शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

राधामोहन गोकुलजी और ईश्वर का बहिष्कार

         हमारे समाज में ईश्वर आज भी कल्पनाविलासियों –परजीवियों के लिए सबसे बड़ी ताकत है। समाज के व्यापकतम तबके में ईश्वर के प्रति गहरी आस्था और विश्वास को देख सकते हैं।मैं भी बार-बार ईश्वर को देखने मंदिरों में जाता हूँ,ईश्वर की कभी-कभी पूजा भी करता हूँ,मैं नहीं जानता मैं ऐसा क्यों करता हूँ,यह सच है कि ईश्वर नहीं है,इसके बावजूद ईश्वर ने हजारों सालों में समाज में हर आदमी के अंदर अपने लिए संस्कार, आदत, धर्म,मूल्य आदि के बहाने स्थान बनाया है। मुझे भी बचपन से यही सिखाया और बताया गया कि भगवान है और उसे मानो,कोई तकलीफ हो तो उससे कहो,वह मदद करेगा, लेकिन संयोग कहें या दुर्योग भगवान अभी तक नहीं मिला,बहुत पूजा-उपासना की,लेकिन नहीं मिला,बहुत मंदिरों में प्रणाम किया,साल में दो बार दुर्गाष्टमी पूजा ,होली-दीपावली आदि पर भगवान की पूजा करता रहा हूँ लेकिन नहीं मिला और स्थिति इस कदर त्रस्त करने वाली है कि अच्छे गुरुओं से मिलकर भी भगवान नहीं मिला,किसी भी रुप में भगवान का न मिलना अपने आपमें प्रमाण है कि भगवान नहीं है।

हम मंदिर इसलिए जाते हैं क्योंकि हमारे स्वार्थ जुड़े हैं,आर्थिक –सामाजिक –राजनीतिक लाभ जुड़े हैं,हम पूजा इसलिए करते हैं कि हमारी आदत है पूजा करना। लेकिन मैं निजी तौर पर ईश्वर में कोई विश्वास नहीं करता। विश्वास नहीं करता फिर भी पूजा करता हूँ,भगवान सामने पड़ जाए तो नमस्कार करता हूँ,यह हजारों साल का अभ्यास है जो सहज ही जाने वाला नहीं है,इसके लिए गहरे आत्मसंघर्ष की जरुरत होती है ,वह मध्यवर्ग केहमारे जैसे लोगों में कम ही होता है।

धर्म और ईश्वर के प्रति तिरस्कार की भावना की बजाय धार्मिक मान्यताओं,भावनाओं और विश्वासों के प्रति वैज्ञानिक विमर्श या संवाद पैदा करने की जरुरत है,भगवान तब कमजोर होता है जब आप संवाद-विवाद और शास्त्रार्थ करते हैं। लेकिन भगवान को ज्योंही पूजा और आस्था की चीज बनाते हैं तो वह मजबूत बनता है। भगवान की सामाजिक सत्ता कमजोर हो और सामाजिक जीवन में वैज्ञानिकचेतना आए,चीजों,वस्तुओं और घटनाओं को वैज्ञानिक ढ़ंग से देखने का नजरिया विकसित हो यह आज के युग की जरुरत है।

राधामोहन गोकुलजी इस अर्थ में महत्वपूर्ण हैं कि वे हिंदी में पहले विचारक-क्रांतिकारी और स्वाधीनता सेनानी हैं जो ईश्वर की सत्ता को सीधे चुनौती देते हैं। उनका प्रसिद्ध निबंध है, “ईश्वर का बहिष्कार”, (माधुरी,नवंबर1925 से फरवरी1926 तक) , इस निबंध में उन्होंने लिखा, “ ईश्वर एक ऐसा कल्पित पदार्थ है,जिसे कभी किसी ने अपनी ज्ञानेन्द्रियोंसे प्रत्यक्ष नहीं किया इसलिए कि उसका सर्वथा अभाव है।ईश्वर कोई ऐसी चीज़ है ही नहीं। जिस पदार्थ का अत्यंत अभाव है,उसका अस्तित्व कभी हो ही नहीं सकता।”

गोकुलजी ने यह भी लिखा, “ ईश्वर के माननेवाले उसे सर्वशक्तिमान,न्यायकारी,दयालु,सर्वव्यापी इत्यादि सभी गुणों से विभूषित करते हैं।यह लोग यह नहीं सोचते कि शक्तिमान् कहने से यह एक गुण ‘शक्ति’ का दूसरी चीज में आरोप करते हैं तो दूसरी चीज कोई वस्तु होनी चाहिए और ईश्वर कोई वस्तु नहीं है।”

गोकुलजी ने प्रसिद्ध फ्रांसीसी विद्वान् वाल्टेयर के नजरिए की तीखी आलोचना करते हुए जो कुछ कहा है वह काफी मूल्यवान है। वाल्टेयर का मानना है , “यदि ईश्वर न भी हो तो भी हमें एक ईश्वर का आविष्कार करना जरुरी है,क्योंकि जनता को धर्म की जरुरत है।” गोकुलजी ने लिखा, “ हमें इस पंडित की बात पर हंसी आती है।पहले तो उपर्युक्त वाक्य पढ़ने से प्रकट होता है कि वाल्टेयर को स्वयं ईश्वर नामक किसी पदार्थ की सत्ता का पूर्ण विश्वास न था,इसीलिए वह मूर्ख जनता को धोखे में डालने की नीयत से एक ईश्वर की कल्पना करने के फेर में पड़ा।दूसरे उसने ईश्वर के लिए Himकर्मवाचक;एकवचन पुल्लिंग,प्रथम पुरुष का प्रयोग करके उसे मर्द करार दिया। इससे प्रकट है कि वह इस अजीब जानवर को मनुष्य मानता है और मनुष्य मानने से उसकी सर्वशक्तिमत्ता,सर्वव्यापकता आदि की सारी बातें धूल में मिल जाती हैं।यही बात हिन्दू-मुसलमानों के खुदा की भी है।तीसरे जनता को एक धर्म दरकार है इसलिए खुदा का आविष्कार करना जरुरी है,यह भी बड़ी मजेदार बात है। जनता ने कभी खुदा नहीं मांगा; ‘वाल्टेयर’ और उसी तरह सोचनेवाले भद्रपुरुषों ने खाहमखाह एक खुदा गढ़कर जनता को अगणित बेहूदगियों का शिकार बना डाला।” आगे लिखा “ खुदा की ही कल्पना ने इंजील,कुरान,पुराण को रक्तरंजित इतिहास का भांडागार बनाया और घृणित कथाओं और भावों से मनुष्य जाति का सर्वनाश किया है।”

गोकुलजी असल में महात्मा मिकाइल बेकुनिन के प्रशंसक थे जो मानता था “यदि खुदा सचमुच होता है तो भी उसे धक्का देकर निकाल देना जरुरी होता।सच है धर्म और ईश्वर ऐसी ही बुरी कल्पना है। इनसे संसार का जब तक पीछा न छूटेगा,तब तक उसका कल्याण न होगा।”








कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...