बुधवार, 7 जुलाई 2010

शोषण से भागा आरएसएस

      भारत में हिन्दुत्व का एजेण्डा लागू करने वाले आरएसएस के लोगों में अनेक लोग हैं जो बेहद व्यवहार कुशल,मितभाषी,सेवाभावी और मिलनसार हैं। ये लोग अपने दैनंदिन संपर्क और व्यवहार से साधारण लोगों में अपील पैदा करते हैं। साधारण लोगों को आकर्षित करने की इस व्यवहार कला की उन्हें विशेष दीक्षा दी जाती है। प्रत्येक व्यक्ति से वे ‘जी’ लगाकर बोलते हैं। सामंती समाज में जहां ‘अवे’-‘तवे’ , ‘तू-तड़ाक’ का सम्बोधन चलता है, आमतौर पर व्यवहार में लोग गालियों का प्रयोग करते हैं, वहां पर नाम के साथ ‘जी’ लगाकर कोई बुलाए तो निश्चित रूप से अपील करता है।
    राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोगों का संपर्क , सामाजिक व्यवहार और परिचित के दैनंदिन जीवन में शिरकत इतनी प्रबल होती है कि उसके सामने उनकी विचारधारा के दुर्गुण छिप जाते हैं और बहुत सारे लोग उन्हें आदर्श मानने लगते हैं।
    संघ के व्यवहारशास्त्र की धुरी है हिन्दुत्व। लेकिन व्यक्ति को उसके व्यवहार और विचार के साथ मिलाकर देखना चाहिए। विचार में उसके व्यवहार का लक्ष्य छिपा रहता है। विचार के बिना मनुष्य की परीक्षा सही ढ़ंग से नहीं हो सकती। संघ के लोग चाहते हैं उन्हें उनके व्यवहार से जाना जाए और विचारधारा या नजरिए को बहसतलब न बनाया जाए।
        संघ के कार्यकर्ता बार-बार बुर्जुआ नेताओं और सैन्य अधिकारियों के नामों का जिक्र करते हैं कि देखिए आप वेवजह संघ की आलोटना कर रहे हैं,नेहरू,जे.पी जैसे नेताओं ने संघ की प्रशंसा की थी आप भी कीजिए। संघ के ये भक्त भूल जाते हैं कि हिटलर,मुसोलिनी,तोजो, फ्रेंको आदि फासिस्ट नेताओं और उनके संगठनों की एक जमाने में अनेक नामी बुर्जुआ नेताओं ने भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और इन्हें समाज की आशा कहा था।
      लेकिन सारी दुनिया में फासिस्ट नेताओं और उनके संगठनों का व्यापक अनुभव यही बताता है कि फासिस्ट राजनीति सबसे खराब और भयानक राजनीति है और इसके नेता संत नहीं शैतान होते हैं। हिटलर संत नहीं था। उसने करोड़ों लोगों को मौत के मुँह में पहुँचाया था। उसी तरह संघ परिवार के नेता अपने को आजाद भारत में हुए अनेक साम्प्रदायिक दंगों के अपराधों से दोषमुक्त नहीं कर सकते। वे आज भी जनता की नजर में अपराधी हैं।
     संघ परिवार के लोग दूसरों के लिए बहुत खराब भाषा का इस्तेमाल करते हैं। वे आमतौर पर टकराहट वाली भाषा का इस्तेमाल करते हैं। खंडन-मंडन वाली भाषा का इस्तेमाल करते हैं। हिन्दुत्व के विचारों के विरोधियों पर घृणिततम रूप में हमले करते हैं। उनकी भाषा में उग्र अनुदारता और अतिरेक का प्रयोग अपने को अन्य विचारधारा से भिन्न दरशाने के लिए किया जाता है।
   फासीवादी संगठन हिंसा को जानबूझकर भड़काते हैं। लेकिन पेश ऐसे आते हैं गोया वे रक्षात्मक कार्रवाई कर रहे थे। रक्षात्मक कार्रवाई के नाम पर वे हिंसा इस तरह भड़काते हैं जिससे उनका एक्शन जेनुइन लगे। वे ऐसा आभास भी देते हैं कि उन्होंने कोई लंबी तैयारी नहीं की। वे अपनी हिंसा को आम लोगों के द्वारा की गई हिंसा कहते हैं।
    संघ परिवार के निशाने पर धर्मनिरपेक्ष भारत है । वे प्रत्येक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति और संगठन को निशाना बनाते हैं और आम लोगों में यह प्रचार करते हैं कि धर्मनिरपेक्षता खतरनाक है और हिन्दुओं के हितों के खिलाफ है। वह अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण है।
