(बाबा नागार्जुन)
नागार्जुन पर जो लोग शताब्दी वर्ष में माला चढ़ा रहे हैं। व्याख्यान झाड़ रहे हैं। नागार्जुन के बारे में तरह-तरह का ज्ञान बांट रहे हैं ऐसे हिन्दी में 20 से ज्यादा लेखक नहीं हैं। ये लेखक कम साहित्य के कर्मकाण्डी ज्यादा लगते हैं। आप इनमें से किसी को भी फोन कीजिए ये लोग किसी भी कार्यक्रम और किसी भी विषय पर बोलने के लिए मना नहीं करते। वे जिस भावभंगिमा के साथ प्राचीन कवि स्वयंभू पर बोलते हैं उसी भावभंगिमा और विवेक के साथ नागार्जुन पर भी बोलते हैं। वे जिस भाव से अज्ञेय पर बोल रहे हैं उसी भाव से केदारनाथ अग्रवाल पर भी बोल रहे हैं। आप तय नहीं कर सकते कि इनका इस लेखक के बारे में क्या स्टैंड है ? आपको यह पता नहीं लगेगा कि ये इस लेखक के बारे में कितना जानते हैं और इन्होंने क्या लिखा है। असल में ये हिन्दी में कीर्तिफल के उपभोक्ता हैं।
खासकर कवि चतुष्टयी के कवियों पर विगत दस सालों में नया क्या लिखा है ? आप पता करने जाएंगे तो निराशा हाथ लगेगी। हिन्दी के ज्ञान कांड की यह वास्तव तस्वीर है। इसमें लेखकों और आलोचकों का एक झुंड है जो पूरे देश में कवि चतुष्टयी पर बोलता घूम रहा है।
मेरी अभी तक यह समझ में नहीं आता कि जब वक्ता ने संबंधित विषय पर विगत एक दशक में नया कुछ लिखा ही नहीं तो फिर आयोजक ऐसे वक्ताओं को क्यों बुलाते हैं ? ऐसा क्यों होता है कि ये 20 हिन्दी लेखक-आलोचकों में से सभी कार्यक्रमों में लेखक बुलाए जाते हैं ? सवाल उठता है कि वर्षों से जिसने उस लेखक या विषय पर कभी लिखा ही नहीं तो ऐसे व्यक्ति को आयोजक क्यों बुलाते हैं ? संबंधित विषय के बारे में ये विद्वान कितने गंभीर हैं यह बात तो इससे ही सिद्ध हो जाती है कि उन्होंने वर्षों से उस पर लिखा ही नहीं।
असल में हिन्दी में आयोजनों का अधिकांश ठेका इन्हीं स्वनामधन्य विद्वानों के पास है। इन लोगों ने वातावरण ऐसा बनाया है कि आपको लगेगा कि नागार्जुन वाले कार्यक्रम में इन विद्वानों को नहीं बुलाएंगे तो कार्यक्रम बढ़िया नहीं हो पाएगा। बढ़िया कार्यक्रम के लिए बढ़िया अंतर्वस्तु और नई प्रस्तुति भी चाहिए। ये लेखक विगत 20 से भी ज्यादा सालों से सभी कार्यक्रमों में आ-जा रहे हैं शोभा बढ़ा रहे हैं और हिन्दी के ज्ञानकांड को कर्मकांड में तब्दील कर चुके हैं। हिन्दी आलोचना के वातावरण को नष्ट करने में इनकी टोली और इनके मुखियाओं की जो भूमिका रही है उस पर इस शताब्दी वर्ष में कड़ी समीक्षा करने की जरूरत है।
ऐसी ही अवस्था पर नागार्जुन ने "कीर्त्ति का फल" नामक कविता लिखी थी-पढ़ें और सोचें-
अगर कीर्त्ति का
फल चखना है
कलाकार ने फिर-फिर
सोचा-
आलोचक को खुश रखना है!
अगर कीर्त्ति का
फल चखना है
आलोचक ने फिर-फिर
सोचा
कवियों को नाथे रखना है!!
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