बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

भारत में कम्युनिस्टों को जनता क्यों प्यार करती है ?

(पश्चिम बंगाल दो मुख्यमंत्री बाएं स्व.ज्योति बसु और दाएं वर्तमान मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य)

     इधर एक पाठक ने पूछा है कि पश्चिम बंगाल-केरल में कम्युनिस्ट सत्ता में कैसे आते हैं ? मैं खासकर पश्चिम बंगाल के संदर्भ में कम्युनिस्टों की भूमिका के बारे में कुछ रोशनी डालना चाहता हूँ। मैं आरंभ में कह दूँ कि पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों ,खासकर माकपा के अंदर सब कुछ ठीक दिशा में नहीं चल रहा। इसके बारे में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) भी जानती है। मैं दलीय विवादों से उठकर कम्युनिस्टों की बड़ी सामाजिक भूमिका की ओर ध्यान खींचना चाहूँगा।
     हम सब जानते हैं कि सारे देश में पूंजी और पूंजीवादी विकास की आंधी चल रही है। उपभोक्तावाद का तूफान आया हुआ है। इसके दो परिणाम निकले हैं सारे देश में बेगानापन बढ़ा है। सामाजिक एकाकीपन बढ़ा है। साथ ही उपभोक्तावाद के उछाल ने गरीबों का जीना दूभर कर दिया है। इन दोनों प्रवृत्तियों का कम्युनिस्टों ने अपने तरीके से जबाब खोजा है और वे अभी तक उस पर चल रहे हैं और समाज में भी उनके इन प्रयासों की झलक दिख रही है।
     मसलन पश्चिम बंगाल में आप राजनीति के बिना नहीं रह सकते। सामुदायिक भावना के बिना आपका कोई सहारा नहीं है। सामुदायिक भावना और सामूहिकता के यहां पर आधुनिक स्रोत हैं राजनीतक दल,क्लब ,यूनियन वगैरह। यहां लोगों को कोई भी परेशानी होती है दौड़कर घर के पास के क्लब वालों के पास जाते हैं ,और वे लोग आमतौर पर मदद भी करते हैं। आपको हर स्थिति में सामुदायिक मदद मिल सकती है। आप चाहें तृणमूल के पास जाएं या माकपा के पास जाएं। सभी ओर सामुदायिक गोलबंदियां मिलेंगी। इन सामुदायिक गोलबंदियों को तैयार करने में कम्युनिस्टों की बड़ी भूमिका है।
    जो लोग सोचते हैं कि सामुदायिक गोलबंदी के बिना जी सकते हैं वे नहीं जानते कि अकेले रहने का क्या दुख है। पूंजीवाद ने मनुष्य को अकेला किया है और समाज से अलग-थलग डाला है। पश्चिम बंगाल में पूंजीवाद के इस बेगानेपन और एकाकीपन को कम्युनिस्टों ने तोड़ा है। इस चक्कर में कुछ इलाकों में निहित स्वार्थी लोगों ने कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य दलों का दुरूपयोग किया है। लेकिन इसे मैं बड़ी समस्या नहीं मानता। समस्या तब आती है जब निजी निहित स्वार्थों के लिए सामुदायिक संगठनों का दुरूपयोग होने लगे और निजी जीवन में हस्तक्षेप होने लगे। विगत कई सालों से माकपा के सदस्यों की इस तरह की हरकतों ने कम्युनिस्टों से जनता को नाराज कर किया है।   
     कम्युनिस्टों का काम आम जनता ने निजी जीवन में हस्तक्षेप करना नहीं है। वे सामुदायिकता को बचाने की सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा हैं। उन्हें इस काम को बड़ी सावधानी से करना चाहिए।
