मंगलवार, 13 जुलाई 2010

ग्लोबलाइजेशन का शोकगीत -2-

        ग्लोबलाईजेशन के कारण बड़े पैमाने पर देशी उद्योग-धंधों के लिए खतरा पैदा हो गया है, सरकारों के ऊपर दबाव डाला जा रहा है वे कल्याणकारी योजनाओं को बंद कर दें अथवा उनके लिए आवंटित धन में कटौती करें। इसके कारण स्थानीय स्तर पर पामाली बढ़ी है। कर्ज बढ़े हैं। सामान्य आदमी की संपत्तिा घटी है। काम के क्षेत्र में असुरक्षा बढ़ी है। सामाजिक सुरक्षा और सौहार्द का तानाबाना टूटा है। इस समूची प्रक्रिया में बहुराष्ट्रीय कंपनियों और इजारेदारियों के मुनाफों में बेशुमार वृद्धि हुई है। सरकारों के ऊपर अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के कर्जों में बढ़ोतरी हुई है। बैंकों में जमा पूंजी, बचत योजनाओं, पीएफ आदि के क्षेत्र में ब्याज घटा है,जबकि बैंक कर्ज पर ब्याज बढ़ा है। मध्यवर्ग और उच्चवर्ग में इजारेदार पूंजीपति के अलावा एक बड़ा नव-धनाढय तबका पैदा हुआ है। ये वे लोग हैं जिनकी तनख्वाह हठात बढ़ गयी हैं, अथवा जिन्हें व्यक्तिगत तौर पर बेहतर पगार मिल रही है अथवा जिन्होंने जमीन-जायदाद के धंधे से पूंजी कमाई है,अथवा समस्त कानूनों को धता बताते हुए केन्द्र और राज्य सरकारों की विकास योजनाओं में भ्रष्टाचार के जरिए अकूत संपत्ति अर्जित की है अथवा सट्टा बाजार के खेल में व्यापक तौर पर छोटे निवेशक तबाह हो रहे थे तो इस वर्ग के कुछ लोगों ने बेशुमार पूंजी बटोरी, अथवा इसमें एक बड़ा अंश ऐसे लोगों का भी है जो विभिन्न किस्म के बैंक घोटालों, वित्तीय घोटालों, सार्वजनिक संपत्ति की बिक्री अथवा उसके डीरेगूलेशन का हिस्सा थे,इत्यादि क्षेत्रों से आनेवाले लोगों के पास ग्लोबलाइजेशन की संपत्ति की लूट का एक अंश पहुँचा है,यही वह तबका है जो आए दिन मीडिया से लेकर व्यावसायिक मंचों तक ग्लोबलाईजेशन के पक्ष में बोलता रहता है। ये ग्लोबलाईजेशन के लोकल एजेण्ट हैं।
    ग्लोबलाईजेशन ने अबाधित ढंग़ से संपत्ति की लूट का माहौल बनाया है ,इसमें जो लुटेरा है वह सही है,वैध है।सामाजिक संपदा की जितनी बड़ी लूट ग्लोबलाइजेशन के दौरान विश्वस्तर पर हुई है उसके आगे मानव सभ्यता के सभी युध्द और लूट-घसोट बौने हैं। जितने बड़े पैमाने पर मानवीय तबाही हुई है उसके सामने पहले दोनों विश्वयुद्ध महत्व नहीं रखते। संपत्ति की अवैध लूट को वैध बनाने नीतियां अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के जरिए लागू की गईं। पुराने पूंजीपति ने स्वयं सामने आकर वित्तीय संस्थानों को सामने किया, आज सारी दुनिया में पूंजीपतिवर्ग को गालियां अथवा आलोचना का सामना नहीं करना पड़ रहा,बल्कि विश्वबैंक,आईएमएफ आदि संस्थानों को निशाना बनाया जा रहा है, जबकि सच यह है नव्य-उदारतावाद की नीतियों के कारण समग्रता में पूंजीपतिवर्ग को ही लाभ पहुँचा है। किंतु संघर्ष के निशाने पर वह नहीं है।
