों की शिक्षा मुझे श्रेष्ट हिन्दू विद्वानों से मिली है,उसी तरह मार्क्सवाद की भी शिक्षा श्रेष्ठ मार्क्सवादी विद्वानों से मिली है। एक हिन्दू के जितने संस्कार होने चाहिए वे मेरे भी हुए हैं।
    मैं जानता हूँ कि संघ के अधिकांश मतानुयायी हिन्दू धर्म के अधिकांश पूजा-पाठ, विधि-विधान,मंत्रोपासना,देवपूजा आदि के बारे में किसी भी किस्म की हिन्दूशास्त्र में वर्णित परंपरा का पालन नहीं करते।
     जो लोग हिन्दुत्व के नाम पर उलटी-सीधी बातें मेरे लेखों पर लिख रहे हैं वे ठीक से एक धार्मिक हिन्दू की तरह चौबीस घंटे आचरण तक नहीं करते। हिन्दुत्ववादी यदि एक अच्छे हिन्दूपंथानुयायी भी तैयार करते तो भारत की और हिन्दू समाज की यह दुर्दशा न होती।
    हिन्दुत्ववादियों की हिन्दू धर्म के उत्थान में कोई रूचि नहीं है। वे हिन्दू धर्म के मर्म का न तो प्रचार करते हैं और नहीं आचरण करते हैं। इस मामले में वे अभी भी कठमुल्ले इस्लामपरस्तों से पीछे हैं। आश्चर्यजनक बात यह है कि हिन्दुत्ववादियों ने अपने को राष्ट्रवाद, फासीवाद, साम्प्रदायिकता,हिन्दु उत्थान,हिन्दू एकता आदि के बहाने हिन्दुत्ववादी राजनीति से जोड़ा है।
       उल्लेखनीय है हिन्दुओं के लिए ज्ञान में श्रेष्ठता का वातावरण बनाने में सघ परिवार की कभी भी कोई सकारात्मक भूमिका नहीं रही है। बल्कि संघ परिवार अन्य फासिस्ट संगठनों की तरह बौद्धिकता और बुद्धिजीवियों से घृणा करना सिखाता रहा है। बेसिर-पैर की हांकने वाले गपोडियों को प्रोत्साहन देता रहा है। संघ के विचारों का हिन्दी के बुद्धिजीवियों और लेखकों पर कितना असर है,इसे जानकर ही उनके विचारों की शक्ति का अंदाजा लगा सकते हैं। हिन्दी में अधिकांश बड़े लेखक-साहित्यकार संघ के प्रभाव से आज भी मुक्त है। संघ के पास पांच बड़े श्रेष्ठ हिन्दी लेखक और समीक्षक नहीं हैं।
     संघ परिवार की विचारधारा से प्रभावित हिन्दी में शिक्षक मिल जाएंगे लेकिन बड़े प्रतिष्ठित साहित्यकार मुश्किल से मिलेंगे। हिन्दुत्ववादी बताएं इसका क्या कारण है ? हमारे  संघ भक्त जबाब दें कि प्रेमचंद को बोल्शेविक क्रांति क्यों पसंद थी और वे साम्प्रदायिकता से घृणा क्यों करते थे ?
     मैं नहीं जानता कि संघ परिवार के लोगों को मुसलमानों से खासतौर पर नफरत क्यों हैं ? मैं निजी तौर पर मुसलमानों और इस्लाम से बेहद प्यार करता हूँ। मैं निजी तौर पर बुद्धिवादी हिन्दू हूँ और हिन्दूधर्म की तमाम किस्म की रूढ़ियों को नहीं मानता। मुझे हिन्दूधर्म की बहुत सी अच्छी बातें पसंद हैं। पहली ,हिन्दू धर्म अन्य किसी धर्म के प्रति घृणा करना नहीं सिखाता। हिन्दू धर्म ने अन्य धर्मों के प्रति घृणा का नहीं प्रेम का संदेश दिया है। इसी तरह वर्णाश्रम व्यवस्था के जो बाहर है ,उनके प्रति घृणा की बात कहीं नहीं लिखी है। खासकर मुसलमानों के खिलाफ किसी भी किस्म के घृणा से भरे उपदेस नहीं मिलते।
     इसके विपरीत हिन्दूधर्म के विभिन्न मत-मतान्तरों और सृजनकर्मियों पर इस्लाम का गहरा प्रभाव दर्ज किया गया है। मुझे इस्लाम धर्म की कई बातें बेहद अच्छी लगती हैं । इन बातों को हमारे हिन्दुत्ववादियों को भी सीखना चाहिए। प्रथम,जो मनुष्यों को गुमराह करते हैं वे शैतान कहलाते हैं। दूसरी बात ,मनुष्य सिर्फ एकबार जन्म लेता है।
