रविवार, 8 नवंबर 2015

अनुपम खेर का मोदीमार्च


                 कल कुछ “ सहिष्णुतापंथी” दिल्ली की सड़कों पर निकले,बाद में राष्ट्रपति और पीएम से भी मिले। पीएम से बातें करते हुए जो चीज सामने आई उसने विवेकवान लोगों को निराश किया है।मसलन्,पीएम मोदी कल जब अनुपम खेर आदि संघभक्तों से मिल रहे थे तो वस्तुतःअपने हाथ से अपनी ही पीठ ठोक रहे थे,कल अनुपम खेर आदि के साथ मोदी की बातचीत में जो भाव-भंगिमा और भाषा नजर आई उससे यह बात साफ हो गयी कि मोदी को देश की नहीं संघियों की संस्कृति रक्षा की चिन्ता है।

संघ के सुर में सुर मिलाते हुए पीएम मोदी ने 3लेखकों की हत्या पर एक शब्द भी नहीं बोला,लेकिन उन्होंने हत्या के खिलाफ प्रतिवाद कर रहे लेखकों-बुद्धिजीवियों पर बोलना जरुरी समझा, इस तरह की नंगी पक्षधरता पीएम की पहले कभी नहीं देखी गयी। इससे उन्होंने यह संदेश दिया है कि पीएमओ देश का नहीं हिन्दुत्व राजनीति का केन्द्र है।

पीएम ऑफिस सबका होता है।उसे इस या उस वर्ग या संगठन का ऑफिस नहीं होना चाहिए। पीएम भी सबका होता है,सारे देश का होता है,लेकिन पीएम मोदी अभी तक अपने को सबका पीएम बना ही नहीं पाए हैं। सैंकड़ों लेखकों-बुद्धिजीवियों-इतिहासकारों और वैज्ञानिकों की बार- बार की जा रही अपील और प्रतिवाद की अनदेखी करना और यह कहना कि उनका तो राजनीतिक एजेण्डा है,पीएम पद की गरिमा को कलंकित करता है।

पीएम मोदी भूल ही गए कि संस्कृति का सृजन आम जनता करती है,लेखक-कलाकार तो निमित्त मात्र हैं। लेखक जब प्रतिवाद कर रहे हैं तो असल में वे आम जनता की भावनाओं को ही व्यक्त कर रहे हैं। आम जनता संस्कृति का निर्माण या सृजन किसी के इशारे या आदेश पर नहीं करती,बल्कि स्वतःस्फूर्त्त ढ़ंग से करती है,निजी पहल के जरिए करती है। कलाओं का सृजन राजनीतिक आदेश से नहीं हृदय के आदेश से होता है। इसलिए लेखकों का कोई राजनीतिक एजेण्डा नहीं है,कोई राजनीतिक स्वार्थ नहीं है। संस्कृति के सर्जकों को अपमानित करना,उन पर हमले करना,सोशल मीडिया से लेकर सड़कों तक बुद्धिजीवियों-लेखकों-कलाकारों को संघी बटुकों द्वारा अपमानभरी भाषा में अपमानित करना अपने आप में सबसे बड़ा प्रमाण है असहिष्णुता का।

संघ के जहरीले प्रचार से युवाओं का एक समूह इस कदर उन्मत्त है कि प्रतिदिन हजारों की संख्य़ा में गंदे और घटिया मैसेज फेसबुक पर कमेंटस के रुप में पोस्ट कर रहा है। इस समूची प्रक्रिया में बुद्धिजीवी विरोधी उन्माद पैदा करने की कोशिश की जा रही है।

दिलचस्प बात यह है अनुपम खेर को यह सब नजर ही नहीं आता। अनुपम खेर ने यदि सामान्य से विवेक का परिचय दिया होता तो वे संघियों की रक्षा में इस तरह का मार्च नहीं निकालते।

अनुपम खेर जिस संविधान का हवाला दे रहे थे,संघ के बटुक उस संविधान की बहुत पहले छुट्टी कर चुके हैं।उनके लिए संविधान और उसकी मान्यताएं फिजूल की चीजें हैं।

आश्चर्य तब होता है कि भारत के गौरवपूर्ण संस्थानों और उनके साथ जुड़े बुद्धिजीवियों -वैज्ञानिकों -विचारकों आदि पर खुलेआम संघ का मुखपत्र पांचजन्य हमले कर रहा है और अनुपम खेर को वह सब नजर ही नहीं आता। मोदी सरकार की संस्कृतिकर्मियों के हत्यारों के प्रति शिथिल और उपेक्षापूर्ण दृष्टि ने बहुत बड़ी क्षति की है। यह संघी गुलामी का आदर्श नमूना है।

पीएम मोदी को पता ही नहीं है कि भारतीय संस्कृति क्या है और संस्कृति किसे कहते हैं,संस्कृति का मतलब स्वीकार करना नहीं है मोदी जी।संस्कृति का विकास अस्वीकार और त्याग के जरिए होता है। इन दोनों के लिए विवेक और असहमति का होना जरुरी है। भारतीय संस्कृति में आज जितनी भी अच्छाईयां नजर आ रही हैं,उनमें विवेक और असहमति की केन्द्रीय भूमिका है,सहमति तो संस्कृति का बंद मकान है।

सवाल उठता है कि अनुपम खेर आदि संघी मार्च करने वालों ने तीन लेखकों की हत्या की निंदा क्यों नहीं की ? वे हत्यारों के खिलाफ बोलने से कन्नी क्यों काट रहे हैं।प्रेस कॉफ्रेस में हमलावरों पर चुप्पी क्यों ?