  कम्युनिस्टों ने दूसरा बड़ा काम यह किया है कि उनके शासन के 35 सालों में गरीब के जीने के लिए सामान्य वातावरण बना है। पूंजीवादी विकास ने भारत के महानगरों का हुलिया बदल दिया है। महानगरों में गरीब का जीना भयानक कष्टप्रद हो गया है। आप कोलकाता या पश्चिम बंगाल में कहीं पर भी जाइए आपके पास जितना पैसा है उतने में खाना मिल जाएगा। आप पांच रूपये से लेकर पांच हजार रूपये तक में अपना पेट आराम से भरकर सो सकते हैं। सस्ता खाना आम तौर पर फुटपाथ पर लगी दुकानों पर मिल जाएगा। मजेदार बात यह है कि यहां मंहगी दुकान के ठीक सामने सस्ती दुकान फुटपाथ पर प्रत्येक स्थान पर लगी मिलेगी। यहां तक कि अभिजन इलाकों में भी सस्ती फुटपाथी दुकानें मिल जाएंगी। साधारण आदमी के जीवन की जितनी गहरी चिंता यहां के जनजीवन में कम्युनिस्टों ने पैदा की है उसके ही कारण इतने लंबे समय से वाममोर्चा शासन में है।
    वाममोर्चा का शासन दमन -उत्पीडन के आधार पर नहीं है बल्कि वे सालों साल आम जनता में काम करते हैं। पार्टियों के ऑफिस खुलते हैं, उनमें आम लोग अपनी शिकायतें लेकर जाते हैं और उन शिकायतों पर यथोचित कार्रवाई भी होती है। इस काम में राज्य सरकार और नौकरशाही से ज्यादा पार्टीतंत्र पर भरोसा करते हैं। यहां राज्य सरकार है लेकिन पार्टीतंत्र सर्वोच्च है । इस तरह की व्यवस्था के फायदे और नुकसान दोनों हैं। लेकिन दोनों ही तंत्र सक्रिय हैं,तुलनात्मक तौर पर पार्टी तंत्र ज्यादा सक्रिय है। इस पूरी प्रक्रिया में लोकतंत्र और पार्टीतंत्र के अंतर्विरोध भी सामने आए हैं।
   कम्युनिस्टों की हाल के लोकसभा चुनावों में पराजय का प्रधान कारण है ,पार्टी में गैर कम्युनिस्ट रूझानों का बढ़ना। जनता को कम्युनिस्ट रूझानों से कोई शिकायत नहीं है बल्कि उसे गैर कम्युनिस्ट रूझानों से परेशानी हुई है। मसलन कम्युनिस्ट पार्टी में निहित स्वार्थी तत्वों-अपराधी तत्वों ने शरण लेकर कम्युनिस्टों को नुकसान पहुँचाया है।
     पश्चिम बंगाल-केरल और त्रिपुरा ये तीन राज्य हैं जहां कम्युनिस्टों के नेतृत्व में शासन है। इन सरकारों के बारे में आज तक यह सत्य सभी मानते हैं कि वाम मंत्रियों के ऊपर विगत 60 सालों में कभी भ्रष्टाचार का दाग नहीं लगा और यदि कभी कोई बात पार्टी की नोटिस में लायी गयी है तो उसने सख्त कार्रवाई की है। केरल में माकपा सचिव का.विजयन के मामले को छोड़कर। पश्चिम बंगाल में 35 सालों तक शासन करने के बाबजूद किसी भी मंत्री या मुख्यमंत्री के खिलाफ कोई भी भ्रष्टाचार का मामला विपक्ष ने नहीं उठाया है। कम से कम कम्युनिस्टों ने ऐसी राजनीतिक मिसाल कायम की है जिसमें कोई घूसखोर मंत्री कम्युनिस्ट शासन में पैदा नहीं हुआ। मेरे ख्याल से किसी पूंजीवादी मुल्क या समाजवादी चीन में भी ऐसी मिसाल कम्युनिस्ट पार्टी कायम नहीं कर पायी है। यह सारी दुनिया में राजनीति की विरल मिसाल है।
    दूसरी एक चीज और है जिसने कम्युनिस्टों को उनके द्वारा शासित राज्यों में जनप्रियता दिलाई है। वह है उनकी सादगीपूर्ण जीवनशैली। बड़े से लेकर छोटे कार्यकर्त्ता तक सादगी का तानाबाना आपको सहज ही दिखाई दे जाएगा।
   तीसरी बड़ी चीज है मंत्री से लेकर एमपी -एमएलए तक,जिला स्तरीय नेताओं से लेकर पंचायत स्तरीय नेताओं तक सबका सामान्य जनता के साथ जीवंत और अनौपचारिक संबंध। आम तौर पर मंत्री बगैरह सामान्य नागरिक की तरह कोलकाता से लेकर पूरे राज्य में घूमते रहते हैं। उनके साथ किसी भी किस्म की सुरक्षा व्यवस्था नहीं होती। नेताओं का जितना सुरक्षित जीवन यहां पर है उतना कहीं नहीं है।
