गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

कवि चतुष्टयी जन्मशती पर विशेष - नामवरजी बोलो कौन पा रहा है, कौन खो रहा है ?

               (नामवर सिंह और बाबा नागार्जुन)
        वर्धा में महात्मा गांधी विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित कवि चतुष्टयी जन्मशती पर आलोचक नामवर सिंह ने जो कहा वह कमाल की बात है । अब हमारे गुरूवर बिना परिप्रेक्ष्य के सिर्फ विवरण की भाषा बोलने लगे हैं। परिप्रेक्ष्यरहित आख्यान और रिपोर्टिंग का नमूना देखें- "इस कार्यक्रम के उद्घाटन भाषण में नामवर जी ने बीसवी सदी को सर्वाधिक क्रांतिकारी घटनाओं की शताब्दी बताया। ऐसी शताब्दी जिसमें दो-दो विश्वयुद्ध हुए, विश्व की शक्तियों के दो ध्रुव बने, फिर तीसरी दुनिया अस्तित्व में आयी। समाजवाद का जन्म हुआ। सदी का अंत आते-आते इन ध्रुवों के बीच की दूरी मिटती गयी। तीसरी दुनिया भी बाकी दुनिया में मिलती गयी और समाजवाद प्रायः समाप्त हो गया। नामवर जी ने नागार्जुन की प्रशंसा करते हुए कहा कि बाबा ने काव्य के भीतर बहुत से साहसिक विषयों का समावेश कर दिया जो इसके पहले कविता के संभ्रांत समाज में वर्जित सा था।"
     नामवर सिंह जानते हैं कि परिप्रेक्ष्यरहित विवरण बड़े खतरनाक होते हैं। उनका कोई भी इस्तेमाल कर सकता है ,इनके पैर नहीं होते। नामवर सिंह का बीसवीं शताब्दी का वर्णन जलेबी मार्का व्याख्यान कला का आदर्श नमूना है। आपको इसमें बीसवीं सदी का ओर-छोर हाथ नहीं लगेगा। कौन खिलाड़ी था और कौन पिट रहा था,यह पता नहीं चलेगा। इस तरह के व्याख्यान की मुश्किल यह है कि इसमें भारत गायब है।भारत का यथार्थ गायब है। प्रतिवादी लोकतंत्र की चुनौतियां गायब हैं। सवाल उठता है नामवर सिंह ने ऐसा क्यों किया ?
       नामवर सिंह ने यह भी नहीं बताया कि मनमोहन सिंह के नव्य उदार अर्थशास्त्र और तदजनित संस्कृति का क्या करें ? लोकतांत्रिक प्रतिवादों का जो दमन हो रहा है उसका क्या करें ? हो सकता है, उन्होंने इस पर बोला हो,पर वेब  रिपोर्ट में यह गायब है।
    लेकिन इस समूची उधेड़बुन में हमें यह सवाल तो नामवर सिंह से पूछना है कि वे अज्ञेय के अमेरिकापरस्त रूझान और बाकी कवियों के अमेरिकी साम्राज्यविरोधी नजरिए में कैसे सामंजस्य बिठा रहे हैं ? क्या अज्ञेय पर अलग से कार्यक्रम नहीं किया जा सकता था ? जो कवि (अज्ञेय) लोकतांत्रिक संघर्षों से भागता हो उसका उन कवियों के साथ कैसे मूल्यांकन कर सकते हैं जो प्रतिवादी लोकतंत्र को पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। कुर्बानी देने वाले लेखक और कुर्बानीरहित लेखक के बीच में कैसे पटरी बिठायी जा सकती है ?
    अज्ञेय और अन्य कवियों में अंतर यह है कि अज्ञेय को बुर्जुआ लोकतंत्र पसंद था, लेकिन नागार्जुन,केदार और शमशेर को बुर्जुआ लोकतंत्र नापसंद था। वे अपने लिए,अपने समाज के लिए,पीड़ित जनता के लिए प्रतिवादी लोकतंत्र की तलाश कर रहे थे, प्रतिवादी लोकतंत्र का वातावरण बना रहे थे। उसके लिए विभिन्न रूपों में इन कवियों ने अनेक कुर्बानियां दीं। इसके विपरीत अज्ञेय ने लोकतंत्र के लिए कौन सी कुर्बानी दी ? सवाल उठता हिन्दी के स्वनाधन्य बड़े आलोचक अनालोचनात्मक ढ़ंग से क्यों सोचने लगे हैं ?  साहित्य,साहित्यकार और साहित्य के सामाजिक सरोकारों के प्रति वे अनालोचनात्मक क्यों होते जा रहे हैं ? वे साहित्य में सच की खोज से क्यों भाग रहे हैं ? साहित्य में सच की खोज से भागने का प्रधान कारण है लेखक का सामयिक यथार्थ से अलगाव और दिशाहीन नजरिया। नामवर सिंह और उनके समानधर्माओं के लिए नागार्जुन की एक कविता को उद्धृत करने का मन कर रहा है। बाबा ने लिखा था-
  
"यह क्या हो रहा है जी ?
आप मुँह नहीं खोलिएगा !
कुच्छो नहीं बोलिएगा !
कैसे रहा जाएगा आपसे ?
आप तो डरे नहीं कभी अपने बाप से
तो बतलाइए,यह क्या हो रहा है ?
कौन पा रहा है, कौन खो रहा है ?
प्लीज बताएँ तो सही...
अपनी तो बे-कली बढ़ती जा रही
यह क्या हो रहा है जी
प्लीज बताएं तो सही...."







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