असल में, भारत में एक नया वर्ग पैदा हुआ है जो गर्व से कह रहा है कि हम फासिस्ट (हिन्दुत्ववादी) हैं। वे संविधान,लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला करने वालों के साथ निर्लज्ज भाव से खड़े हैं। इस तरह की निर्लज्जता कला जगत में हाल के वर्षों में दुर्लभ थी।नए फासिस्टों का गुण है कि वे कला के सवालों पर नहीं फासिस्ट राजनीति के सवालों पर लेखकों-कलाकारों पर हमले कर रहे हैं। वे कला फासिज्म के लिए ,कला हिन्दुत्व के लिए का नारा लगा रहे हैं , वे मांग कर रहे हैं कलाएं मोदी की सेवा करें। आरएसएस की सेवा करें। इस तरह का नग्न अ-कलात्मक आंदोलन अपने आप में विलक्षण बात है। यह नए किस्म की जाहिली है औक संघी गुलामी है। फासिज्म की आहटें सुननी हो तो सुप्रीम कोर्ट में आए दिन जो घट रहा है,अदालतों को आए दिन जिस तरह हस्तक्षेप करना पड़ रहा है उससे स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लगाएं। मोदी सरकार के अधिकांश फैसले अदालतों के जरिए रोके गए हैं,क्योंकि वे गलत थे।

इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि भारतीय लोकतंत्र में बुद्धिजीवी-कलाकार-नागरिक समाज और न्यायालय की महत्ता राजनीतिक दलों से भी ज्यादा है।इनकी राय भी राजनीतिक दलों से ज्यादा महत्वपूर्ण होती।हाल में न्यायालयों से संबंधित कॉलिजियम सिस्टम के खिलाफ मोदी सरकार के द्वारा पारित संविधान संशोधन बिल को सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक मानकर खारिज कर दिया,जबकि संसद के दोनों सदनों,राष्ट्रपति के अनुमोदन और 22विधानसभाओं ने उसे पास कर दिया था,संसद में सभी दलों,यहां तक कि वामदलों ने भी उसे पास कर दिया था, ये तमाम राजनीतिक दल संविधान संशोधन में निहित असल मंशाओं और अर्थों को समझ ही नहीं पाए जबकि सुप्रीम कोर्ट ने उस संविधान संशोधन को असंवैधानिक कहकर खारिज किया,यह हमारे राजनीतिक सिस्टम की कमअक्ली के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय और नागरिक समाज का सबसे बड़ा हस्तक्षेप है। अधिकांश मीडिया इस पहलु को नजरअंदाज करके मोदी रामायण के पाठ में मगन है,फेसबुक पर मोदी के अंधभक्त और अनुपम खेर जैसे "महान बुद्धिजीवी " इस तरह की असंवैधानिक मंशाओं को समझने में असमर्थ रहे हैं।

पुरस्कार वापसी की मुहिम के खिलाफ कहा गया कि पहले क्यों नहीं बोले ? पहले यदि फेसबुक होता तो यह सवाल ही नहीं उठता कि इनाम वापस करने वाले लेखक- बुद्धिजीवी पहले कहां थे, वे इसी समाज में थे और समय-समय पर प्रतिवाद कर रहे थे, अनुपम खेर और दूसरे लोगों की मुश्किल यह है कि वे फेसबुक के आने के पहले संभवतःअखबार नियमित नहीं पढ़ते थे। जो इन दिनों फेसबुक पढ़ते हैं वे भाग्यशाली हैं कि तुरंत जान लेते हैं कि कहां क्या हो रहा है। यहां तक कि शूटिंग करते हुए जान लेते हैं,लेकिन अखबार के युग में यह जानना मुश्किल था कि कहां क्या हो रहा है। जो लेखक आज प्रतिवाद कर रहे हैं वे सभी महत्वपूर्ण अवसरों पर प्रतिवाद करते रहे हैं। तर्क के लिए पहले कहां थे वाली बात यदि अनुपम खेर पर लागू करें और देखें कि कैसा लगता है,मसलन्, अनुपम खेर के नेतृत्व में एकजुट भाजपा बौद्धिक पहले कभी किसी भी समस्या पर सक्रिय नजर नहीं आए,ये न तो मनमोहन युग में दिखे,न १९८४ के दंगे में दिखे, न मुंबई दंगों के समय दिखे, न २००२ के गोधरा - गुजरात नरसंहार के समय दिखे,मोदी भक्ति में नहाए ये बौद्धिक पनसारे से लेकर दादरी तक हुई हिंसा का विरोध करते कभी सक्रिय न दिखे, हाल में मणिपुर में एक प्रधान टीचर की हत्या पर भी कुछ नहीं बोले,ये बोल रहे हैं प्रतिवाद करने वालों के खिलाफ,कोई इनको समझाओ कि मुद्दा प्रतिवाद करने वाले लेखक नहीं हैं मुद्दा है ३ लेखकों की हत्या,अखलाक से लेकर मणिपुर के टीचर की हत्या । हत्यारों का प्रतिवाद करो।ऐसा न करके अनुपम खेर एंड कंपनी के द्वारा सभ्य लेखकों- कलाकारों के खिलाफ प्रतिवाद किया जा रहा है।

खुले बाजार की नीति के साथ बंद दिमाग की हिन्दुत्वनीति नहीं चल सकती,बाजार में माल का अबाधित प्रवाह हो तो विचारों का अबाधित प्रवाह बेहद जरुरी है।किसी भी तरह के विचारों पर पाबंदी या शारीरिक हमले वस्तुत: खुले बाजार की नीति का विलोम है।कायदे से संघ को अपने विरोधियों पर शारीरिक हमले बंद करने चाहिए।



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