     यह सच है कि पश्चिम बंगाल में अपराधी है। अपराध के बड़े केन्द्र भी हैं, लेकिन अपराधियों को कभी भी राजनीतिक टिकट वाममोर्चे ने नहीं दिया। साफ-सुथरी राजनीति का एक आदर्श मानक उन्होंने तैयार किया है। इसका यह अर्थ नहीं है माकपा के पास सब संत हैं। जी नहीं,माकपा या वाम के अंदर भी अपराधी चले आए हैं जिनसे वामपंथ जान छुड़ाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन इसकी तुलना में विपक्षी दलों के पास बड़ी तादाद में अपराधी तत्व हैं और उनका वे राजनीतिक मोर्चे पर भी इस्तेमाल करते हैं। इसके बावजूद वाममोर्चे ने साफ-सुथरी राजनीति की संभावनाओं को साकार किया है। संभवतः भारत के एकमात्र मुख्यमंत्री हैं बुद्धदेव भट्टाचार्य जो जनबहुल बस्ती में सबसे छोटे घर में रहते हैं। मुख्यमंत्री जनता के बीचों-बीच रहे और सुरक्षित रहे यह सिर्फ पश्चिम बंगाल में संभव है।
   पश्चिम बंगाल के सुरक्षा वातावरण के दो उदाहरण देना चाहूँगा। पहला उदाहरण है फारूख अब्दुल्ला साहब का। वे केन्द्रीय मंत्री हैं और कुछ महीना पहले किसी काम से उन्हें खडगपुर जाना था अचानक मौसम की गड़बड़ी के कारण उनको अपने विमान से कोलकाता में उतरना पड़ा। इस संदर्भ में उन्होंने स्थानीय पुलिस को व्यवस्था कर देने के लिए कह भी दिया। लेकिन ऐन मौके पर किसी वजह से पुलिस के लोग नहीं पहुँचे,वे जेड केटेगरी की सुरक्षा वाले केन्द्रीय मंत्री हैं, वे अपने विमान से बाहर आए तो बाहर आकर देखा कि राज्य सरकार का कोई भी अधिकारी उनकी स्वागत,निगरानी,सुरक्षा आदि के लिए एयरपोर्ट पर नहीं है,फारूख साहब सीधे बाहर आए और उन्होंने एक टैक्सी भाड़े पर ली और कहा मुझे सॉल्टलेक ले चलो। टैक्सी वाले से उन्होंने पूछा कितना भाड़ा लोगे,उसने कहां जितना इछ्छा हो देना,जिस समय यह वाकया घटा उस समय रात के 11 बज चुके थे और फारूख साहब आराम से सुरक्षित सॉल्टलेक वाले पते पर पहुँच गए। वे जब पहुँच गए तो पीछे-पीछे पुलिस अफसरान भागे-भागे पहुँचे। फाऱूख साहब ने मीडिया को सारा वाकया बताया और कहा कि मैं जब इसबार दिल्ली से चला था  तो मेरी इच्छा थी कि मैं एक साधारण आदमी की तरह कोलकाता में जाऊँ,क्योंकि मुझे मालूम है कि कोलकाता सबसे सुरक्षित शहर है। वे खुश थे कि उन्हें अपनी इच्छा पूरी करने का मौका मिल गया। तकरीबन ऐसा ही वाकया केन्द्रीयमंत्री जयराम रमेश के साथ भी हुआ और उन्हें एयरपोर्ट पर कोई सरकारी अधिकारी लेने नहीं आया और वे ठाट से एयरपोर्ट से बाहर आकर टैक्सी लेकर सॉल्टलेक स्थित सरकारी निवास की ओर चल दिए और वे जब आधी दूरी तय कर चुके थे तो राज्य पुलिस के अधिकारी उनके पीछे भागे-भागे पहुँचे। लेकिन वे खुश थे और सुरक्षित थे। कहने का अर्थ है कोलकता का नागरिक जीवन पूर्णतः सुरक्षित है। इसमें कम्युनिस्टों की बड़ी भूमिका है। जो पुराने लोग हैं वे बताते हैं कि 1972-77 के बीच में कोलकाता सबसे असुरक्षित शहर था,उस समय शाम ढ़ले लोग घरों में बंद हो जाते थे। उस समय सिद्धार्थशंकर राय का शासन था और हिंसा और असुरक्षाका नंगा ताण्डव चल रहा था। आज किंतु ऐसा नहीं है। कम्युनिस्टों ने भयमुक्त वातावरण पैदा किया है।   
















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