     आज सारी दुनिया में जितना तनाव और अंतर्विरोध हैं वैसे मानव सभ्यता में कभी नहीं रहे। आज मानव सभ्यता के सामने ग्लोबल विकास का नहीं ग्लोबल विनाश का संकट पैदा हो गया है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तबाही के आंकड़े हमें विचलित नहीं करते, हमारी सबसे बेहतरीन संवेदनाओं को छीन लिया गया है, पहले हम दूसरे के दुख में दुखी होते थे, दुख बांटने की कोशिश करते थे, सहानुभूति दिखाते थे, सामाजिक तौर पर शिरकत करते थे,किंतु अब ये बातें परीकथा जैसी लगती हैं। हमारी संवेदनाओं के तार हमारे हाथ से निकलकर बहुराष्ट्रीय निगमों के हाथ में चले गए हैं    
        ग्लोबलाईजेशन के आदर्श मॉडल के रुप में अमेरिका को पेश किया जा रहा है, हमारे देश में भी ऐसे लोग हैं जो आए दिन अमरीकी समाज के गुन गाते रहते हैं। हमारे युवाओं में अमरीकी समाज का सपना परोसते रहते हैं। डेविड जी.मेयर्स ने अमरीकी समाज की बिडम्वना पर अनुसंधान करते हुए लिखा है  '' अब हम अपनी दुगुनी आमदनी कर लेंगे, पैसे से दुगुनी चीजें खरीद पाएंगे। हमारे यहां एस्प्रेसो कॉफी होगी,वर्ल्ड वाइड वेब होगा, खेलों के वाहन होंगे,कॉलर आई डी होगा, और हमारे पास कम से कम खुशियां होंगी, ज्यादा अवसाद होगा, ज्यादा से ज्यादा बिखरते सामाजिक संबंध होंगे। कम से कम सामुदायिक प्रतिबध्दता होगी। व्यावहारिक तौर पर कम से कम सामाजिक सुरक्षा होगी। ज्यादा अपराध होंगे। ज्यादा से ज्यादा अनैतिक बच्चे होंगे।'' एक तरफ संपदा का अंबार होगा। किंतु इससे समाज के सभी समुदायों को समान रुप से कोई लाभ नहीं मिलेगा। दूसरी ओर समाज को बांधे रखने वाले सेतु का लोप हो जाएगा।
     मेयर्स के शब्दों में यह  '' सामाजिक मंदी'' का दौर है ,यह मौजूदा नव्य-उदारतावादी '' आर्थिक विकास'' के साथ बनी रहेगी। हमें ज्यादा तनख्वाहें मिलेंगी, बेहतर शिक्षा मिलेगी, पहले की तुलना में हम स्वस्थ होंगे। तेज संचार होगा, सुविधाजनक परिवहन होगा,हमारी आमदनी दुगुनी हो जाएगी, किंतु हमारी इससे भी इच्छा शांत नहीं होंगी।
     अमरीका में 50 के दशक की तुलना में लोगों के पास कई गुना संपत्ति बढ़ी है। प्रति व्यक्ति कार में इजाफा हुआ है। लोगों की उम्र बढ़ी है। किंतु इसके बावजूद अमरीकी समाज गंभीर ''सामाजिक मंदी'' के चक्र में फंस चुका है। यह ऐसी अवस्था है जो किसी भी तरह आर्थिक मंदी से कम नहीं है। बल्कि अनेक अर्थों में उससे ज्यादा खतरनाक है। मसलन् अमरीकी में तलाक की दर दुगुना हो गयी है। अवयस्क बच्चों की आत्महत्या में तीन गुना इजाफा हुआ है। पुलिस थानों में दर्ज अपराधों की तादाद में चौगुना वृध्दि हुई है। जेलों में बंद कैदियों की संख्या निश्चित जगह की तुलना में अनेक गुना ज्यादा है,जेलों में अपराधियों की तादाद अतिवृध्दि की हद तक पहुँच चुकी है। तलाक की बजाय एक साथ रहने की मांग करने वालों की संख्या सात गुना बढ़ गयी है। अवसाद चरम पर है। द्वितीय विश्व युद्ध पूर्व की तुलना में आज अमेरिका में अवसाद दस गुना ज्यादा है। अमेरिकी समाज की अवस्था यह है कि दस में से एक बच्चा अपने अभिभावक के पास नहीं रहता। बच्चों की उपेक्षा बढ़ी है। एकल परिवार तेजी से बिखर रहे हैं। इससे सबसे बड़ा खतरा मानसिक स्वास्थ्य को हुआ है। एक शब्द में कहें तो अमरीकीकरण की हवा ने ' सामाजिक संपदा'' (सोशल कैपीटल) के लिए खतरा पैदा कर दिया है।
     





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