    सतह पर यही लगता है कि भारत में संघ के स्थायी शत्रु मुसलमान हैं। लेकिन वास्तव में संघ के स्थायी शत्रु शोषित लोग हैं। शोषकों के पक्षधर भाव को छिपाने के लिए वे मुसलमानों को निशाना बनाते हैं। असल में वे शोषितों के शत्रु हैं। मुसलमानों को विगत साठ सालों में जितनी बार संघ परिवार ने हिंसा का शिकार बनाया है उतनी हिंसा उनके अंदर नहीं है। वे मुसलमानों पर संदेह करते हैं और उनकी मदद करने वाले पर भी संदेह करते हैं। मुसलमानों से संबंध रखने वाले पर भी संदेह करते हैं। वे हिंसा के ऐसे खौफनाक दृश्य पैदा करते हैं जिससे सभी का दिल दहल जाए।वे साम्प्रदायिक हिंसा और प्रचार के जरिए आतंक की सृष्टि करते हैं। भय का वातावरण बनाते हैं। एक समुदाय के साथ पूरे इलाके पर हमला करते हैं।
     सामान्य तौर पर दंगों से सभी प्रभावित होते हैं। मुसलमान कुछ ज्यादा होते हैं। अगर कुछ देर के लिए यह भूल भी जाएं कि भारत में फासीवादी संगठन मुसलमानों के खिलाफ हिंसा कर रहे हैं। वस्तुतः वे बुर्जुआ लोकतंत्र के खिलाफ हिंसा कर रहे हैं। वे अपने हिंसाचार के जरिए बुर्जुआ लोकतंत्र की उपलब्धियों पर सवालिया निशान लगाते हैं।
   फासीवाद के लिए सामाजिक असमानता प्राकृतिक है। स्वाभाविक है। उसे दूर नहीं किया जा सकता। दलित और निचली जाति या अल्पसंख्यकों को उनकी सलाह है कि वे अपनी नियति को मानें। वे अपनी स्थिति को सिर झुकाकर मानें। यही वजह है कि अल्पसंख्यकों की विगत 60 सालों में हुई बदहाली को लेकर सच्चर कमीशन की सिफारिशों को केन्द्र सरकार लागू करने गयी तो संघ परिवार और उसके मातहत संगठनों ने इसका जमकर प्रतिवाद किया है । वे जाति के आधार पर जनगणना का भी विरोध कर रहे हैं। वे अगड़े-पिछडे की जंग में अगड़ों के साथ थे।
    भारतीय फासीवादी मानते हैं कि भारत में अल्पसंख्यकों, दलितों,आदिवासियों आदि की जो दशा है उसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं। यह उनकी प्राकृतिक परिणति है। लेकिन ये बातें वे बड़े तरीके और आक्रामक ढ़ंग से कहते हैं।
      वे चाहते हैं जो जाति और समुदाय जिस अवस्था में हैं वह उसी अवस्था में बना रहे। यानी शोषित को हमेशा शोषित रहना होगा। शोषक को हमेशा शोषक बने रहना होगा। यही वह बुनियादी विचारधारात्मक बिंदु है जहां से संघ परिवार सारे देश के शोषकों और उनके नुमाइंदों को आश्वस्त करता है और वे और उनके नेता संघ की प्रशंसा में समय-समय पर प्रशंसापत्र जारी करते हैं। संघ को नामी-गिरामी बुर्जुआ नेताओं के द्वारा दिए प्रशंसापत्र इस बात का प्रमाण है कि संघ ने शोषकों को शोषण बनाए रखने की गारंटी दी है।
    राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के फासीवादी एजेण्डे को महज साम्प्रदायिक आधार पर देखना सीमित दायरे में देखना होगा। संघ परिवार का मुख्य लक्ष्य है इजारेदारियों के विकास में मदद करना। मुक्त बाजार का निर्माण करना। अमेरिकी घरानों के लिए भारत में अभयारण्य तैयार करना। गरीबों को शोषण मुक्त करने का उनके पास कोई कार्यक्रम नहीं है।
    संघ परिवार के नेता जबाब दें उन्होंने एनडीए के शासनकाल में सारे देश में खासकर भाजपा शासित राज्यों में भूमिहीनों में भूमिसुधार कार्यक्रम लागू क्यों नहीं किया ? जितनी उत्सुकता से संघ के लोग ग्रामोत्थान का ढोंग करते नजर आते हैं ,शिक्षा का नाटक करते हैं वही उत्सुकता और त्वरा उनके द्वारा शासित राज्यों में भूमिसुधार कार्यक्रम को लागू करने के मामले में नजर क्यों नहीं आती ? क्यों इस मामले में वे और कांग्रेस एक ही डाल पर बैठे हुए हैं। गरीबों के मामले में कांग्रेस और संघ का बुनियादी रवैय्या एक है। दोनों शोषकों के साथ हैं। दोनों को शोषकवर्ग सम्मान की नजर से देखते हैं। भारत की राजनीति में कोई भी दल या संगठन शोषकों के साथ है या शोषितों के साथ है उसे कृषि संबंधों में बदलाव के कार्यक्रम के आधार पर देखा जाना चाहिए। संघ का रिकॉर्ड इस मामले में शून्य क्यों है ?
     
     
                    



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