शनिवार, 21 नवंबर 2015

सोया युवामन और कचड़ा संस्कृति


विगत कई दशकों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों का युवाओं के खिलाफ विश्वयुद्ध चल रहा है। अफसोस की बात यह है कि विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में पढ़ने वाले अधिकांश युवा इस युद्ध से अनभिज्ञ हैं।कभी -कभी तो इस युद्ध के औजार के रुप में देश के मुखिया भी भाषण देते नजर आते हैं। मसलन्, अधिकांश युवाओं में श्रम - मूल्य में आ रही गिरावट को लेकर कोई गुस्सा या प्रतिवाद नजर नहीं आता। हम अपने दैनंदिन जीवन में देख रहे हैं कि श्रम का मूल्य लगातार गिरा है। दैनिक और मासिक पगार घटी है,लेकिन युवा चुप हैं। युवाओं में अपराधीकरण बढ़ रहा है लेकिन युवा चुप हैं। बच्चों और युवाओं में वस्तुओं की अनंत भूख जगा दी गयी है लेकिन युवा चुप हैं।सामाजिक स्पेस का निजीकरण कर दिया गया है लेकिन युवा चुप हैं।

अब युवा को टीवी खबरों,सोशलमीडिया,सिनेमा,रियलिटी शो,वीडियो शो आदि में मशगूल कर दिया गया है। वस्तुगत तौर पर देखें तो युवाओं का अधिकांश समय कचरा सांस्कृतिक उत्पादों में गुजरता है और युवाओं का एक बड़ा वर्ग इसको ही पाकर धन्य-धन्य घूम रहा है। इससे युवा एक तरह से बेकार-फालतू माल बन गया है जिसे कभी भी कहीं भी फेंका जा सकता है।युवाओं को बेकार-फालतू माल बना दिए जाने की इस प्रक्रिया के बारे में हमने तकरीबन बोलना ही बंद कर दिया है।

आज देश में दुर्दशापूर्ण स्थिति के लिए इस तरह के युवाओं की कचड़ाचेतना को एक हदतक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। कायदे से होना यह चाहिए कि युवा के अंदर सामाजिक बर्बरता,असभ्यता,कुसंस्कृति आदि के प्रति तुरंत आक्रोश पैदा हो,वह अन्याय के खिलाफ तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त करे,लेकिन हो इसके उलट रहा है,युवाजन आँखों सामने अन्याय-बर्बरता देखते हैं,उसमें शामिल भी होते हैं,असभ्यता देखते हैं और उसका महिमामंडन भी करते हैं। खासकर फेसबुक जैसे माध्यम में यह चीज बहुत तेजी से नजर आई है।

मसलन्, हमारे अधिकांश युवाजन समूचे देश में युवाओं में बढ़ रही हिंसा और अपराध की प्रवृत्ति के खिलाफ कोई जोरदार टिकाऊ आंदोलन करना तो दूर एक बड़ी रैली तक नहीं कर पाए हैं।आज के युवा की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वह अपने को अपने नजरिए से नहीं देख रहा बल्कि ऐसे व्यक्तियों और संगठनों के नजरिए से देख रहा है जो कहीं न कहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की संस्कृति-राजनीति और सभ्यता के पैरोकार हैं। ये लोग युवा का जो खाका हमारे सामने खींच रहे हैं वही खाका आँखें बंद करके युवाजन मान रहे हैं।



मसलन्, पीएम मोदी( चाहें तो अभिजन एलीटकह सकते हैं) कह रहे हैं देश विकास कर रहा है,अधिकांश युवा मान चुका है कि देश विकास कर रहा है,वे कह रहे हैं डिजिटल इंडिया तो युवा कह रहा है डिजिटल इंडिया,वे कह रहे हैं देश के युवाओं में अपार क्षमताएं हैं,युवा मानकर चल रहे हैं अपार क्षमताएं हैं, मोदी कह रहे हैं स्कील डवलपमेंट जरुरी है,युवा भी मान चुके हैं कि जरुरी है। इस समूची प्रक्रिया में युवा के मन में यह बात बिठायी जा रही है कि उसके पास निजी दिमाग और विवेक नहीं होता,वह ठलुआ होता है,उसे जो बताया जाएगा वही मानेगा। मसलन् पीएम मोदी कहेंगे कि देश में महंगाई है तो महंगाई है ,यदि वे नहीं कहते तो देश में महंगाई नहीं है,चाहे अरहर की दाल 230रुपये किलो बिके। इस तरह की युवा मनोदशा के बारे में पीएम मोदी यह मानकर चल रहे हैं कि वे युवाओं को वे जब बताएंगे तब ही वह जानेगा। उसमें सामाजिक समस्याओं को जानने-समझने की क्षमता नहीं है। इसके कारण पीएम मोदी को यह भ्रम भी हो गया है कि वे ज्ञान के अवतार हैं और उनके जब ज्ञान चक्षु खुलेंगे तब ही युवाओं के भी ज्ञान चक्षु खुलेंगे। इस समूची प्रक्रिया ने युवाओं में “जय-हो” संस्कृति को जन्म दिया है। यह “जय हो” संस्कृति युवाओं को कचड़ा सांस्कृतिक रुपों , अनुत्पादक मूल्यों और कार्यों में बांधे रखती है।फलतःयुवा के अंदर समाज,संस्कृति,राजनीति आदि को लेकर आलोचनात्मक विवेक पैदा ही नहीं होता और युवामन अहर्निश कचड़ा संस्कृति में रस लेता रहता है। कायदे से युवाओं को कचड़ा संस्कृति के प्रति आलोचनात्मक विवेक पैदा करना चाहिए। जो कहा जा रहा है या दिखाया जा रहा है उस पर सवालिया निशान लगाकर विचारकरना चाहिए ।युवा यह सोचें कि जो कहा जा रहा है वह क्या यथार्थ से मेल खाता है ? जो चीज यथार्थ से मेल नहीं खाती उसे नहीं मानना चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...