मंगलवार, 27 जुलाई 2010

पुंसभाषा में कैद कामुक भिन्नता




    आज हम भाषा और विचार से इस कदर घिर गए हैं कि कामुक भिन्नता को भाषा और विचार से परे देख ही नहीं पाते। भाषा और विचारों के आधार पर ही कामुक भिन्नता का विमर्श तैयार किया जा रहा है। आज हम लिंग का शुद्ध अंतर एकसिरे से भूल गए हैं। आज वह भाषाविज्ञान का एक विषय बनकर रह गया है। 
    इसी संदर्भ में इरीगरी कहती है हमें अज्ञात प्रकृति के प्रति वफादार रहना चाहिए। सवाल उठता है कि वफादार हैं या नहीं , किसके प्रति वफादार हैं ? इन सवालों का फैसला किस आधार पर किया जाएगा ? यदि हम गलत धारणा के आधार पर कामुक भिन्नता की नयी धारणा बनाते हैं तो गलत निष्कर्ष निकलने की संभावना है।
      स्त्री और पुरूष के बीच में विभाजन भाषा के जन्म के पहले हो चुका था। विचार के आने के पहले हो चुका था। शरीर या बॉडी का निर्माण हो चुका था। लिंग के रूप में स्त्री और पुरूष की रचना हो चुकी थी। स्त्री और पुरूष की पहचान के जो भी रूप हमारे सामने आए हैं उनके बारे में पश्चिमी समाजों में जो समझ उभरकर सामने आई है खासकर सांस्कृतिक क्षेंत्र में कामुक भिन्नता की एथिकल एप्रोच का अभाव मिलेगा। स्त्री के प्रति वैकल्पिक चिन्तन का अभाव मिलेगा। यहां तक कि द्वंद्वात्मक पद्धति में भी वैकल्पिक चिन्तन का अभाव मिलेगा।
     वस्तुत पश्चिमी चिन्तन स्त्री के वैकल्पिक अवधारणात्मक रूपों के मामले में अपंग अवस्था में है। आदर्शवादी या भाववादी नजरिया हमें मर्द के रूप में एक ही विषय पर केन्द्रित किए हुए है। व्यक्ति के संदर्भ में धर्म और राजनीति के पास कोई एथिक्स नहीं बचा है। व्यक्तियों का उनके यहां कोई सम्मान नहीं है।
     इसके विपरीत भारतीय परंपरा में स्त्री के वैकल्पिक रूपों का जखीरा उपलब्ध है। उसके नए संदर्भों में उपयोग की व्याख्याएं उपलब्ध हैं। व्यक्ति के रूप में पहचान  और व्यक्ति की स्वायत्तता की भारतीय भक्ति आन्दोलन गारंटी करता है। यहां तक कि दर्शन और सृजन के क्षेत्र में स्त्री की लंबी स्वतंत्र परंपरा है। व्यक्तिगत विचारों के पक्षधर चिन्तन की परंपरा है। पश्चिम इस मामले में अपंग है। वहां आधुनिककाल के पहले पुंसवाद का विकल्प नजर ही नहीं आता। इरीगरी कहती है पश्चिमी परंपरा में अन्य के कोई जगह न रहने के कारण ही हम अन्य के बारे में अलग से सोच नहीं पाते, उसे अलग विषय के रूप में देख नहीं पाते। यूरोप में एक ही परंपरा है,वह है पुंसवाद की।
        सभ्यता के अध्ययन के लिए यह मानना जरूरी है कि सभ्यता का विकास स्त्री-पुरूष दोनों ने किया है। दोनों की भूमिका रही है। जेण्डर के रूप में स्त्री और पुरूष ये दोनों हमारे प्रामाणिक यथार्थ का प्रतिनिधित्व करते हैं। अनेक विचारकों ने इरीगरी के कामुक भिन्नता संबंधी विचारों की आलोचना की है। इरीगरी के आलोचक यह बात भूल गए कि इरीगरी ने जब कामुक भिन्नता की बात की और उसे अवर्णनीय और पकड़ से दूर बताया था तो अनेक लोगों को यह बात समझ में ही नहीं आयी।
     यह सच है स्त्री आज भी हमारे वर्णन,भाषा और ज्ञान के दायरे के परे है। हम जितना उसे जानने का दावा करते हैं,जितना उसे बताते हैं,उससे ज्यादा हम यह बता रहे होते हैं कि हम उसे कितना नहीं जानते अथवा उसके बारे में हमने कितना नहीं बताया। अन्य के संबंध में हम उसकी जितनी व्याख्या करते हैं मामला उतना ही जटिल होता जा रहा है।
     इरीगरी कहती है आप ज्योंही कहते हैं कि आप स्त्री को पहचानते हैं। इसका अर्थ है कि आप उसे विचारों और अन्य चीजों के जरिए नहीं जानते। मैं आपको पहचानता हूँ इसका अर्थ है कि आप मेरे लिए सीमित अर्थ नहीं रखतीं। उसी तरह मैं भी तुम्हारे लिए सीमित अर्थ नहीं रखता। मैं तुम्हें पहचानता हूँ कि तुम्हारे और मेरे बीच में क्या भिन्नता है। यह भिन्नता मेरे ज्ञान और समझ से पलायन कर चुकी थी।
    देरिदा के शब्दों में यह अन्य के साथ एनकाउण्टर है। अज्ञात के साथ मुठभेड़ का अर्थ है समय का खुलना। शुद्ध भविष्य का सामने आना। यह एक तरह का शुद्ध निवेश है इतिहास रूपी अर्थव्यवस्था पर। यह भविष्य पर किया गया निवेश है। हमें देखना चाहिए कि किन अन्तविरोधों के कारण स्त्री और पुरूष के बीच भेद आरंभ हुआ। आज उनमें यदि भेद है तो उसके पीछे किस तरह के अन्तर्विरोध सक्रिय हैं।
     सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर हमने स्त्री-पुरूष के अन्तर्विरोधों को छिपाया है। अन्तर्विरोधों को छिपाने के नाम पर हमने सबके सामने स्त्री और पुरूष के बीच मौजूद अंतरों या वैषम्य की अधूरी तस्वीर पेश की है। वैषम्य को छिपाया है। भेद को छिपाने के लिए पहले भाषा बनायी फिर रूपक बनाए। रूपकों को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए दर्शनशास्त्र गढ़ा।
    




                

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