    इसके अलावा जो चीज मुझे अपील करती है वह है इस्लामी दर्शन की किताबों का गैर इस्लामिक मतावलंबियों के द्वारा किया गया अनुवाद कार्य और उनके प्रति इस्लाम मताबलंबियों का प्रेम।
   एक मजेदार किस्से का मैं जिक्र करना चाहूँगा। गैर मुस्लिम अनुवादक अपने धर्म को बदलना नहीं चाहते थे। हमें जानना चाहिए कि इन अनुवादकों के संरक्षकों की नीति क्या थी ? इसका अच्छा उदाहरण है इब्न जिब्रील का। खलीफा मंसूर (754-75 ई.) ने एक बार  जिब्रील से पूछाकि ,तुम मुसलमान क्यों नहीं हो जाते,उसने उत्तर दिया- ‘‘अपने बाप-दादों के धर्म में ही मरूँगा। चाहे वे जन्नत (स्वर्ग)में हों ,या जोज़ख (नरक) में,मैं भी वहीं उन्हीं के साथ रहना चाहता हूँ।’’ इस पर खलीफा हँस पड़ा,और अनुवादक को भारी इनाम दिया। इस घटना का जिक्र महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ नामक ग्रंथ में किया है।
    इस्लाम दर्शन की हिन्दू दर्शनशास्त्र की तरह विशेषता है कि इस्लाम दर्शन की विभिन्न धारणाओं को लेकर मतभिन्नता। इस्लाम दर्शन इकसार दर्शन नहीं है। यहां अनेक नजरिए हैं। यह धारणा गलत है कि समूचा इस्लाम दर्शन किसी एक खास नजरिए पर जोर देता है।
     राहुल सांकृत्यायन की ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ किताब का जिक्र मैं खासतौर पर करना चाहूँगा और अपने पाठकों से अनुरोध करूँगा कि वे इसे जरूर पढ़ें। हिन्दी में राहुल सांकृत्यान ने पहलीबार इस्लाम दर्शन और धर्म पर बेहद सुंदर और प्रामाणिक ढ़ंग से लिखा था।
     जिस तरह हिन्दुओं में धर्मशास्त्र है और उससे जुड़ा वैविध्यपूर्ण आचारशास्त्र है वैसे ही इस्लाम में भी वैविध्यपूर्ण आचारशास्त्र है। उनके यहां आचारशास्त्र के अनेक महान ग्रंख लिखे गए हैं। इस्लाम में ऐसे भी मतावलंबी है जो आस्था के पैमाने से इस्लाम को देखते हैं और ऐसे भी विचार स्कूल हैं जो बुद्धिवाद के पैमाने के आधार पर इस्लाम धर्म को व्याख्यायित करते हैं।
    यह कहना गलत है कि मुसलमान सिर्फ धार्मिक आस्था के लोग होते हैं। सच यह है कि उनके यहां मध्यकाल से लेकर आधुनिककाल तक बुद्धिवादियों की लम्बी परंपरा है। ऐसी ही परंपरा हिन्दू धर्म के मानने वालों में भी है। मुझे इस्लाम की बुद्धिवादी परंपरा से प्यार है। यह ऐसी परंपरा है जिससे समूची दुनिया प्रभावित हुई है। आओ हम यह जानें कि मुसलमान कठमुल्ला ही नहीं होता बल्कि बुद्धिवादी भी होता है। इस्लाम के धार्मिक और आचारगत मतभेदों में विश्वास करता है। उनके यहां भी विवेकवाद की परंपरा है।






3 टिप्‍पणियां:

  1. @चतुर्वेदी जी
    नमाज़ कब कायम कर रहे है ?????????

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  2. बहुत सुंदर!
    बस इस पंक्ति को कुछ संशोधन चाहिए
    मुसलमान कठमुल्ला नहीं होता बल्कि बुद्धिवादी होता है।
    ऐसा..
    मुसलमान कठमुल्ला ही नहीं होता बल्कि बुद्धिवादी भी होता है।

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  3. दिनेश जी आपका संशोधन लागू कर दिया है। संशोधन बताने लिए धन्यवाद।

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